अफगानिस्तान में तालिबान के राज के दो साल पूरे हुए। दो वर्ष बाद की अफगानिस्तान की जो तस्वीर है वह निर्मम और दुःखद है। तालिबानी राज का दूसरा दौर उतना ही बुरा है जितना पहला दौर था – विशेषकर महिलाओं और लड़कियों के लिए। अफगानिस्तान अब दुनिया का इकलौता देश है जहां लड़कियों के लिए मिडिल से ऊंची शिक्षा हासिल करना और ज्यादातर तरह के काम करना गैर-कानूनी है। संयुक्त राष्ट्रसंघ के अनुसार अफगानिस्तान में स्कूल जाने की उम्र की 25 लाख लड़कियों में से 80 प्रतिशत शिक्षा से वंचित हैं।
अफ़ग़ानिस्तान का ज्यादातर हिस्सा भुखमरी का शिकार है। विदेशी निवेश और विदेशी पैसा आना बंद है क्योंकि विदेशी बैंक अफगानिस्तान से लेनदेन के लिए तैयार नहीं हैं। विश्व बैंक के अनुसार अफगानिस्तान की अर्थव्यवस्था का आकार 2021 से 2022 के बीच 35 प्रतिशत सिकुड़ा है।
जैसा अनुमान था, तालिबान ने अपने स्थानीय प्रतिद्वंद्वियों को सत्ता में हिस्सेदारी नहीं दी। शासन में ज्यादातर मुल्ला पख्तून हैं जो अफगानिस्तान का सबसे बड़ा कबीला है। उसके बहुत से प्रतिद्वंद्वी ताजिक हैं, जो दूसरा बड़ा कबीला है। इससे इन दोनों समूहों के बीच टकराव दुबारा शुरू होने का खतरा बढ़ गया है, जैसा की1990 के दशक में हुआ और देश तबाह हुआ।
जहां तक आतंकवाद का प्रश्न है, अफगानिस्तान आतंकवादियों की पनाहगाह है। एक साल से कुछ अधिक समय पहले, अमरीकी सरकार ने अल कायदा नेता अल-जवाहिरी को काबुल में ढूंढा और ड्रोन हमले से उसे मौत के घाट उतारा।
अफगानिस्तान में दो श्रेणियों के आतंकवादी समूह हैं: पहले वे जो तालिबान के साथ हैं और दूसरे वे जो तालिबान के खिलाफ हैं। तालिबान के सहयोगी समूहों में अल कायदा, तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) और मध्य एशिया के कई जेहादी हैं। तालिबान विरोधी संगठनों में से प्रमुख है इस्लामिक स्टेट खोरासन (आईसिस-के) जिसे लेकर सबसे ज्यादा चिंता है। विश्व स्तर पर अल-कायदा अब तक के अपने इतिहास में सबसे कमज़ोर स्थिति में है। सीरिया और ईराक में हुए युद्धों के नतीजे में उभरे आतंकवादी संगठन इस्लामिक स्टेट के कारण अल कायदा कमजोर हो गया है। और तालिबानी, इस्लामिक स्टेट के स्थानीय साथी संगठन – जिसे वह खतरनाक प्रतिद्वंद्वी मानता है – पर हमलावर है। वह पूर्वी अफगानिस्तान व अन्य स्थानों पर स्थित उसके छिपने के ठिकानों पर हमले कर रहा है।
बावजूद इसके सब के कहा जा रहा है कि तालिबान का राज इतना बुरा भी नहीं है। ऐसी खबरें थीं कि देश की मुद्रा अफगानी की कीमत जब दिसंबर 2021 में रिकार्ड निचले स्तर पर पहुंची तब मौलवियों ने केन्द्रीय बैंक से सलाह मांगी जिसमें बड़ी संख्या में पश्चिमी देशों में शिक्षित अधिकारी हैं और इसके कारण करेंसी में स्थिरता लौटी। आज उसका मूल्य डालर की तुलना में काबुल के पतन के दिन से 7 प्रतिशत कम है। भ्रष्टाचार पर अंकुश है। शरीयत कानून से कानून-व्यवस्था पर कठोर नियंत्रण है। विदेशी पाबंदियों के बावजूद तालिबान सरकार अपने कर्मचारियों के वेतन के लिए पर्याप्त रकम जुटा पा रही है। काबुल स्थित एक मीडिया संस्थान के प्रमुख, जिन्हें किसी भी तरह से मुल्लाओं का प्रशंसक नहीं माना जा सकता, वे मानते हैं कि अफगानिस्तान में प्रशासन पाकिस्तान से बेहतर है। वे यह भी मानते हैं कि अफगान टीवी चैनलों को भारत और तुर्की के चैनलों की तुलना में खबरें देने की अधिक आजादी है। अफगानिस्तान की समृद्ध ऐतिहासिक विरासत की पड़ताल में रूचि रखने वाले विदेशी और स्थानीय पुरातत्ववेत्ताओें और क्यूरेटरों का एक समूह, जो काबुल में है, तालिबान की इस बात के लिए प्रशंसा करता है कि वह देश में इस्लाम के आने के पहले के समय से जुड़े पुरातात्विक स्थलों की भी मरम्मत और देखभाल कर रहा है।
लेकिन इससे लोगों की बुरी दशा पर पर्दा नहीं पडता। अफगानिस्तान में नौकरियां नहीं हैं। पूरे देश में कुपोषण की स्थिति गंभीर होती जा रही है। खाद्यान्नों की जबरदस्त कमी है। दो जून की रोटी जुटाने के लिए बच्चों को भी माता-पिता जितनी मेहनत करनी पड़ रही है। सन् 2019 में 63 लाख अफगानियों को मानवीय सहायता की जरूरत थी और आज 2 करोड़ 80 लाख को है। संयुक्त राष्ट्रसंघ के अनुसार 97 प्रतिशत अफगान गरीबी की रेखा के नीचे जी रहे हैं। महिलाओं के स्कूलों में दाखिले, काम करने और आजादी से रहने की मनाही है।ध्यान रहे सऊदी अरब, जो दुनिया के उन चन्द देशों में से एक हैं जिन्होंने तालिबान सरकार को मान्यता दी है, ने भी लड़कियों की माध्यमिक स्कूलों और विश्वविद्यालयों में प्रवेश वर्जित की निंदा की बुई है।
तालिबानी अफगानिस्तान लगभग पूरी दुनिया से अलग-थलग है। जहां तक अफगानियों का सवाल है, जो देश छोड़कर नहीं जा सके हैं उन्होंने अपनी किस्मत से समझौता कर लिया है। वे थके हुए हैं और निराश भी। तालिबानी शासको को जनभावनाओं के बारे में न तो कुछ पता है और ना ही उसकी परवाह है क्योंकि वे ताकत और बंदूक से राज करते हैं। पश्चिमी देश नाराज़ तो है लेकिन किसी की भी अफ़ग़ानिस्तान में दिलचस्पी नहीं रही। अफगानिस्तान दुनिया की नजरों से दूर और उसके दिमाग से बाहर हो है और अफगानियों को कही से, किसी का भी सहारा नहीं है। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)