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क्रांतिकारियों की तस्वीरों के सहारे राजनीति

देश में ज़्यादातर नेताओं की राजनीति क्या आज़ादी के लड़ाके या फिर क्रांतिकारियों के नाम पर या फिर उनकी तस्वीर के सहारे चलाई जा रही है। सवाल थोड़ा टेडा है पर सोचने लायक़ भी। भले वह मुख्यमंत्री का दफ़्तर हो या फिर किसी मंत्री या विधायक स्तर के नेताओं का ही क्यूं नहीं, दफ़्तर के दरवाज़े पर ही आज़ादी के लड़ाकों,क्रांतिकारियों या उनके वंशजों की फ़ोटो टंगी दिख जाती है पर ज़्यादातर नेताओं को इनके बारे में क्या उनके वंशजों की जानकारी भी नहीं होगी कि वे किन हालातों में जीवन यापन कर रहे होंगे और न ही आज के दौर में ऐसे महान लोगों के परिवारों के बारे में सरकार सोचती होंगी। \

समय गुज़रता गया और उनकी यादें भी भुलाई जाती रहीं। लेकिन इंडियन एक्सप्रेस में अपराध संवाददाता रहे शिवनाथ झा ने इन परिवारों की सुध लेने की पहल की है।

साथ ही अपने लेखन के ज़रिए ऐसे परिवारों के लोगों को नौकरी देने के माँग साथ ही जागरूकता अभियान भी शुरू किया है। इसी अभियान में वे पिछले 20 सालों में 76 परिवारों को तलाशने के साथ ही तांत्या टोपे के वंशज में से दो बेटियों को नौकरी भी दिला चुके हैं साथ उनका यह प्रयास जारी है। अखबारवाला का साईकिल पर बोर्ड लगा ये पत्रकार महोदय सुबह की सैर से अपना अभियान आज भी बखूबी चला रहे हैं।

पिछले हफ़्ते जब दिल्ली सरकार में अपन की इन अखबारवाला से मुलाक़ात हुई तो मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के दफ़्तर के दरवाज़े पर तांत्या टोपे की फ़ोटो भी दिखी तो दिल्ली सरकार में उप-मुख्यमंत्री रहे मनीष सिसोदिया के दफ़्तर के बाहर वेलकम का बोर्ड भी दिखा। पर यह अलग बात है कि शराब घोटाले में सिसोदिया की गिरफ़्तारी के बाद यह बोर्ड उल्टा कर दिया गया। इन खोजी पत्रकार से बातचीत हुई तो बहुत कुछ जानने की चाहत भी। अब भले संवाद प्रेषण सोशल मीडिया के ज़रिए हो जाता या फिर हर दूसरे व्यक्ति को अपनी बात कहने का प्लेटफ़ार्म मिल गया हो पर ऐसे कितने होंगे जो क्रांतिकारियों ,उनके वंशजों की सुध लेता होगा। पर यह बात दूसरी रही कि नेता अपने कार्यक्रमों में इनकी तस्वीर टांग कर उस पर माला चढ़ाकर अपनी भक्ति दिखा लोगों की तालियाँ बजबा कर राजनीति में हित साध लेते हैं।

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By ​अनिल चतुर्वेदी

जनसत्ता में रिपोर्टिंग का लंबा अनुभव। नया इंडिया में राजधानी दिल्ली और राजनीति पर नियमित लेखन

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