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विपक्ष का हर बात पर विरोध क्यों?

बैठक

राष्ट्रीय स्तर पर कल का विपक्ष (भाजपा) आज सत्तारुढ़ है और आज वर्तमान विपक्ष भविष्य में कभी सत्तासीन हो सकता है। सरकार-विपक्ष की जुगलबंदी तभी चलेगी, जब देश और उसका अस्तित्व बना रहेगा। 12वीं शताब्दी में यह गलती जयचंद ने की थी, जिसने व्यक्तिगत खुन्नस के कारण आक्रमणकारी मुहम्मद गौरी का सहयोग किया था। इसी तरह 18वीं सदी में बंगाल स्थित मीर जाफर ने सत्ता पाने हेतु नवाब सिराजुद्दौला के खिलाफ आक्रांता ब्रितानी रॉबर्ट क्लाइव से हाथ मिला लिया था। दोनों के परिणाम सर्वविदित है।

जून की तेईस तारीख को बिहार की राजधानी पटना में 17 विपक्षी दलों की बैठक हुई। इसमें देश को और आगे ले जाने हेतु वैकल्पिक नीतियों पर कितनी रचनात्मक चर्चा हुई— इसकी कोई जानकारी नहीं। इतना स्पष्ट है कि इन सबका एकमात्र उद्देश्य— प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कैसे भी अगले वर्ष सत्ता से हटाना है। उनकी सारी कवायद इसी एक मुद्दे पर केंद्रित है। विपक्ष द्वारा प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार की नीतियों का विरोध तो समझ में आता है। परंतु क्या सरकार के विरोध का अर्थ, भारत का विरोध होना चाहिए? राजनेता और राजनीतिक दल तो आते-जाते रहते है, परंतु देश सबका सांझा और शाश्वत है। क्या यह सच नहीं कि अक्सर महत्वपूर्ण मुद्दों पर भारतीय विपक्ष, चीन और पाकिस्तान के विचार, तर्क और जुमले एक जैसे होते है?

स्वतंत्र भारत के इतिहास में वर्तमान सत्ता-अधिष्ठान, 60 वर्षों तक विपक्ष में रहा है। इस दौरान उसका रवैया कैसा था? वर्ष 1962 के युद्ध में वामपंथियों ने वैचारिक कारणों से साम्यवादी चीन को आक्रांता मानने से इनकार कर दिया और भारतीय सेना की तैयारियों में अड़चनें डालने का भी प्रयास किया था। उस समय पं. नेहरू सरकार की नीतियों (धारा 370-35ए सहित) के मुखर आलोचक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनसंघ (कालांतर में भाजपा) ने असंख्य रक्तदान शिविर लगाए और सीमा पर जवानों को रसद पहुंचाने का काम किया। इसी निस्वार्थ राष्ट्रसेवा से प्रभावित पं।नेहरू के निमंत्रण पर 1963 के गणतंत्र दिवस परेड में संघ ने भाग भी लिया।

यही नहीं, 1965 के युद्ध में तत्कालीन प्रधानमंत्री शास्त्रीजी के आमंत्रण पर संघ ने देश के यातायात परिचालन में सहयोग किया था, ताकि पुलिसबल को रक्षा उद्देश्य हेतु आरक्षित किया जा सके। मुझे उस समय वामपंथियों के अंग्रेजी दैनिक ‘पेट्रियट’ में यातायात व्यवस्था संभालते स्वयंसेवकों की प्रकाशित तस्वीरें— अब भी स्मरण है। तब संघ-जनसंघ ने आलोचना करने के बजाय सरकार का साथ दिया था।

जब 1971 में पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) स्थित पाकिस्तानी फौज का स्थानीय बंगाली मुसलमानों के साथ हिंदू-बौद्ध अनुयायियों पर मजहबी कहर बरप रहा था, तब इसके खिलाफ भारत ने मुक्तिवाहिनी का समर्थन किया। इसपर तत्कालीन अमेरिकी प्रशासन ने भारत को भयभीत करने हेतु बंगाल की खाड़ी में अपना युद्धपोत तैनात कर दिया। उस समय अमेरिकी धौंस को समस्त सत्तापक्ष-विपक्ष की एकजुटता ने ध्वस्त कर दिया। तब भारत की अभूतपूर्व विजय पर लोकसभा के भीतर सभी सांसदों ने खड़े होकर और विजयी नारा लगाकर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का स्वागत किया था। 1974 के पोखरण-1 परमाणु परीक्षण में भी जनसंघ खुलकर इंदिरा सरकार के साथ था।

इसी प्रकार 1994 में पाकिस्तान ने कश्मीर में मानवाधिकारों के तथाकथित उल्लंघन को लेकर मुस्लिम देशों के माध्यम से भारत को संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में घेरने की रणनीति बनाई थी। इस पाकिस्तानी प्रस्ताव पर सुनवाई हेतु तत्कालीन प्रधानमंत्री पी।वी। नरसिम्हा राव ने दलगत राजनीति से ऊपर उठकर और राष्ट्रहित को सर्वोच्च मानते हुए, तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष अटल बिहारी वाजपेयी को भारतीय प्रतिनिधिमंडल का मुखिया बनाकर जिनेवा भेजा था। तब पाकिस्तान का झूठ— अटलजी की बुद्धिमत्ता और तर्कपूर्ण पैरवी और नरसिम्हा राव सरकार की कूटनीति के समक्ष टिक नहीं पाया था।

इस पृष्ठभूमि में कांग्रेस की बतौर विपक्ष कैसी भूमिका रही? जब 1998 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलजी के नेतृत्व में भारत ने वैश्विक प्रतिबंधों की चिंता किए बिना पोखरण-2 परमाणु परीक्षण किया, तब वामपंथियों के साथ कांग्रेस ने इस सामरिक कीर्तिमान को राजनीति से प्रेरित बता दिया। 1999 के करगिल युद्ध में भारत ने पाकिस्तान परास्त किया था। परंतु कांग्रेस ने इसे देश की विजय मानने से इनकार कर दिया और वर्ष 2004-09 में अपनी संप्रग-1 सरकार के दौरान ‘कारगिल विजय दिवस’ का जश्न तक नहीं मनाया। कालांतर में कांग्रेस का यह भारत-विरोधी चिंतन, हिंदू विरोधी मानसिकता में परिवर्तित हो गया।

जब 2016 दिल्ली स्थित जेएनयू में वामपंथी-जिहादी छात्रसमूह ने ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे…इंशा अल्लाह’ जैसे विषैले नारे लगाए, तब कई विपक्षी दलों के नेताओं के साथ कांग्रेस के तत्कालीन उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने ‘भारत की मौत की कामना’ को ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ से जोड़ दिया। उसी वर्ष जब उरी आतंकवादी हमले की प्रतिक्रिया में भारतीय सेना ने पीओके में सर्जिकल स्ट्राइक की, तब राहुल ने मोदी सरकार पर ‘खून की दलाली’ का आरोप लगा दिया और अन्य विपक्षी दलों ने सरकार से सबूत मांग लिया। फरवरी 2019 में जिहादी संगठन जैश-ए-मोहम्मद ने पुलवामा में भीषण हमला किया था, जिसमें 40 जवान बलिदान हो गए। तब इसके उत्तर में पाकिस्तानी सीमा के भीतर घुसकर भारतीय सेना ने बालाकोट में ‘सर्जिकल एयरस्ट्राइक’ की थी। इसपर भी विपक्षी दलों ने प्रश्न खड़े किए थे। कितना आश्चर्यजनक है कि तब भारतीय विपक्ष, पाकिस्तान और चीन की भाषा लगभग एक जैसी थी।

बात केवल यही तक सीमित नहीं। जब 2020-21 में भारत ने आत्मनिर्भरता पर बल देते स्वदेशी कोविड टीके का निर्माण किया, तब कांग्रेस सहित कई विरोधी दलों ने वैक्सीन निर्माताओं को ‘मोदी मित्र’ बताते हुए उसे ‘खतरनाक’, ‘असुरक्षित’ और ‘मोदी वैक्सीन’ बताकर विदेशी कोविड वैक्सीन के आयात पर बल दिया था। भारत की इस उपलब्धि को दरकिनार करते हुए कठिन समय में देश के मनोबल को तोड़ने का प्रयास और उसे प्रेरित करने वाली मानसिकता क्या हो सकती है?— शायद ही इसका कोई उत्तर दे पाए।

किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र की गाड़ी को चलाने के लिए सत्तापक्ष और विपक्ष नामक दो पहियों की आवश्यकता होती है। राष्ट्रीय स्तर पर कल का विपक्ष (भाजपा) आज सत्तारुढ़ है और आज वर्तमान विपक्ष भविष्य में कभी सत्तासीन हो सकता है। सरकार-विपक्ष की जुगलबंदी तभी चलेगी, जब देश और उसका अस्तित्व बना रहेगा। 12वीं शताब्दी में यह गलती जयचंद ने की थी, जिसने व्यक्तिगत खुन्नस के कारण आक्रमणकारी मुहम्मद गौरी का सहयोग किया था। इसी तरह 18वीं सदी में बंगाल स्थित मीर जाफर ने सत्ता पाने हेतु नवाब सिराजुद्दौला के खिलाफ आक्रांता ब्रितानी रॉबर्ट क्लाइव से हाथ मिला लिया था। दोनों के परिणाम सर्वविदित है। वर्तमान विपक्ष को सावधानी बरतनी चाहिए। उनका मोदी-विरोध, देशविरोध में परिवर्तित नहीं होना चाहिए।

By बलबीर पुंज

वऱिष्ठ पत्रकार और भाजपा के पूर्व राज्यसभा सांसद। नया इंडिया के नियमित लेखक।

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