इस साल के अंत में होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव को राजनीतिक विश्लेषक अगले साल के लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल बता रहे हैं। एक तो यह सेमीफाइनल का जुमला राजनीति और चुनाव के संदर्भ में बंद होना चाहिए। राजनीति में सेमीफाइनल जैसी कोई चीज हो ही नहीं सकती है। खेलों में सेमीफाइल होते हैं, जिसमें हारने वाली टीम या खिलाड़ी बाहर हो जाते हैं। वे फाइनल नहीं खेल पाते हैं, जबकि राजनीति में ऐसा नहीं होता है। राजनीति में, जिसे सेमीफाइनल कहा जाता है, उसमें हारने वाला फाइनल भी खेलता है और कई बार जीत भी जाता है, जैसे पांच साल पहले उन्हीं राज्यों में हुआ था, जिन राज्यों में इस साल के अंत में चुनाव हैं। 2018 के विधानसभा चुनाव में तेलंगाना, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और मिजोरम पांचों राज्यों में भाजपा बुरी तरह से हारी थी। लेकिन छह महीने के बाद ही लोकसभा चुनाव में उसने तेलंगाना में बहुत अच्छा प्रदर्शन किया और राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में जीतने वाली कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर दिया।
इसलिए नवंबर-दिसंबर में होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव को सेमीफाइनल जैसा कुछ कहने या उस नजरिए से देखने की जरूरत नहीं है। इसकी बजाय इन चुनावों को अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव के रिहर्सल की तरह देख सकते हैं। जिस तरह 26 जनवरी को राजपथ पर होने वाली परेड की फुल ड्रेस रिहर्सल 23 जनवरी को होती है। उसी तरह अप्रैल-मई में होने वाले लोकसभा चुनाव की फुल ड्रेस रिहर्सल इस साल के अंत में पांच राज्यों में होगी। ये पांच राज्य मोटे तौर पर उत्तर-दक्षिण और पूरब-पश्चिम चारों दिशाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि इन राज्यों के चुनाव नतीजों से कुछ भी साबित नहीं होगा और न आगे का कोई संकेत मिलेगा। विधानसभा चुनावों के नतीजों से बिल्कुल उलट लोकसभा चुनाव का नतीजा हो सकता है। इसके बावजूद ये चुनाव इसलिए अहम हैं क्योंकि इसमें भाजपा और कांग्रेस दोनों के संगठन, चुनाव की तैयारियों, चुनावी मुद्दों आदि का पता चलेगा।
वैसे तो भाजपा और कांग्रेस के बीच अभी बहुत फासला है। कांग्रेस के 52 लोकसभा सांसदों के मुकाबले भाजपा के 303 सांसद हैं और कांग्रेस के चार मुख्यमंत्रियों के मुकाबले भाजपा के अपने 10 मुख्यमंत्री हैं और छह मुख्यमंत्री सहयोगी पार्टियों के हैं। इसके बावजूद कर्नाटक विधानसभा के चुनाव नतीजों ने संतुलन बना दिया है। पिछले छह-सात महीने में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा सिर्फ गुजरात में जीती, जबकि हिमाचल और कर्नाटक में कांग्रेस जीत गई। इसलिए कहा जा सकता है कि मोमेंटम कांग्रेस के साथ हो गया। भाजपा से कमजोर होने के बावजूद कांग्रेस ने अपने को बराबरी की लड़ाई में खड़ा कर लिया है। तभी भाजपा की कोशिश होगी कि लोकसभा चुनाव से पहले वह मोमेंटम अपनी तरफ शिफ्ट करे। इन चुनावों में के चंद्रशेखर राव की भारत राष्ट्र समिति और अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी की भविष्य की राजनीति की झलक भी मिलेगी। खासतौर से केजरीवाल की राजनीति दिलचस्प होगी क्योंकि वे कांग्रेस के असर वाले तीनों राज्यों- राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में पूरा जोर लगा कर लड़ेंगे ताकि कांग्रेस को कमजोर कर सकें और अपनी जगह बना सकें।
भाजपा का इन सभी राज्यों में बहुत मजबूत संगठन है और दूसरी ओर कर्नाटक की जीत के बाद कांग्रेस कार्यकर्ताओं में भी जोश लौटा है। राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार है और मध्य प्रदेश में भी उसने मजबूती से चुनाव लड़ने के लिए संसाधन जुटाए हैं। चुनाव वाले सभी राज्यों में कांग्रेस के पास मजबूत नेता हैं। सो, कह सकते हैं कि नेतृत्व, संगठन और संसाधन इन तीनों पैमानों पर कांग्रेस कमजोर नहीं पड़ने वाली है। इस तरह कम से कम तीन राज्यों में दोनों पार्टियों के बीच बराबरी का मुकाबला होना है। जो बेहतर उम्मीदवार चुनेगा, बेहतर रणनीति बनाएगा, बेहतर प्रचार करेगा और बेहतर प्रबंधन करेगा वह जीतेगा और जो जीतेगा उसके साथ मोमेंटम होगा। चुनाव वाले पांच राज्यों में विधानसभा की 679 सीटें हैं और 83 लोकसभा सीटें इन राज्यों में आती हैं। इन 83 में से 65 सीटें भाजपा के पास हैं और राजस्थान में एक सीट उसकी सहयोगी पार्टी ने जीती थी। विधानसभा चुनाव में जीत हार से लोकसभा के नतीजे तय नहीं होंगे इसके बावजूद विधानसभा के नतीजे इसलिए अहम होंगे क्योंकि इनसे तय होगा कि लोकसभा चुनाव किस पार्टी को कैसे लड़ना है।
संगठन की ताकत, नेतृत्व और संसाधन के साथ साथ इन पांच राज्यों में चुनावी एजेंडे की परीक्षा होनी है। कांग्रेस और भाजपा ने कर्नाटक में जो दांव आजमाए थे वो अखिल भारतीय स्तर पर कितने कारगर हो सकते हैं, उसका पता इन चुनावों से चलेगा। भाजपा ने स्थानीय नेतृत्व को दरकिनार कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे पर चुनाव लड़ा था और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कराने का भरपूर प्रयास किया था। यानी मोदी का चेहरा और हिंदुत्व का मुद्दा। इस साल के राज्यों के चुनावों में भी भाजपा इसी रास्ते पर चलेगी। दूसरी ओर कांग्रेस ने कर्नाटक में स्थानीय चेहरों को आगे किया था, सामाजिक संतुलन बनाया था और धर्मनिरपेक्षता का रास्ता पकड़ा था। कांग्रेस ने खुल कर कहा था कि नफरत फैलाने वाले सभी संगठनों पर पाबंदी लगाएंगे चाहे वह पीएफआई हो या बजरंग दल हो। कांग्रेस ने दो टूक अंदाज में कहा था कि वह सत्ता में आई तो मुसलमानों को मिला चार फीसदी का आरक्षण बहाल करेगी। इसका नतीजा यह हुआ था कि जेडीएस को छोड़ कर मुस्लिम पूरी तरह से कांग्रेस के साथ एकजुट हुआ। भाजपा और कांग्रेस के बीच सात फीसदी वोट का अंतर यही से पैदा हुआ। कांग्रेस ने राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में धर्मनिरपेक्षता का कर्नाटक वाला रास्ता नहीं अपनाया है क्योंकि इन राज्यों में भाजपा और कांग्रेस का सीधा मुकाबला है। इन राज्यों में कोई तीसरी ताकत नहीं है, जिसकी ओर मुस्लिम वोट जाने का खतरा हो। इसलिए मुस्लिम को फॉर गारंटेड मान कर कांग्रेस नरम हिंदुत्व के रास्ते पर चल रही है। तेलंगाना में उसकी राजनीति कर्नाटक जैसी होगी।
राष्ट्रीय बनाम स्थानीय नेतृत्व और हिंदुत्व बनाम धर्मनिरपेक्षता के अलावा तीसरा मुद्दा ‘मुफ्त की रेवड़ी’ का है। इन राज्यों के चुनाव में इस मुद्दे की वोट जिताने की क्षमता की परीक्षा होनी है। कांग्रेस ने कर्नाटक की तर्ज पर चुनावी राज्यों में मुफ्त की चीजें और सेवाएं बांटने का ऐलान शुरू कर दिया है। राजस्थान में पांच सौ रुपए में रसोई गैस के सिलिंडर मिलने लगे हैं और हिमाचल की तरह मध्य प्रदेश में पुरानी पेंशन बहाल करने की घोषणा कांग्रेस ने कर दी है। भाजपा भी पीछे नहीं है लेकिन चूंकि प्रधानमंत्री मोदी ने मुफ्त की रेवड़ी को राज्य के लिए नुकसानदेह बताया है इसलिए भाजपा को यह काम ढके छिपे करना पड़ रहा है। अगर यह मुद्दा कांग्रेस को फायदा पहुंचाता है तो राष्ट्रीय चुनाव में भाजपा लोक लिहाज छोड़ कर इसी रास्ते पर लौटेगी।