पिछले साल 31 जुलाई को भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा पार्टी के सात मोर्चों की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में हिस्सा लेने बिहार पहुंचे थे। वहां उन्होंने कहा था- हम अपनी विचारधारा पर चलते रहे तो देश में क्षेत्रीय पार्टियां खत्म हो जाएंगी। उस समय एनडीए का हिस्सा रही नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल यू ने नड्डा के बयान पर तीखी प्रतिक्रिया दी थी और कहा था कि क्षेत्रीय दल बने रहेंगे। इसके कुछ दिन बाद ही जनता दल यू ने भाजपा से नाता तोड़ लिया था और राजद के साथ मिल कर सरकार बनाई थी। हालांकि उसका कारण नड्डा का बयान नहीं था। बहरहाल, नड्डा के बयान के अभी एक साल नहीं हुए हैं और ऐसा लग रहा है कि समय का चक्र उलटा घूमने लगा है। क्षेत्रीय पार्टियों के समाप्त हो जाने का दावा करने वाली भाजपा बिहार सहित देश भर में छोटी छोटी पार्टियों को अपने साथ जोड़ने में लगी है। सवाल है कि ऐसा क्या हो गया कि छोटी पार्टियों से तालमेल भाजपा की मजबूरी हो गई और उनके खत्म होने की भविष्यवाणी करने वाली पार्टी उनको जीवनदान देने लगी?
इस गंभीर सवाल पर विचार करने से पहले एक नजर इस पर डालने की जरूरत है कि भाजपा कहां कहां छोटी क्षेत्रीय पार्टियों से समझौता कर रही है। बिहार में जहां, जेपी नड्डा ने क्षेत्रीय पार्टियों के खत्म हो जाने की भविष्यवाणी की थी, वहां भाजपा कम से कम पांच छोटी पार्टियों के साथ तालमेल करने जा रही है। सोचें, कहां तो बड़ी क्षेत्रीय पार्टियों को खत्म किया जाना था और कहां एक एक सीट वाली पार्टियों से तालमेल करके भाजपा उनको मजबूती दे रही है! बिहार में दो टुकड़ों में बंटी रामविलास पासवान की बनाई पार्टियों से भाजपा का तालमेल होगा। एक के नेता चिराग पासवान हैं और दूसरे के पशुपति पारस, जो इस समय केंद्र में मंत्री हैं। इसके अलावा उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक जनता दल के साथ भाजपा का तालमेल हो रहा है। जीतन राम मांझी के बेटे ने हाल में बिहार सरकार से इस्तीफा दिया है। उनकी हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा के साथ भाजपा का तालमेल होने वाला है। इसी तरह महागठबंधन में शामिल मुकेश सहनी की विकासशील इंसान पार्टी के साथ भी भाजपा का तालमेल होगा।
बिहार के अलावा झारखंड में आजसू के साथ भाजपा का तालमेल है। पिछली बार भाजपा ने आजसू को एक लोकसभा सीट दी थी। इस बार हो सकता है कि सिर्फ विधानसभा सीटों का समझौता हो। आंध्र प्रदेश में समाप्ति की कगार पर पहुंची चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी और पवन कल्याण की जन सेना के साथ तालमेल होने जा रहा है। पंजाब में पुरानी सहयोगी अकाली दल को फिर से एनडीए में लाने की बातचीत हो रही है। कर्नाटक में एचडी देवगौड़ा की जेडीएस के साथ भाजपा का तालमेल हो सकता है। तमिलनाडु में भाजपा किसी तरह से अन्ना डीएमके से तालमेल बचाए रखने की कोशिश कर रही है। महाराष्ट्र में शिव सेना और आरपीआई के अठावले गुट के साथ भाजपा का तालमेल है। उत्तर प्रदेश में अपना दल और हरियाणा में जननायक जनता पार्टी के साथ उसका तालमेल है। गोवा से लेकर असम और पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में एक दर्जन अन्य पार्टियों से ज्यादा पार्टियों के साथ भाजपा का तालमेल है। एनडीए में जो पुराने सहयोगी हैं उनके बनाए रखते हुए भाजपा नए गठबंधन सहयोगियों की तलाश में भटक रही है।
सोचें, कहां तो क्षेत्रीय पार्टियों को समाप्त कर देने का दंभ और कहां छोटी छोटी पार्टियों को गठबंधन में शामिल करके उनकी शर्तों पर समझौता करने की मजबूरी! सवाल है कि यह मजबूरी कैसे पैदा हुई? क्या कांग्रेस और देश की दूसरी तमाम विपक्षी पार्टियों की एकजुटता ने भाजपा को चिंता में डाला है, जिसकी वजह से उसको भी अपना मजबूत गठबंधन बना कर चुनाव में उतरने की जरूरत महसूस हो रही है? दस साल तक राज करने के बाद सत्ता विरोधी लहर ने भी भाजपा को चिंता में डाला हो सकता है। यह भी हो सकता है कि देश में पारंपरिक रूप से अपने मजबूत असर वाले राज्यों में भाजपा लगातार दो चुनाव से लगभग सभी सीटें जीत रही है तो वहां अब नुकसान की आशंका होगी और उस नुकसान की भरपाई के लिए नए इलाकों को एक्सप्लोर करने की जरूरत महसूस हो रही होगी। ध्यान रहे भाजपा गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, दिल्ली, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, झारखंड आदि राज्यों में लगभग सभी सीटों पर जीती है। उत्तर प्रदेश में भी उसने ज्यादातर सीटें हासिल की हैं। ओडिशा, पश्चिम बंगाल, बिहार, महाराष्ट्र जैसे राज्यों में उसको अपनी सांगठनिक क्षमता से ज्यादा सीटें मिली हुई हैं। सो, उसके सामने एक बड़ी चुनौती इन राज्यों में अपनी सीटों को बचाए रखने और बढ़ाने की है।
लगातार दो चुनाव में मिली भारी भरकम जीत के बाद अपनी सीटें बचाए रखना बड़ी चुनौती का काम है। भाजपा का शीर्ष नेतृत्व इस बात को समझ रहा है। अगर प्रचार के दम पर और विकास की आस बंधा कर डबल या ट्रिपल इंजन की सरकार बनाई गई है तो एंटी इन्कम्बैंसी भी डबल या ट्रिपल ही होगी। तभी डबल या ट्रिपल इंजन वाली सरकार से बाहर के राज्यों में भाजपा अपने पैर पसार रही है और इसके लिए उसे छोटी क्षेत्रीय पार्टियों की जरूरत है। यह भाजपा की पुरानी रणनीति रही है कि, जहां उसका संगठन कमजोर है या पारंपरिक रूप से वह हाशिए की पार्टी रही है वहां किसी मजबूत क्षेत्रीय दल के कंधे पर सवार होकर वह आगे बढ़ी है। बिहार में भी नीतीश कुमार और महाराष्ट्र में बाल ठाकरे के कंधे पर सवार होकर ही भाजपा मजबूत हुई। पंजाब में उसकी जो भी हैसियत है वह अकाली दल के कारण बनी थी। यही काम वह अब दक्षिण भारत के राज्यों में करना चाह रही है।
गठबंधन के मामले में भाजपा की रणनीति बहुत स्पष्ट है। वह अपने मजबूत असर वाले राज्यों में भी सहयोगियों को इसलिए साथ रखना चाहती है ताकि वोट कटने-बिखरने का खतरा न्यूनतम रह जाए। ध्यान रहे भाजपा के असर वाले राज्यों में विपक्षी पार्टियां मजबूत गठबंधन कर रही हैं। अगर वे इस सहमति पर पहुंच जाती हैं कि भाजपा के हर उम्मीदवार के खिलाफ विपक्ष का एक उम्मीदवार उतरेगा तो भाजपा यह अफोर्ड नहीं कर सकती है कि उसकी कोई सहयोगी पार्टी वहां अकेले लड़े। विपक्ष की कोशिश चार सौ से कुछ ज्यादा सीटों पर साझा उम्मीदवार देने की है। अगर ऐसा होता है तो भाजपा की कोशिश होगी कि आमने सामने के मुकाबले वाली इन सीटों पर कोई ऐसी तीसरी पार्टी चुनाव न लड़े, जो पहले उसके साथ रही है क्योंकि तब जो वोट कटेगा वह भाजपा का वोट हो सकता है। चूंकि विपक्ष सत्ता विरोधी वोट को एक साथ लाने की कोशिश कर रहा है इसलिए भाजपा के लिए जरूरी है कि वह अपने कोर वोट में बंटवारा न होने दे। इसलिए पुरानी सभी सहयोगी पार्टियों को साथ लाने का प्रयास किया जा रहा है। भाजपा 2024 के लोकसभा चुनाव में किसी तरह से जीतने की कोशिश करेगी। उसको पता है कि पिछले 10 साल की राजनीति में जो कुछ भी बनाया गया है उसको कंसोलिडेट करने के लिए कम से कम एक कार्यकाल की और जरूरत है। सो, भले अभी उसकी मजबूरी से क्षेत्रीय पार्टियां मजबूत हो जाएं लेकिन एक बार और भाजपा जीती तो उसके बाद वह सबका हिसाब कर करेगी। देश के महाविद्यालयों, कॉलेजों में पढ़ाने का क्या एकमात्र रास्ता जुगाड़ रह गया है?