डोरसी को मीडिया फ्रीडम का समर्थक मानना उन सबके लिए बहुत कठिन है, जो उनकी और ट्विटर की पृष्ठभूमि से परिचित हैं। बहरहाल, उनके बयान से भारत में सरकार ने मीडिया पर नियंत्रण बनाने के लिए क्या कार्य-पद्धति अपनाई है, उस पर जरूर रोशनी पड़ी है।
ट्विटर के संस्थापक और उसके पूर्व प्रमुख जैक डोरसी ने जो कहा है, उसे सिर्फ उस बात की पुष्टि माना जाएगा, जो किसान आंदोलन के समय बहुचर्चित हुई थी। तब यह पहलू कई दिनों तक चर्चा में रहा था कि भारत सरकार ने किसान आंदोलन समर्थक और सरकार विरोधी ट्विटर हैंडलों को ब्लॉक करने को कहा है। विडंबना यह है कि तब डोरसी की इस कंपनी ने भारत सरकार के सामने हथियार डाल दिए थे। सरकार की व्यावहारिक प्रभाव वाली अनेक मांगें ट्विटर ने स्वीकार कर ली थी। इस रूप में अब डोरसी का “खुलासा” काफी कुछ उन रिटायर्ड नौकरशाहों की तरह का व्यवहार मालूम पड़ता है, जो नौकरी में रहते हुए तो हर वो कुछ करते हैं, जिनकी वे रिटायर्ड होने के बाद आलोचना करने लगते हैँ। ट्विटर ने 2020 के राष्ट्रपति चुनाव और खासकर डॉनल्ड ट्रंप के पराजित होने के बाद उनके साथ जिस तरह जिस तरह का राजनीतिक पक्षपात ट्विटर ने किया था, उसकी कलई अब खुल चुकी है। इसलिए डोरसी को अब अभिव्यक्ति की आजादी का समर्थक मानना उन लोगों के लिए बहुत कठिन है, जो उनकी और ट्विटर की पृष्ठभूमि से परिचित हैं।
बहरहाल, उनके ताजा बयान से भारत में सरकार ने मीडिया पर नियंत्रण बनाने के लिए क्या कार्य-पद्धति अपनाई है, उस पर जरूर रोशनी पड़ी है। जाहिर है, ऐसा सिर्फ विज्ञापन की ताकत के जरिए नहीं किया जाता। बल्कि प्रत्यक्ष तौर पर संदेश भेज कर बताया जाता है कि किसे क्या प्रकाशित/प्रसारित करना है और क्या नहीं। वैसे यह भी अब कोई नई बात नहीं रही। भारत में मीडिया वातावरण से परिचित लोग इससे वाकिफ रहे हैं और जिन जागरूक लोगों की इस वातावरण तक सीधी पहुंच नहीं है, वे मीडिया में होने वाले कवरेज को लेकर अंदाजा लगाते रहे हैँ। मगर भारत सरकार का यह प्रयोग सफल है। इसके जरिए उसने मतदाताओं के बहुत बड़े हिस्से के दिमाग पर अपना नियंत्रण बना रखा है। और चूंकि अभी की विश्व परिस्थितियों में लोकतंत्र या मीडिया फ्रीडम जैसी बातें एजेंडे में काफी नीचे फिसल गई हैं, इसलिए इससे भारत सरकार की वैश्विक हैसियत पर भी कोई फर्क नहीं पड़ा है।