सवाल अच्छा है? दुनिया की कौन सी नस्ल व सभ्यता विश्व गुरू है? जवाब से पहले जानना होगा कि गुरू और सभ्यता के क्या मायने हैं? गुरू होना क्या होता है? सभ्यता से क्या अभिप्राय है? vishwa guru
मेरी राय में यह परिभाषा सटीक है कि जो अज्ञान के अंधकार को दूर करता है वह गुरू। उपनिषदों में संस्कृत मूल के शब्द गुरू के ‘गु’ (अज्ञान) ‘रू’ (दूर करने वाला) की व्याख्या कमोबेश एक सी है। अज्ञान को अंधकार बताया गया है। (गु शब्दस्त्वन्धकारः स्यात् रु शब्दस्तननिरोधकः।
अन्धकारनिरोधित्वात् गुरु ऋत्यभिधीयते-अद्वैतारक उपनिषद) वही सभ्यता के मायने है, वह मानव समाज जिसकी वह विशिष्ट विकसित सामाजिक-सांस्कृतिक रचना है जिसमें लोग अच्छे से मजे में रहते है। लोग जिंदादिली, बुद्धि-सत्य-तर्कसंगतता, समानता, न्याय, लोकतंत्र व अनुसंधान-प्रयोगों की जोखिम की विरासत और गुणों से भरी-पूरीजिंदगी जीते है।
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इन अर्थों में पृथ्वी के आठ अरब लोगों, 195 देशों का वह विश्व गुरू कौन है, जिसमें अज्ञान, अंधकार मिटाने की गुरूता, प्रकाश है? या वह सभ्यता कौन सी जो मानों विश्व का प्रकाश स्तंभ? क्या पश्चिम की सभ्यता, ईसाई समाज? या अरब-इस्लामी सभ्यता-संस्कृति गुरू, और अनुकरणीय? या चीन और चाइनीज सभ्यता विश्व को अज्ञान, अंधकार से उजियारे की और ले जाने की टार्चलाइट? और हम हिंदू? vishwa guru
सदियों से विश्व गुरू के सपनों में जी रहे हैं और अब तो बाकायदा विश्व गुरूहोने का डंका भी पीटते हुए।और महात्मा गांधी जगत संत वही नरेंद्र मोदी जगत पिता! ऐसा ही रूस, उसके पुतिन, स्लाविक सभ्यता का घमंड है कि उसका महाशक्ति रूप बाकी सभ्यताओं के लिए प्रकाश पुंज। कइयों का खासकर दुनिया के वामपंथियों का ख्याल है अमेरिका पतन के कगार पर है तो रूस या चीनी सभ्यता से ही दुनिया का अज्ञान-अंधकार मिटेगा।
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उस नाते दुनिया की व्यवस्था में गुरू पर विचार और फैसला वैसा ही है जैसे इन दिनों हम भारत के लोगों के लिए कलियुगी गुरूओं में चुनने का झंझट है। गुरूओं में प्रतिस्पर्धा है। सक्सेस रेट कसौटी है। मार्केटिंग से फैसला है। और जिसकी लाठी उसकी भैंस या ऊंची मगर झूठ की दुकान के झांसे में गुरू, महागुरू, विश्व गुरू चुने जाते हुए हैं।
बहरहाल विश्व के मायनों में राजनीतिक, वैचारिक, धार्मिक और आर्थिक-सैनिक ताकत के अहंकारों में जी रही मानवता के तकाजे में सभ्यता और गुरू तय करना असंभव काम है। सभी सभ्यताएं गुरूर पाले हुए हैं। मगर मोटा-मोटी दुनिया में धारणा है कि पश्चिमी सभ्यता का निर्माण अतुलनीय है। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस याकि यूनानी सभ्यता से शुरू पश्चिमी समाजों का विकास, सभ्यता व संस्कृति का निर्माण शेष दुनिया के लिए अनुकरणीय है।
और इस बात में कुछ सत्य है। लेकिन हाल में ऑक्सफोर्ड में पढ़ाने वाली इतिहासकार जोसेफिन क्राउली क्विन की एक नई थीसिस मालूम हुई। हाल में रिलीज हुई उनकी पुस्तक ‘हाऊ द वर्ल्ड मेड द वेस्ट’ (How the World Made the West) का यह दिलचस्प सार है कि यूरोपीय उपलब्धियों के हवाले पश्चिमी सभ्यता का गर्व सही नहीं है! इसलिए क्योंकि दुनिया ने पश्चिम को बनाया है न कि पश्चिमी सभ्यता का अपने से विकास है!
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जोसेफिन क्विन का कहना है कि सभ्यताओं को अलग-अलग खांचों में याकि उन्हे अलग-अलग कंपार्टमेंट में बांटने की इतिहास दृष्टि गुमराह करने वाली है। मतलब पहचान विशेष से चिन्हित स्वकेंद्रित सभ्यताओं को अलग-अलग समूह में बांट कम्पार्टमेंटलाइज एप्रोच का इतिहास और सोच सही नहीं है। इसलिए क्योंकि-लोग इतिहास नहीं बनाते हैं।वह उन लोगों, जिनके द्वारा दूसरों (बाहरी-अन्य संस्कृतियों के लोगों) से संबंध याकि कनेक्शन बनतदे है, उससे इतिहास बनता है।
और मेरा माननता है यह सत्य सभी सभ्यताओं, पूरी दुनिया के संदर्भ में सही है।
लेखिका के अनुसार यह सत्य ब्रिटेन, पूरे यूरोपीय इतिहास पर लागू है। फालतू बात है कि संस्कृतियों में दूरी हुआ करती थी तो परस्पर संपर्क नहीं था। सच्चाई है संस्कृतियों के बीच, लंबी दूरियों के बावजूद संपर्क, आश्चर्यजनक रूप से थे और वे संपर्क, वे एक्सचेंज ही हर युग में मानव उन्नति के इंजन थे। संस्कृतियां अंतर्मुखी नहीं थीं। सभी समाज बाहरी विचारों, तकनीक, फैशन को अपनाते हुए थे।
जैसे पश्चिमी सभ्यता का आदि सोर्स यूनान से शुरू है। लेकिन लेखिका के अनुसार यूनान का अपना मौलिक बहुत कम था। वह सेमुरी, मिस्र, असीरियन और फोनीशियन संस्कृतियों के आगे कुछ भी नहीं था। ये सब तब एक-दूसरे के आइडिया को एक्सचेंज करते हुए थे। लोकतंत्र का मौलिक जन्म यूनान, एथेंस में नहीं था। वह वहां बाद में आया। लोकतंत्र के शुरुआती आइडिया और प्रयोग मौजूदा लीबिया में, समोस और चियोस के द्वीपों पर आजमाया गया लगता है। यूनानियों की तुलना में फारसी बहुत आगे थे और उन्होंने ही पहले ग्रीक शहरों पर कब्जा करके वहां लोकतंत्र की व्यवस्था बनाई।
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यह व्याख्या गहरी है। मेरा मानना है मानव इतिहास का सार है कि अंधकार से प्रकाश, ज्ञान, विकास, निर्माण आदि सब कुछ मनुष्य दिमाग की वैयक्तिक खोज है। इनमें किसी समाज, देश, नस्ल और सभ्यता या संस्कृति का कोई अर्थ नहीं है। वैज्ञानिक विकासवाद की वैश्विक धारणा, कसौटी में सोचें तो अफ्रीका की गुफाओं से निकले होमो सेपियन ने बिना सभ्यता, संस्कृति के ही पूरी पृथ्वी को खंगाला। शिकारी-पशुपालक मनुष्य हर जगह पहुंच गए। अग्नि खोजी, पहिया खोजा और ऊर्जा व गति का शाश्वत सत्य बूझा।
मानव जाति के ये पूर्वज ऐसा कैसे करते हुए थे? मेरा मानना है वैयक्तिक स्वतंत्रता की निज उड़ान से। मैं पहले लिख चुका हूं ईसा पूर्व सभ्यता-संस्कृति निमार्ण में मानव विकास का जंप मिस्र-इराक से ले कर सिंधु नदी घाटी के फर्टाइल क्रिसेंट में व्यक्तियों की निज बौद्धिक छलांगों से था। वह बुनियादी तौर पर लोगों की घुमक्कड़ी, स्वतंत्र मिजाजी स्वभाव से छलांग थी। मेसोपोटामिया से ईरान के रास्ते सिंधु नदी घाटी के लोगों में संबंध, एक्सचेंज थे। लोगों का आना-जाना था। एक-दूसरे के आइडिया में नदी घाटियों का क्षेत्र समाज और सभ्यता का खाका बनाता हुआ था।
किसी राजा, बादशाह, राष्ट्र देश याकि सामूहिक, सामुदायिक ईकाई याकि भीड़ और भेड़चाल से वेद, उपनिषद् या सुमेरियन सभ्यता के महाकाव्य नहीं रचे गए। तब भी सब कुछ मनुष्य के उन क्लासिकल गुणों से जन्मा था जिनका आधुनिक जीवन में सर्वोच्च मान है। मतलब जिंदादिली, बुद्धि-सत्य-तर्कसंगतता, समानता, न्याय, लोकतंत्र व अनुसंधान-प्रयोगों की जोखिम-उद्यम का वैयक्तिक पुरुषार्थ।
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सो, आदि काल में व्यक्ति की स्वतंत्रतचेता में दिमाग ज्ञानरूपी वेद रचने वाला था। वही आज भी स्वतंत्रचेता व्यक्ति अपने ठिकानों पर स्वतंत्रता से खुले पंखों से उड़ते हुए नए सत्य, नई मौलिक रचना करते हुए है।
लब्बोलुआब में दुनिया की आठ अरब लोगों की भीड़ का गुरू, सभ्यतारूपी ज्ञान का प्रकाश स्तंभ यदि कोई है तो वो सिर्फ मानवजन हैं। वे मनुष्य, होमो सेपियन की वह प्रजाति है जो स्वतंत्रता में जीती है, जिनकी चेतना, बुद्धि हर तरह की चिंता, भय से मुक्त है। इनसे ही अंधकार मिटता हुआ है।
ये ही गुरू हैं, ज्ञानी हैं, वैज्ञानिक हैं और उन्हीं से संबंधों, याकि इनकी खोज के एक्सचेंज में शेष दुनिया और कथित सभ्यताओं के निर्माण और घमंड हैं। विश्व गुरू के कथित हल्ले हैं। सोचें, पिछले दो सौ वर्षों में चाइनीज सभ्यता, इस्लामी सभ्यता, हिंदू सभ्यता, स्लैविक सभ्यता, जापानी सभ्यता में मौलिक क्या और कितना है?
इसलिए मानव गरिमा और उपलब्धि के मामले में सभ्यता के बाड़ों में भटकना फिजूल है। मगर हां, अमेरिका और यूरोप के देशों में व्यवस्था और परिवेश क्योंकि स्वतंत्रता का पोषक है, सौ फूल खिलने देने, विचारों की क्रांति का है तो गुरूता इन्हीं की सरजमीं में स्थायी है। वे ही फिलहाल पूरी दुनिया के प्रकाश स्तंभ हैं।
और इस सत्य की कसौटी का बेसिक, छोटा तथ्य है जो दुनिया में चारों और से लोग अमेरिका, यूरोप भागे जा रहे हैं। ध्यान रहे पश्चिम की दादागिरी का सोर्स उसका महाशक्ति होना नहीं है, बल्कि उसकी जमीन का मनुष्य गरिमा, गुरूता और स्वतंत्रता का सराय होना है! बुद्धि, विचार, ज्ञान-विज्ञान की मनुष्य चेतना का उसका छज्जा बना हुआ होना है। क्या नहीं?