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राजनीति हमें बीहड़ में ले आई!

बंगाल बदनाम है और बांग्ला मानस घायल। उधर बांग्लादेश में हिंदुओं को जान के लाले पड़े हैं। और नरेंद्र मोदी, अमित शाह, हिमंत बिस्वा सरमा उसमें हवा दे रहे हैं! इन्हें न तो बंगाल की चिंता है और न बांग्लादेश में बचे हिंदुओं की फ्रिक है। मौजूदा समय की वस्तुस्थिति में हर हिंदू को बूझना चाहिए कि असम के मुख्यमंत्री यदि मुसलमानों के खिलाफ अंटशंट बोल, फिजूल के फैसले लेकर, अपने को उत्तर पूर्व भारत का योगी आदित्यनाथ बनाएंगे तो इसका बांग्लादेश में कट्टरपंथी मुसलमानों पर क्या असर होगा? क्या वे वहां हिंदुओं से बदला नहीं लेंगे? क्या हिमंता बिस्वा की राजनीति असम के बगल के बांग्लादेश के सोशल मीडिया में भड़काऊ नैरेटिव नहीं बनाएगी?

पिछले दस वर्षों में मोदी-शाह ने तमाम तरह की हवाबाजी के बावजूद एक भी बांग्लादेशी घुसपैठिए को बांग्लादेश नहीं भेजा है। जबकि वहां से असंख्य घुसपैठियों का आना जारी बताते हैं (एक प्रमाण झारखंड में अमित शाह द्वारा घुसपैठियों का नैरेटिव बनाना है)। और अब बांग्लादेश में हिंदुओं पर हमले हैं। तो हिमंता बिस्वा, मोदी, शाह को इस वस्तुस्थिति में क्या सोच समझ कर राजनीति नहीं करनी चाहिए?

लेकिन पूरे देश के संदर्भ में हम नासमझी का यह सत्य लिए हुए है कि हिंदू अपनी सभ्यता की एक विशिष्ट बांग्ला संस्कृति को लगातार अपने हाथों मिटाते, भुलाते हुए हैं। सचमुच बहुत बुरा हुआ है और होता हुआ है।

सोचें, दक्षिण एशिया में पिछले सौ वर्षों में राजनीति से हिंदू विरासत, संस्कृति, भाषा और मिजाज का कैसा क्षरण हुआ है? हाल के समय में सोचें तो मोदी, शाह और संघ का यह मिला जुला मिशन है कि कैसे भी हो बंगाल, पंजाब, महाराष्ट्र और तमिलनाड़ु भाजपा के कब्जे में आए। इसलिए क्योंकि भूख है सोच है कि इन राज्यों में यदि भगवा नहीं लहराया तो वर्चस्व पूरा नही बनेगा, मुसलमान या पृथकतावादी ताकतें हावी हो जाएंगी! इसलिए राजनीति लोकतंत्र के नाम पर है लेकिन तौर-तरीके जोर जबरदस्ती के हैं। नतीजतन परिणाम क्या है? ये राज्य अपनी मौलिक विशिष्टताओं, संस्कृति और तासीर (और उसमें ढली पुरानी राजनीति भी) सभी को खोते हुए हैं। वह सब खत्म हो रहा है जो इस सदी से पहले या 1970 से पहले तक विशिष्ट पहचान वाले सभी राज्यों की संस्कृति, साहित्य, कला, संगीत, भाषा आदि में था।

वैसे ऐसा होने के पीछे और भी कारण हैं। जैसे भूमंडलीकरण तथा विदेशी प्रभाव से लेकर अखिल भारतीय बाजार व लोकाचार आदि कारणों की मार भी है। लेकिन यदि आप कभी नेटफ्लिक्स, अमेजन प्राइम में भारतीय भाषाओं की अलग-अलग भाषा की चार-चार फिल्म देखें और तुलना करें तो समझ सकेंगें कि पंजाबी की तासीर कैसे अभी भी बांग्ला से अलग है और वहां से मराठी मानुष या तमिलभाषी के कैसे अलग-अलग मिजाज हैं। इस वास्तविकता के पीछे हिंदू सभ्यता-संस्कृति के इंद्रधनुषी रंगों की वह खूबसूरती है जो असल में सदियों-सहस्त्राब्दियों पुराने जीवन का प्रारब्ध है।

और वह तेजी से खत्म होता हुआ है। बंगाल अब बंगाल नहीं रहा तो पंजाब भी पहले वाला पंजाब नहीं है। सबकी वजह राजनीति है। इस सत्यानाशी, आत्मघाती देशी राजनीति का सिलसिला स्वंतत्रता के साथ से है। मुझे लगता है सदियों की गुलामी में हम हिंदू राजनीति से निरपेक्ष रहे तो उस पृथकता से रहन-सहन, भाषा, संस्कृति के क्षेत्रीय समाज अपने आपको बचाते व बनाते हुए थे। तभी अंग्रेजों ने दक्षिण एशिया को खंगाला, उत्खनन किया तो उससे आंचलिक संस्कृतियों को पंख मिले और उनकी विशिष्टताएं खुली।

इसलिए रविंद्रनाथ टैगोर ने यदि भारत के जन गण मन के सत्य में बंग, सिंध, पंजाब, गुजरात, मराठा, द्रविड़, उत्कल का जिक्र किया है तो वैसा होना हिंदू सभ्यता-संस्कृति के अलग-अलग विशिष्ट पहलुओं में प्रतिमान के नाते था। अंग्रेजों ने भी अपने अनुभवों और अपनी समझ में बंगाल और पंजाब को दो खास क्षेत्रों में अलग से चिन्हित किया था। इसलिए अंग्रेजों ने धूर्तता में 1905 में बंगाल को दो हिस्सों में बांटा। वही पंजाब में अंग्रेजों ने लाला लाजपत राय पर लाठी चलाने से ले कर जलियांवाला बाग, भगत सिंह को फांसी जैसे तेवर दिखाए। कुछ अपवादों को छोड़ क्रांतिकारी या तो बंगाल में पैदा हुए थे या पंजाब में। भला क्यों? यह फर्क कैसे? जाहिर है लोक संस्कृति, मिजाज की अलग-अलग बुनावट के चलते।

सोचें, बंगाल पर। स्वतंत्रता आंदोलन, सामाजिक सुधारों, धार्मिक, आध्यात्मिक चिंतन तथा साहित्य, कला, संगीत, संस्कृति सबमें बंगाल उन्नीसवीं सदी का अग्रणी इलाका था। उससे भारत, भारत हुआ। वही से भारत को वंदे मातरम, जन मन गण सब मिले। विवेकानंद, रविंद्रनाथ टैगोर, महर्षि अरविंद की विचार चेतना के तमाम तमगे मिले। इसमें नोबेल पुरस्कार है तो सिनेमा, संगीत, साहित्य के वैश्विक पुरस्कार भी हैं।

और वह बंगाल अब क्या है? कोई न माने इस बात को लेकिन मेरा मानना है कि पहले कम्युनिस्टों ने, फिर ममता बनर्जी और दस वर्षों से मोदी-शाह तथा संघ ने बांग्ला दिमाग और बुद्धि को ऐसा सोखा है कि वह सब गंवा बैठी है। वह अपनी रचनात्मकता, उद्यमशीलता, बौद्धिकता, शिक्षा, खानपान, सिनेमा और मिजाज में सब खो बैठी है। बंगाल वैसा ही हो गया है जैसे भारत की गोबर पट्टी है।

पहले अंग्रेजों ने (गांधी, नेहरू की सहमति के साथ) बंगाल के दो टुकड़े किए और पूर्वी बंगाल (पाकिस्तान) की बांग्ला विशिष्टता, संस्कृति को इस्लाम का ग्रहण लगा। बावजूद इसके राजधानी इस्लामाबाद की हर संभव कोशिश के बावजूद लोगों ने बांग्ला भाषा की जगह उर्दू नहीं अपनाई। न ही काजी नजरूल इस्लाम जैसे कवियों और बंगाली भद्रजनों का प्रभाव घटा। बांग्लाजनों की तासीर ही थी जो लोग वहां बुद्धि, मिजाज में खदबदाते रहे। और उन्होंने इंदिरा गांधी की हवा से बांग्लादेश बनाया। याद रहे इस्लामाबाद की 24 सालों की लगातार घुट्टी के बावजूद बांग्लाजन, बांग्ला अस्मिता की आजादी के लिए लड़े थे।

लेकिन बंगाल और बांग्लादेश दोनों की त्रासदी है जो एकाधिकारी राजनीति ने जनजीवन को अपने चंगुल में किया और नतीजे में संस्कृति, बुद्धि सबका क्षरण। शेख मुजीब और हसीना वाजेद ने भी वैसी ही राजनीति की, वैसा ही शासन किया जैसे पश्चिम बंगाल में पहले कम्युनिस्टों ने किया और फिर ममता बनर्जी का शासन है। कम्युनिस्ट मुख्यमंत्री ज्योति बसु भद्रजन थे लेकिन शासन तो विचारधारा और पार्टी की वर्चस्वता का था। ऐसे में संभव ही नहीं जो सभ्यता, संस्कृति के सौ फूल बचे रहें या खिलते रहें। पश्चिम बंगाल का दुर्भाग्य है जो नक्सलवादी आंदोलन से अब तक के कोई 55 वर्षों से यह प्रदेश लगातार वैचारिक जिद्द, व्यक्तिवादी शासन की उस चक्की में पीसता हुआ है, जिससे हर वह बांग्ला विशिष्टता खत्म है जो कभी रविंद्रनाथ टैगोर या भद्रजनों के समाज का पर्याय थी। जिनकी दुर्गा पूजाएं सरकार से कभी मदद नहीं लेती थीं और न पूजा मंडप राजनीति की थीम के होते थे।

लेकिन दुर्भाग्य जो ममता बनर्जी ने जिस तेवर की राजनीति से कम्युनिस्टों से सत्ता छिनी वैसे ही दस वर्षों से ममता बनाम मोदी एक दूसरे को निपटाने की राजनीति करते हुए हैं। कल्पना करें टैगोर, सुभाषचंद्र बोस, महर्षि अरविंद या अंग्रेज शासकों की, इनमें किसी ने भी कभी यह कल्पना की होगी कि बंगाल कभी बेगम खालिदा बनाम शेख हसीना या ममता बनाम मोदी जैसी राजनीति का अखाड़ा होगा! तभी बंगाल में आज न टैगोर की परंपरा में साहित्य, कला, संगीत की रचनात्मकता, सृजनात्मकता है और न विवेकानंद, अरविंद जैसा कोई चिंतक या न ही समाज सुधार की धारा है। स्वतंत्रता, बौधिकता, शिक्षा के सेनानियों के होने का तो खैर सवाल ही नहीं उठता जो आजादी से पहले बंगाल में सर्वत्र थे! मुझे नहीं लगता कि कोलकत्ता के भद्रजनों, ब्रितानी शासन, चिकित्सा व्यवस्था में आजादी से पहला ऐसा कोई अस्पताल रहा हो जैसे अभी शहर के एक अस्पताल के किस्से सुने हैं!

इतना और ऐसा पतन कैसे? लेकिन यह सवाल और कहानी तो भारत के उस हर क्षेत्र की है, जहां का जनजीवन आजादी से पहले विशिष्ट पहचान की धमक से या तो भारत की सेना का रणबांकुरा था या साहित्यकार था या सनातनी संस्कृति के वैशिष्टय का प्रमाण था और समाज सुधार व आधुनिकता का सांझा चूल्हा था। बंगाल जैसी दुर्दशा पंजाब की है तो मराठा समाज और तमिल भाषी समाज की भी है।

पिछले दस वर्षों से बंगाल में क्या हो रहा है? मोदी, शाह और संघ का बंगाल पर कब्जा करने का महाअभियान है। उसमें राजनीति वैसी ही है जैसे कम्युनिस्ट संगठन और ममता बनर्जी की भिंड़त में थी। गौर करें कोलकत्ता में बलात्कार की घटना पर हुई भाजपा की राजनीति पर! दस साल से नरेंद्र मोदी और अमित शाह का शासन है। इनके पास यह आंकड़ा है कि भारत में प्रतिदिन कितने बलात्कार होते हैं। इनके कार्यकाल का हिसाब लगाएं तो लाखों की संख्या होगी। ये भी जानते हैं कि इस अपराध की जड़ समाज है। इसलिए क्योंकि लोगों की शिक्षा व खोपड़ी में बुद्धि, संस्कार, चरित्र, नैतिकता, संयम, सदाशयता की शिक्षा देने की समाज की टोंटी दशकों से बंद और जाम हुई पड़ी है। उसकी जगह घर घर की सीख और अनुभव में अनैतिक, बेईमान जीवन के बीज तथा अवसरों की भूख में छीना झपटी, कंपीटिशन की नेचुरल शिक्षा मिलती हुई है तो समाज में चौतरफा लूट, भूख, मजे, ग्लैमर, अश्लीलता, अहंकार का नशा क्यों नहीं कुएं में भांग की तरह फैला होगा? इसलिए कितने ही सख्त कानून बनें, कानून व्यवस्था को कितना ही कसा जाए किसी से कुछ नहीं हो सकता है। और यह निर्भया से कोलकाता कांड तक के अनुभवों से प्रमाणित है। प्रधानमंत्री लाल किले से कसम खाएं, राष्ट्रपति भले रोएं, गृह मंत्री चाहे जितना गरजें और सुप्रीम कोर्ट चाहे जो फुर्ती दिखाए तथा ममता बनर्जी विधानसभा में फांसी का कानून बना लें लेकिन उस समाज, उस भीड़ पर कोई असर नहीं होना है जो भूख में छीना झपटी, जोर जबरस्ती, मनमानी का हर वह भ्रष्टाचार लिए हुए है, जिसे यदि पशु समाज बूझ ले तो वह भी शर्मसार होगा और सोचने लगेगा इससे अच्छे तो हम!

लेकिन देश की राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, गृह मंत्री का क्या नैरेटिव है? ममता के कारण है यह सब! वे ही पापी, वे ही दुष्ट और उनसे यदि बंगाल को मुक्ति मिल जाए वहां फिर बलात्कार बंद हो जाएंगे। पुलिस राजा हरिश्चंद्र हो जाएगी। बंगाल में भाजपा का रामराज्य स्थापित होगा। सोचें, भारत में दुनिया के सर्वाधिक अपराध होते हैं। (बड़ी वजह सर्वाधिक आबादी) और बंगाल में देश की सत्तारूढ़ पार्टी की राजनीति की ब्रह्मास्त्र घटना एक बलात्कार है!

इस विवेकहीन, एकाधिकारी, भूखी नंगी राजनीति को बंगाल दशकों से झेलता हुआ है। तब कैसे संभव है बंगाल में आज की पीढ़ी, पिछली तीन-चार पीढ़ियों के दिमाग में यह याद भी हो कि बंगाल कभी भारत का पथ प्रदर्शक था। बांग्लाभाषी समाज के हाथों में हिंदू सभ्यता संस्कृति की आधुनिक बौद्धिक उर्वरता का झंडा था। तभी देश के हर विचारवान को, कम्युनिस्ट, कांग्रेसी, भगवाई राजनीतिबाजों तथा उदारवादियों को सोचना चाहिए कि राजनीति से एक के बाद एक इलाकों को बंजर व गोबरपट्टी बनाना भारत और हिंदू सभ्यता संस्कृति के लिए क्या आत्मघाती नहीं है?

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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