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पहिया पीछे घूम रहा है!

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अच्छा है या बुरा, पता नहीं लेकिन पहिया पीछे की ओर घूम रहा है। हिंदू महाभारत के द्वापर युग में लौट रहे हैं। अमेरिकी गोरे, एवेंजलिस्ट बाइबल काल में लौटे हैं। ले पेन फ्रांस को 1789 की क्रांति से पूर्व लौटाने की जिद्द में हैं। रूसी पुतिन की जारशाही को गले लगाए हुए हैं। चीनी प्राचीन हॉन सभ्यता के तराने गा रहे हैं। यहूदी इस्लाम पूर्व फिलस्तीन के निर्माण में जुटे हैं। इस्लाम का जहां सवाल है वह पहले से ही पृथ्वी को पैगंबर युग में लौटाने की कसम खाए हुए है। और लगता है पृथ्वी का भी प्रण है। वह होमो सेपियन को अफ्रीकी कंदराओं में लौटाएगी। आखिर उसका भी अस्तित्व, पहचान सब खतरे में है!

पृथ्वी संकट में है। मनुष्य खतरे में हैं। हिंदू खतरे में हैं। ईसाई गोरे खतरे में हैं। मुसलमान खतरे में हैं तो यहूदी, चाइनीज, जापानी आदि भी अपनी-अपनी पहचान के खतरे में सिकुड़े जा रहे हैं। पीछे लौट रहे हैं। सवाल है इस सबके पीछे का नंबर एक जिम्मेवार कारण क्या है?

आदिकाल के होमो सेपियन की तरह मनुष्यों का इधर से उधर माइग्रेशन! मनुष्य होश संभालने के बाद से ही पृथ्वी पर फैलता, सुरक्षित ठिकानों की तलाश में रहा है। जब वह लगातार नई-नई जगह गया तो अब क्यों न जाए? उसकी शुरुआत सर्वभूमि गोपाल की धारणा में हुई है। जहां सुरक्षा और आसान जिंदगी है, वह वहां जाएगा ही। फिर पृथ्वी का भूमंडलीकृत गांव में कनवर्ट होना भी अब एक कारण, एक वास्तविकता है। इसी के चलते मनुष्यों का आना-जाना, इमिग्रेशन दुनिया का नंबर एक संकट है। पृथ्वी की रचना ऐसी हो गई है, मनुष्यों ने असमानताओं की अलग-अलग पहचान में ऊंच-नीच के इतने बाड़े बना दिए हैं कि जैसे पानी की बाढ़ को रोका नहीं जा सकता वैसे आव्रजकों को नहीं रोका जा सकता है।

भारत में पिछले दस सालों से नरेंद्र मोदी और संघ परिवार की सरकार है। बावजूद इसके अभी महाराष्ट्र, झारखंड के विधानसभा चुनावों में सुनाई दिया है कि मुंबई में रोहिंग्या मुसलमानों से हिंदुओं को खतरा है! झारखंड तो मानों बांग्लादेशियों से भर ही गया हो! इसलिए मोदी-योगी हिंदुओं से आह्वान कर रहे हैं, एक हो। बंटोगे तो बाहरियों से कट जाओगे!

ऐसे ही डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिकियों को चेताया। उन्हें डराया। उनका भी यही नारा था और है कि बंटोगे तो कटोगे। वैसे ही फ्रांस, जर्मनी, नीदरलैंड, ब्रिटेन सभी तरफ राजनीति इस चिंता, इस सरोकार में है कि कैसे अपने को बचाएं!

कह सकते हैं बीसवीं सदी बनाने की थी। और बना तो उसे इक्कीसवीं में सदी में अब बचाना है! इसके लिए अतीत में लौटना है। महाभारत के द्वापर युग में लौटेंगे तभी बचेंगे।

ट्रंप का हुंकारा था हमें अपने में जीना है। बाहरियों की बाढ़ के भविष्य में नहीं। इसलिए ईसाइयों, गोरों अपने अतीत में लौटो! दूसरों के लिए नहीं अमेरिका पहले अपने लिए है, अमेरिका फर्स्ट! ईसाइयत फर्स्ट! पुरूष फर्स्ट! इसलिए अमेरिका के अंगने में एशिया और भारत से आई इस कमला हैरिस का क्या अर्थ है! हम आगे नहीं बढ़ रहे हैं, अपना मूल और अपनी पहचान गंवा रहे हैं। अमेरिकी नस्ल भ्रष्ट, मिक्स वर्णशंकर हो रही है। और मूर्ख थे संविधान बनाने वाले तथा चर्च व राष्ट्र को पृथक करने का प्रथम संविधान संशोधन लाने वाले। वह गलती थी। इसलिए संविधान नहीं बाइबल हमारा धर्म है। पुरूषों ने अमेरिका बनाया है तो मर्द डोनाल्‍ड ट्रंप ही फिर राष्ट्रपति बनेगा न कि महिला कमला हैरिस!

सचमुच डोनाल्ड ट्रंप ने गोरे अमेरिकियों को अतीत में लौटाने के सभी सूत्र आजमाए है। बाइबल का अपना महंगा संस्करण छपवाया। उसे लोगों को बेचा। और गोरे अमेरिकियों ने न केवल चर्च के प्रचार, एवेंजलिस्ट पादरियों और उनके मसीहा डोनाल्ड ट्रंप को जिताया, बल्कि दुनिया के आगे साबित किया है कि ताकतवर, अमीर और साहसी के आगे भी अस्मिता, धर्म और नस्ल की पहचान का खतरा भूत की तरह होता है। इनके हवाले कोई भी डरा कर मनुष्य को भेड़-बकरी बना सकता है।

तभी सोचें, भारत के अपने राहुल गांधी और कांग्रेसी कितने मूर्ख है जो रामायण, महाभारत की जगह संविधान दिखा कर वोट मांग रहे है! अमेरिका के ताजा अनुभव के बाद सभी प्रगतिशीलों, सेकुलरों को क्या नहीं समझ लेना चाहिए कि धर्म बड़ा बलवान और संविधान उसके आगे पानी भरता हुआ!

यह मैं लगातार लिखता आया हूं कि ओसामा बिन लादेन नाम के व्यक्ति ने 9/11 की जहालत से दुनिया को ऐसे भंवर में फांसा है कि इंसानों का जीना मध्ययुग की और लौटता हुआ है। तभी इक्कीसवीं सदी में हर नस्ल, हर धर्म, हर जाति, हर राष्ट्र अपने अस्तित्व, भविष्य और पहचान के ऐसे-ऐसे वायरस लिए हुए है कि सभी नीम-हकीम नुस्खे अपनाते हुए आदिम काल में लौट रहे हैं।

सोचें, इलॉन मस्क अंतरिक्ष के लिए यान बना रहा है वही वह डोनाल्ड ट्रंप का एवेंजलिस्ट भी है! दुनिया के नंबर एक खरबपति, वैश्विक कारोबारी को ‘अमेरिका फर्स्ट’ सोचना चाहिए या विश्व (भूमंडलीकरण) फर्स्ट होना चाहिए? लेकिन होमो सेपियन ने नस्ल और धर्म की अपनी जो घुट्टियां बनाई हैं उसमें संभव नहीं है जो मनुष्य बतौर इंसानी विवेक-बुद्धि में निर्णय करें। तभी यूरोप में चर्च और राष्ट्रीयता की सामंतशाही से भागे, पश्चिमी पुनर्जागरण की कई सदियों के बाद भी, अमेरिका में गोरों द्वारा ट्रंप का समर्थन है। अमेरिका के संस्थापकों ने संविधान भले धर्मनिरपेक्ष, ज्ञान-विज्ञान, सत्य केंद्रित बनाया हो लेकिन धर्म और पहचान की डोनाल्‍ड ट्रंप ने चिंता बनवाई, बाइबल बेची तो गोरे ईसाई कठमुल्ला हो कर मैदान में उतर पड़े।

अमेरिका के तमाम सर्वेक्षणों में गोरे अपने को चर्च व धर्म निरपेक्ष और आधुनिक बतलाते हैं लेकिन अब साबित है कि हॉलीवुड संस्कृति से वैश्विक पताका का घमंड पाले अमेरिकी अपनी संस्कृति पर खतरा देख रहे हैं। वे नास्तिक नहीं आस्तिक हैं। वे संपन्न नहीं, बल्कि महंगाई जैसे मौसमी कारणों में भी भरोसे और विवेक को गंवा बैठते हैं।

सवाल है अमेरिका यदि ज्ञान-विज्ञान, सत्य और लिबरल तासीर छोड भयाकुल कौम की तरह पुतिन जैसा एक तानाशाह चुन ले तो वह क्या रूस जैसा हो जाएगा? मैं ऐसा होना संभव नहीं मानता। हालांकि अच्छे सुधीजन हताश लगते हैं। लंदन के फाइनेंशियल टाइम्स में दो नवंबर की टीवी बहस के हवाले के लेख में यह लिखा था कि विचारक युवाल नोवा हरारी की ट्रंप की जीत की संभावना पर यह टिप्पणी थी कि, ‘अमेरिकी लोकतंत्र अब इतना समस्याग्रस्त हो गया है कि अगला राष्ट्रपति चुनाव (जिसके नतीजे आ गए हैं) अमेरिकी इतिहास का संभवतया आखिरी लोकतांत्रिक चुनाव हो सकता है। इसके अधिक चांस नहीं हैं पर ऐसा संभव है’।

और डोनाल्ड ट्रंप जीत गए हैं। तो क्या मानें कि इसके आगे अमेरिका में लोकतांत्रिक चुनाव उस तरह नहीं होंगे, जैसे उसके इतिहास में अब तक होते आए हैं? और कल्पना करें ट्रंप अमेरिका में पुतिन, शी जिनफिंग, रूस-चीन जैसे चुनाव और लगातार राष्ट्रपति बने रहने का चुनावी सिस्टम बना दें तो क्या होगा!

जवाब वक्त देगा। इतना तय है डोनाल्ड ट्रंप का वापिस राष्ट्रपति बनना अमेरिका के गौरव की वापसी नहीं है। अमेरिका का शिखर नहीं लौटेगा, बल्कि वह उस भंवर में फंसेगा, जिसमें अमेरिकी राजनीति में धर्म, नस्ल का महाभारत स्थायी होगा। तानाशाह और निरंकुश नेताओं की कमान वाले देश में हमेशा पहले लोगों की बुद्धि का हरण होता है। नस्ल मूर्ख बना करती है। वह चुपचाप खोखली होती है। इसकी ट्रंप शासन में कोशिश होगी। ताकि आगे के चुनावों में वह सिलसिला नहीं हो जो लोकतंत्र का तकाजा है। ऐसी स्थिति में जिन लोगों में विवेक, समझ बुद्धि होती है वे थक हार कर हाशिए का हिस्सा हो जाते हैं और बाकी जनता उन्हीं के कहने में चलती है जो धर्म और नस्ल की हांक से, लाठी लिए गड़ेरिए बने हैं।

नतीजतन राष्ट्र, कौम, नस्ल समझ नहीं पाती कि वह आगे बढ़ रही है या पीछे? अमेरिका में किसी को समझ नहीं आ रहा है कि डोनाल्ड ट्रंप लोगों की मुसीबतों और कल्पनाओं में महानायक कैसे हैं? वे कैसे इतने भारी समर्थन से जीते? ऐसी स्थिति में भारत में विपक्ष ईवीएम पर ठीकरा फोड़ देता। लेकिन अमेरिका में ऐसे ऑप्शन नहीं है।

जो है वह वैश्विक पैमाने का सकंट है। होमो सेपियन की दैवीय प्राप्तियों में इतिहास भी सभ्य समाजों में लंगड़ी मार रहा है। रिपीट होता है। जहालत, जंगलियत और महाभारतों की पुनरावृत्ति होती है इसलिए फिलहाल इतना ही मानना चाहिए कि पृथ्वी भी अपनी तबाही की तरफ है तो साथ ही मानवता की तबाही के भस्मासुर भी पैदा कर रही है। जैसा पहले होता आया है वैसा आगे भी होना है!

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By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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