जो हरियाणा में हुआ वह महाराष्ट्र में है! ऐसा ही आगे दिल्ली, बिहार और उत्तर प्रदेश में भी होगा। इसलिए क्योंकि विपक्ष लगातार मोदी-शाह को कमतर आंकते हुए है। राहुल गांधी, उद्धव, अखिलेश, केजरीवाल, तेजस्वी से लेकर भूपिंदर सिंह हुड्डा, नाना पटोले, महाराष्ट्र के चुनाव प्रभारी अशोक गहलोत व मोहन प्रकाश आदि किसी भी विरोधी नेता में इतनी बेसिक समझ भी नहीं बनी है कि मोदी-शाह कैसी राजनीति करते हैं! दस साल बाद भी वे मोदी-शाह की जमीनी लड़ाई की थाह लिए हुए नहीं हैं। इनका बेसिक मंत्र है जैसे भी हो विपक्ष को बांटो और काटो। जमीन पर लोगों को डराओ, बहकाओ, खरीदो, विरोधी वोटों को भगाओ, उनके वोट मत पड़ने दो या उन्हें घर बैठाओ। ललचाओ, रेवड़ियां दो। जातियों की राजनीति करो। धर्म की राजनीति करो। वे तमाम बेईमानियां करो, जिससे धंधा चोखा हो और नतीजे ऐसे आएं जैसे प्रायोजित सट्टे में होता है।
सोचें, महाराष्ट्र में क्या हुआ? मोदी-शाह ने अजित पवार का टेकओवर करके उन्हें उनके चाचा शरद पवार से ज्यादा ईमानदार, पवित्र प्रमाणित किया। एकनाथ शिंदे को उद्धव से बड़ा मराठा मानुष, बाल ठाकरे का सच्चा उत्तराधिकारी बनाया। तमाम तरह के भ्रष्टाचारों, तोड़फोड़, अनैतिक नीचताओं पर जनता का ठप्पा लगवा दिया। शरद पवार को बुढ़ापे में बताया कि जमीनी राजनीति के बड़े सूरमा बनते हो हम जमीन पर ही निपटा देते हैं! ऐसे ही कांग्रेस के बड़बोले पिछड़ी राजनीति के ठेकेदार नाना पटोले को भाजपा ने महाराष्ट्र में दिखला दिया कि पिछड़े-दलित-आदिवासी कितने सस्ते में खरीदे व बेचे जाते हैं!
सही है कि मोदी-शाह और भाजपा के मुकाबले में विपक्ष के पास छटांग पैसा नहीं है। बेचारों की ऐसी बुरी दशा है कि महाराष्ट्र में जानकारों की मानें तो उद्धव ठाकरे, शरद पवार और कांग्रेस तीनों के नेताओं ने उम्मीदवारों से पैसा ले कर टिकट बांटे! इतनी बड़ी लड़ाई और टिकट बेचे जाते हुए! भाजपा अपनी सोशल इंजीनियरिंग में उपजातियों के कुनबे स्तर की जोड़-तोड़ तक में खरीद फरोख्त करती है, भरोसे देती है तो उसके आगे भला राहुल गांधी, एआईसीसी, अखिलेश, शरद पवार की क्या हैसियत जो वे बांटने-काटने-खरीदने में मोदी-शाह की बराबरी करें।
उस नाते विपक्ष की यह मजबूरी समझ आती है कि मोदी-शाह जितना वह न झूठ बोल सकता है और न पैसा खर्च कर सकता है। याद करें सोने की लंका के रावण की माया, उसके दस मुखों के आगे, उसके कुबेर के खजाने के आगे, उसके असंख्य संहारक हथियारों के आगे भला राम और उनकी वानर सेना में मुकाबले का क्या सामर्थ्य था। मगर था और वही मानव समाज का सत्व-तत्व है। रामायण का सार है कि मर्यादा और सत्य की ताकत से भी जीत सकते हैं बशर्ते सत्य की टेक पर पूरी वानर सेना एकजुट हो!
कोई न माने लेकिन मेरा मानना है कि यदि लोकसभा चुनाव की तरह राहुल गांधी, उद्धव ठाकरे, शरद पवार एकनिष्ठता से मोदी-शाह को केंद्र में रख कर चुनाव लड़े होते, माहौल एकजुटता और करो-मरो वाला बनाए रखते तो महाराष्ट्र में भी वैसे ही नतीजे आते जैसे हेमंत सोरेन ने मोदी-शाह की ज्यादतियों के खिलाफ एकनिष्ठता, इधर-उधर के बिना किसी ख्याल के झारखंड में चुनाव लड़ा। हेमंत सोरेन के साथ अन्याय हुआ था। लोगों में सहानुभूति बनी थी। जेल से छूटने के बाद भी हेमंत सोरेन ने विनम्रता, वोटों के अपने समीकरण पर फोकस रखा और आदिवासी, मुस्लिम, ईसाई, महिलाओं के वोटों में वह एकजुटता बनाई कि कांग्रेस, लालू यादव, लेफ्ट और खुद की झारखंड मुक्ति मोर्चे सबके पीछे विपक्ष का वोट गोलबंद हुआ। और जो लग रहा था, दिख रहा था उस अनुसार हर भाजपा विरोधी पार्टी (राजद की जरूर चौंकाने वाली जीत ) चुनाव जीत गई।
झारखंड से साबित है कि जनता में मोदी-शाह का जादू नहीं बोल रहा है। बंटेंगे तो कटेंगे का भी अर्थ नहीं है लेकिन यदि विपक्ष ही बंट जाए तो फिर जीत मोदी-शाह की वोट मशीनरी की ही होनी है। भाजपा ने हेमंत सोरेन को बेईमान साबित करने की हर संभव कोशिश की लेकिन जनता ने माना कि यह सब करके भाजपा बेईमानी कर रही है। वही हेमंत की होशियारी-समझदारी थी जो कांग्रेस को साथ रखा और आदिवासी, मुसलमान, ईसाई, परंपरागत भाजपा विरोधी वोटों को बिखरने नहीं दिया। पुराने एलायंस को कायम रखा।
पैसे के खर्च, जोड़तोड़ तथा माइक्रो-मैक्रो मैनेजमेंट के धरातल पर भाजपा ने कई गुना अधिक ताकत हेमंत सोरेन के खिलाफ झोंकी हुई थी बावजूद इसके जेएमएम-कांग्रेस, ‘इंडिया’ गठबंधन की जीत इसलिए संभव हुई क्योंकि वहां पिछले तीन महीनों में ऐसा कोई झंझट नहीं हुआ, जैसा महाराष्ट्र में ठाकरे-पवार-कांग्रेस के गठजोड़ में हुआ। राहुल गांधी और कांग्रेस की मूर्खता थी जो अखिल भारतीय राजनीति की अपनी लीडरशीप में महाराष्ट्र में अपने ही द्वारा लोकसभा के समय की केमिस्ट्री व गणित को बिगाड़ा। उद्धव ठाकरे के साथ मोदी-शाह ने सर्वाधिक अन्याय किया था, इससे पूरे महाराष्ट्र में ठाकरे के प्रति सहानुभूति थी तो पहले दिन से ही कांग्रेस ने ठाकरे को मुख्यमंत्री क्यों नहीं घोषित किया? इसलिए क्योंकि कांग्रेस मुख्यालय के मूर्ख चुनावी सर्वेक्षकों, महासचिव वेणुगोपाल, महाराष्ट्र के नाना पटोले आदि में हवा भर गई थी कि लोकसभा चुनाव में उसकी ज्यादा विधानसभा क्षेत्रों में जीत हुई इसलिए मुख्यमंत्री का मामला खुला रहे! जबकि लोकसभा में जीत ठाकरे-शरद पवार के साथ ज्यादतियों की हवा तथा मोदी-शाह के खिलाफ गुस्से के दोहरे कारण से थी। भाजपा विरोधी भावना थी, अजित पवार-एकनाथ शिंदे के खिलाफ नफरत थी। इसके प्रादेशिक प्रतीक नेता उद्धव ठाकरे थे। इसलिए लोकसभा से विधानसभा चुनाव तक कांग्रेस और शरद पवार को ईमानदारी के साथ उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित कर मराठा मानुष की चेतना को धार देने के एकनिष्ठ अभियान में जुटे रहना था। लेकिन उलटा किया। खटपट बनाई। उद्धव ठाकरे गिड़गिड़ाते दिखलाई दिए। सीट बंटवारे का लंबा कंफ्यूजन चला। लोगों में हवा बिगड़ी। ठाकरे व राहुल गांधी को महाराष्ट्र में घूम-घूम कर जो उफान बनाना था वह बना ही नहीं!
बावजूद इसके मेरे लिए समझ से परे बात है कि शरद पवार ने पहले तो इतनी सीटें क्यों लड़ी और दूसरे उन्होंने कांग्रेस व उद्धव ठाकरे को जितवाने, तीनों पार्टियों के मजबूत उम्मीदवार खड़े करवाने जैसी कोशिशों के बजाय एनसीपी पर ही ध्यान रखा। उन्होंने आदिवासी, दलित, मुस्लिम, ओबीसी, मराठा वोटों में ढेरों की संख्या में निर्दलियों, छोटी व दलित पार्टियों के उम्मीदवारों को खड़ा करने की भाजपा की तिक़ड़मों की अनदेखी कैसे की?
बावजूद इसके महाराष्ट्र में जो दिख रहा था नतीजे उससे पलट हैं। मुबंई, पुणे के सभी जानकार बता रहे थे कि अजित पवार से भाजपा को नुकसान होना है। बावजूद इसके उनकी जीत है तो वजह मोदी-शाह द्वारा उनकी पार्टी का टेकओवर था। पर क्या आरएसएस की मशीनरी ने भी अजित पवार के उम्मीदवारों को जिताने के लिए दम लगाया?
हरियाणा के नतीजे का पहले से कुछ खटका था। आखिर जाट बनाम गैर-जाट में भूपिंदर सिंह हुड्डा की गलती तथा सैलजा का रोल, बसपा, चंद्रशेखर की दलित पार्टी, चौटाला पार्टियों आदि की बिसात से संकेत मिलते हुए थे लेकिन महाराष्ट्र में विपक्ष का सूपड़ा ही साफ हो जाएगा, यह अनपेक्षित है। इसलिए महाराष्ट्र चुनाव के नतीजों को नहीं मानने का संजय निरूपम का स्टैंड स्वाभाविक है। महाराष्ट्र के नतीजों की साख को लेकर आगे राजनीति टकराहट वाली होगी।
नतीजे राहुल गांधी, कांग्रेस, अखिलेश याकि पूरे विपक्ष के लिए सबक हैं। अखिलेश यादव मुस्लिम बहुल विधानसभा की उपचुनाव सीट में भी हारे हैं। मुस्लिम वोट बंटे हैं। दलित भी बंटे हैं। मायावती के अलावा अब चंद्रशेखर आजाद, प्रकाश अंबेडकर आदि की दलित पार्टियां भाजपा के लिए पूंजी समान हैं। सवाल है कि मुसलमानों ने पूरे वोट अखिलेश को ही क्यों नहीं दिए? इसलिए क्योंकि अखिलेश ने लड़ाई विपक्ष की नहीं सपा की बनाई। राहुल और अखिलेश यदि साझा चुनाव लड़ते, प्रचार करते दिखते तो मुसलमान वैसे नहीं बंटता जैसे बंटा है। राहुल गांधी के लिए सबक है कि उन्होंने महाराष्ट्र में भी जाति जनगणना और संविधान की बातें की लेकिन उसमें बुरी तरह मुंह की खाई। सो, मुद्दे में अखिल भारतीय स्तर पर मोदी-शाह सरकार, महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, अडानी का ही उपयोग फायदेमंद है और साथ में रेवडियों की घोषणाएं।
बहरहाल लिख रखें कि जो महाराष्ट्र में हुआ है वह तीन महीने बाद दिल्ली में भी होगा! मोदी-शाह ने बहुत कायदे से ढाई-तीन साल से केजरीवाल की इमेज को बिगाड़ा है। वे इसे समझने के बजाय अहंकार में अकेले चुनाव लड़ेंगे। कांग्रेस अलग लड़ेगी। मुसलमान, दलित, झुग्गी झोपड़ी व भाजपा विरोधी परंपरागत वोट बंटेगा। भाजपा मजे से दिल्ली विधानसभा चुनाव जीतेगी। उसके बाद बिहार चुनाव है वहां तेजस्वी-लालू वैसे ही अहंकार में चुनाव लड़ेंगे जैसे लोकसभा में कांग्रेस के साथ के बावजूद ज्यादा से ज्यादा यादव उम्मीदवार उतारने या पप्पू यादव आदि को ले कर मनमानी की थी और खुद अपने हाथों अपनी हार दर्ज कराई। जबकि ताजा उपचुनाव में प्रशांत किशोर भी वोटकटुआ पार्टी के तौर पर बिहार में जगह बनाते दिख रहे हैं।
कुल मिलाकर, लोकसभा चुनाव में कांग्रेस, सपा, एनसीपी-उद्धव आदि की हल्की सफलता ने विपक्ष में भांग का वह नशा बनाया है, जिसमें विपक्ष झूमता और बिखरता हुआ है। नेता अपने पांवों खुद कुल्हाड़ी मार रहे हैं। कोई आश्चर्य नहीं जो हरियाणा के बाद महाराष्ट्र में भी विपक्ष ने सजी-सजाई थाली गंवाई!