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अंहकार हारा, वानर सेना जीती!

भारत के लोकतंत्र ने फिर इतिहास रचा। मर्यादा की वानर सेना अहंकार को हरा कर जीत गई। अयोध्या में श्रीराम की उंगली पकड़ उन्हें उनके घर लौटाने का दंभ हार गया। कोई न माने इस बात को लेकिन मेरा मानना है कि अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा के समय नरेंद्र मोदी जिस दर्प, अभिमान और अभिनय में अपना अहंकार गुंजाते हुए थे उसी के कारण उत्तरप्रदेश के गरीब-गुरबों ने जब सुना कि अबकी बार चार सौ पार है तो वे चौकन्ने हुए। उन्होंने माना कि संविधान खतरे में है। नतीजतन  वह चमत्कार कर दिखाया जो सत्ता के अहंकार का मारा कोई राजा सोच ही नही सकता था।

इसलिए चार जून 2024 का दिन भारत में लोकतंत्र को नई जिंदगी का है। हालांकि अहंकार की अभी सिर्फ हार हुई है, उसका समापन नहीं हुआ है। तभी तय मानें वह सत्ता पर बने रहने की अब नई मायावी कोशिशें करेगा। रीढ़ की अहंकारी हड्डी की अकड़ अब स्पंज में बदल गई होगी। ताकि नीतीश कुमार, चंद्रबाबू नायडू से लेकर हर उस सांसद के आगे वह ‘मुजरा’ हो सके, जिससे बहुमत बने। सांसद खरीदे जा सकें। साधु का वेश धर कर या स्वर्ण मृग बना कर या किसी भी मायाजाल के जरिए सत्ता का हरण किया जा सके। अडानी-अंबानियों का काम आसान हो।

सवाल है क्या-क्या संभव है? पहली बात, नरेंद्र मोदी में अहंकार जस का तस होगा। वे न तो हार की नैतिक, राजनीतिक जिम्मेवारी लेने वाले हैं और न संघ और भाजपा के भविष्य की चिंता करने वाले हैं। वे इस्तीफा नहीं देंगे। भाजपा में किसी नए नेता को मौका नहीं देंगे। संघ और भाजपा में सलाह करने या सलाह लेने जैसा कुछ नहीं होना है। यह भी संभव नहीं है जो आरएसएस और भाजपा संगठन का कोई नेता या पदाधिकारी नरेंद्र मोदी को हार के लिए जिम्मेवार ठहरा कर उनसे नैतिक तकाजे में इस्तीफा देने के लिए कहे। भला घर के भीतर रावण से लड़ने की हिम्मत कैसे संभव है? तभी यदि नितिन गडकरी (कहते हैं जिन्हें हराने की कोशिश हुई), योगी आदित्यनाथ या राजनाथसिंह (जो घुट-घुट कर समय काटते रहे हैं) आदि में कोई हिम्मत दिखाने की सोच रहा होता तो कम से कम ट्विटर के जरिए ही सही नतीजों के बाद अपना मन तो बतलाता हुआ होता।

इसलिए नरेंद्र मोदी का भाजपा संसदीय बोर्ड (संसदीय दल  भी) की बैठक से फटाफट वापिस नेता चुना जाना लगभग तय है। राष्ट्रपति दौपद्री मुर्मू के यहां मोदी सबसे बड़े दल और गठबंधन के नाते दावा रखेंगे और वे उन्हें शपथ का न्योता देंगी।

सवाल है उससे पहले नरेंद्र मोदी क्या नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडु को समर्थन देने का सौदा पटा लेंगे? सवाल इसलिए अहम है क्योंकि नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू दोनों इतनी बुद्धि और विवेक रखते हैं, जो नरेंद्र मोदी कहें और वे उस पर तुरंत विश्वास कर लें। कोई न माने इस बात को लेकिन सत्य है कि चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार दोनों नरेंद्र मोदी और अमित शाह के उन्हीं तौर-तरीकों से एनडीए एलायंस से जुड़े हैं, जिनसे मोदी-शाह ने महाराष्ट्र में पार्टियों और नेताओं को तोड़ा था। इसलिए नरेंद्र मोदी कितनी ही कोशिश करें, इन नेताओं को अपने राज की कितनी ही मलाई देने का भरोसा दें लेकिन चंद्रबाबू और नीतीश दोनों मन ही मन जानते हैं कि वह मलाई नहीं जहर होगा।

हाँ, मोदी अमृत भी दें तो वह जहर होगा। कुछ ही महीनों में मोदी-शाह इनके सांसदों को वैसे ही खा जाएंगे जैसे समर्थन देने वाले उद्धव ठाकरे की पार्टी और सांसदों को खाया था। कुछ महीने पहले ही नीतीश कुमार के करीबियों के यहां इनकम टैक्स के छापे पड़े थे, नीतीश का टेंटुआ दबाया गया था तो जगनमोहन के जरिए चंद्रबाबू नायडू को जेल की हवा खिलाई गई थी। तब चंद्रबाबू का बेटा लोकेश दिल्ली में दर-दर भटकते हुए था और नायडू परिवार को पूरी तरह रूला कर जब सौदा हुआ तो वसूली के साथ कट मारने की तमाम अफवाहें दिल्ली शहर में थी। क्या उस सबको भूल कर चंद्रबाबू नायडू नरेंद्र मोदी को सिर आंखों पर बैठाएंगे?

मगर अहंकार हार नहीं माना करता। नरेंद्र मोदी स्क्रीन पर लौट आए हैं। दंभ के साथ देश को संदेश दे दिया है कि वे हार नहीं मानेंगे। मतलब वे सबको तोड़ देंगे। सबको खरीद लेंगे। वानर सेना की भला औकात ही क्या जो नरेंद्र मोदी के आगे टिकी रह सके। जिसने रामजी की उंगली पकड़ कर उन्हें उनका घर दिलवाया तो मतदाताओं की भी क्या औकात जो उनके कहने से वे बेदखल हो जाएं। इसलिए जनादेश भर आया है असल युद्ध आगे है।

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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