nayaindia Lok Sabha election result आभार!
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आभार!

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हां, धन्यवाद उस जन का, उस मन का जिनके विवेक ने भारत का मान रखा। लोकतंत्र की गरिमा लौटाई। विश्व में भारत के प्रति आस्था बनवाई। देश को अर्ध लोकतांत्रिक, अर्ध अधिनायकवादी धुंध से बाहर निकाला। दमनकारी अहंकार को बांधा। मुर्दा विपक्ष में जान फूंकी। और भरोसा लौटाया कि भारत मनुष्यों का है न कि भेड़-बकरियों का एनिमल फार्म। देश गुलाम, गोबर लोगों और भक्तों का ही नहीं है और न सभी झूठ, झांसों, नफरत और रेवड़ियों के बिकाऊ हैं, बल्कि विवेकी, स्वतंत्रचेता और खुद्दार लोगों का भी है। इन्हें मालूम है अपनी ताकत। वे जयकारों के शोर के बीच मौन संकल्प धार थप्पड़ मार सकते हैं। राजा की चीख-चिल्लाहट और नौटंकियों को ठेंगा दिखा सकते हैं। बिकाऊ मीडिया, गुलाम चैनलों के जयकारों, नगाड़ों के बावजूद सत्यमेव जयते का उद्घोष कर सकते हैं।

इसलिए आजाद भारत के इतिहास में सन् 2024 का जनादेश 1977 जैसा न होते हुए भी इतिहासजन्य है और अभिनंदनीय है। इसे कभी नहीं भुलाया जाएगा। हमें दिल से उन कोटि-कोटि मतदाताओं का आभार व्यक्त करना चाहिए जो बुद्धि, विवेक और सत्य के आग्रही हैं, जो अपने मन-मंदिर में स्वतंत्रता और लोकतंत्र की लौ लिए हुए हैं। निश्चित ही आजाद भारत के इतिहास में 25 जून 1975 की तारीख के जैसे ही चार जून 2024 का दिन भी स्मरणीय दिवस होगा। सोचें, अहंकारी नरेंद्र मोदी चार जून 2024 के दिन यदि 350 से 400 सीटों का बहुमत पा जाते तो उनकी कथित छप्पन इंची छाती कैसी और कितनी फूली हुई होती? उनकी तुताड़ियां कैसी बज रही होतीं? नरेंद्र मोदी न केवल अपने ईश्वरत्व का डंका पीटते हुए होते, बल्कि उसी शाम वे जनादेश के दर्प में लोकतंत्र को कंपकंपा डालते। भयाकुल भारत की जुबां, निर्भयता और बौद्धिकता पर और पाला पड़ता। पूरा तंत्र सामान्य मानवी को आज्ञाकारी, अनुशासित, भक्तिमान बनाने का नया महाअभियान शुरू करता।

इंदिरा गांधी और नरेंद्र मोदी का, इंदिरा गांधी की इमरजेंसी और नरेंद्र मोदी के दस साला राज का यह एक बुनियादी फर्क है जो इंदिरा गांधी की तानाशाही सत्ता की चिंता से थी। वे अहंकारी नहीं थीं। वे मूल्यों, मर्यादाओं और नैतिकता का ख्याल रखती थीं। उनका झूठ, छल-कपट और ढोंग का ऐसा कोई रिकॉर्ड नहीं था जैसा पिछले दस वर्षों में नरेंद्र मोदी ने बनाया है। इमरजेंसी की तानाशाही में इंदिरा गांधी ने विपक्षी नेताओं को जेल में डाला था लेकिन वैसे नहीं जैसे नरेंद्र मोदी ने चिदंबरम, हेमंत सोरेन, अरविंद केजरीवाल आदि को आरोपों की साजिशों में डाला है। और जैसे उन्होंने बेशर्मी से पार्टियां तोड़ीं, नेताओं को खरीदा तथा संस्थाओं को एक एक कर गुलाम बनायावैसा कुछ भी इंदिरा गांधी ने नहीं किया था।

तुलना करें, इंदिरा गांधी की 17 महीनों की इमरजेंसी बनाम मोदी के दस साला राज के गुलाम मीडिया की? सेंसरशिप के बावजूद तब अखबारों की इज्जत बची रही। अखबारों के क्लासीफाइड विज्ञापन में तब लोग लोकतंत्र के संघर्ष के मैसेज खोजते थे। सेंसरशिप से जुबां बंद होने के बावजूद समाज में मीडिया की इज्जत थी और ज्योंहि सेंसरशिप खत्म हुई तो लोग अखबारों को खरीदने के लिए टूट पड़े थे। मीडिया पर कभी विश्वास नहीं टूटा। उन्हें वेश्याओं का कोठा नहीं माना गया। ऐसे ही अदालत से भरोसा नहीं टूटा था तो चुनाव आयोग जैसी तमाम संस्थाओं पर अविश्वास भी नहीं हुआ था।

हां, इंदिरा गांधी की सत्ता जिद्द सिर्फ राजनीति केंद्रित थी। उन्होंने अपने को भगवान या देवी मां बनाने की नौटंकियां नहीं कीं। अपनी लोकप्रियता को भक्ति में कन्वर्ट करने, अपने को देवी के रूप में थोपते हुए अपनी किवंदतियां बनाने व अंधविश्वास बनवाने का प्रयास कभी नहीं किया। जबकि नरेंद्र मोदी ने पूरे दस साल अपना देवत्व स्थापित करने में हिंदुओं को अंधविश्वासी बनाने का हर संभव काम किया।

इस सत्य को गांठ बांधें कि तानाशाही से लड़ा जा सकता है। निरंकुश शासन में भी निर्भयता का दीया जलता रह सकता है। लेकिन ईश्वरीय सत्ता के आगे मनुष्य क्या तो सोचेगा और क्या वह निज स्वतंत्रता का दीया जलाएगा? त्रासद है यह सोचना और लिखना कि राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ, उसके हिंदू दर्शन ने देश में एक ऐसा प्रधानमंत्री पैदा किया, जो इस्लामी खतरे या कट्टर मुस्लिम देशों की कट्टरता के रोल मॉडल के कंट्रास्ट में हिंदूशाही की सीधी ईश्वरीय सत्ता बना अपनी पूजा करवा रहा है। गहराई से समझें इस बात को कि इस्लाम की पताका पैगंबर के बंदों से है वही भक्त हिंदू सीधे अपने पैगंबर को दिल्ली की सत्ता पर बैठा मान हर, हर महादेव कर रहे हैं। भगवान ही उतर कर सत्ता पर बैठ गए हैं। उसी की सर्वज्ञता के सुपुर्द सब कुछ है। वही रक्षक, वही मुसलमानों का संहारक, वही विकसित भारत, विश्वगुरू बनाने वाला और लोगों को आटा-दाल तथा चिल्लर भी बांटने वाला।

यह है राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के सौ साला (जल्द ही) हिंदुत्व का निचोड़ और हिंदू राजनीतिक दर्शन का प्रारब्ध!

हां, कही कोई लज्जा नहीं है। 140 करोड़ लोगों के नाम पर एक नेता ने सचमुच भक्तों में अपने को भगवान स्थापित कर दिया है। तभी बुद्धि, विवेक को ताक में रख, ईर्द-गिर्द की वास्तविकताओं और निज अनुभवों को भूला कर कोई 36 प्रतिशत लोगों ने वोट डालकर यह आस्था जतलाई है कि मेरे तो गिरधर मोदी…

और सोचें, यदि भगवानजी द्वारा अनुमानित 400 सीटें चार जून को उनके चरणों में पड़ी हुई होतीं तो अंधविश्वास क्या इस्पाती नहीं हो जाता?

इसलिए अभिनंदन उन मतदाताओं का जिन्होंने कौम के मनुष्यत्व, उसकी गरिमा और इज्जत बचाई। मनुष्य जीवन की बुनियादी आधुनिक आवश्यकता स्वतंत्रता और लोकतंत्र को बुलडोजर से बचाया। लोग बौद्धिक निष्क्रियता, अज्ञान और विस्मृति को छोड़ वानर सेना को वोट डालने निकले। उन्होने साहस दिखाया।

सोचने की आवश्यकता नहीं है कि आगे क्या? हम हिंदुओं का इतिहास है, तासीर है जो भयाकुल, गुलाम मनोदशा से हम कभी मुक्त हो जीवन जी सकते है। भारत का लोकतंत्र और आजाद भारत का 75 साला सफर इस बात का प्रमाण है कि गुलामी (विशेष कर सत्ता की) और भूख की ग्रंथि में लोग मालिक की चौखट (नेता, अफसर, कोतवाल, मंदिर) पर नाक रगडते रहते हैं। यह सत्य विशेषकर कथित पढ़े-लिखे, संभ्रात-अमीर और कारिंदों के मध्य वर्ग पर सर्वाधिक तथा स्थायी रूप से लागू है। तभी खैबर पार से हजार, दो हजार विदेशी घुड़सवार दिल्ली आते थे और तलवार का डर दिखा कर दिल्ली के तख्त के मालिक बनते थे। वे भी अपने को पैगंबर के दूत,  जहांपनाह घोषित कर दिल्ली के सत्ताखोरों का वैसे ही ‘मुजरा’ कराया कराते थे जैसे नरेंद्र मोदी ने गुजरात से आ कर दिल्ली के कथित एलिट, कारिंदों, कोतवालों और चारणों का जयकारा बनवाया हुआ है।

इसलिए एक जानकार ने जब मतदान की शाम मुझे फरीदाबाद से बताया कि दिल्ली और एनसीआर में तो नरेंद्र मोदी का जादू कायम है तो मैं हैरान नहीं हुआ। इसलिए क्योंकि दिल्ली के पढ़े-लिखे समझदारों या राजे-रजवाड़ों के क्षत्रप-सूबेदारों और रायबहादुर किस्म के हिंदू संभ्रात जनों की बस्तियां (दिल्ली, आगरा, पटना आदि) तो सदियों से, हजार साल से बुद्धि, विवेक, जानकारियों और ज्ञान के बिना सांस लेते आ रही है। इन्हीं से तो गठित है बादशाह और कोतवाल केंद्रित समाज। और भयाकुल व भूखे (पद,पैसे) जीवन के बावजूद झूठी शान, आडंबर व ढोंग से भरा ताबेदारी जीवन है। दिल्ली में राज तुर्कों का हो, या मुगलों का या अंग्रेजों का या नेहरू से ले कर नरेंद्र मोदी का, मध्यवर्गी प्रजा हमेशा बादशाह के आगे ‘मुजरा’ करते आई है। अंधविश्वासों में भक्ति वंदना की आदी है। यस सर, यस सर बोला जाता है। कड़वी सच्चाई है कि नेहरू के कैबिनेट में भी उनके आगे मंत्री (मौलाना आजाद के अपवाद को छोड़) बोलते नहीं थे तो नरेंद्र मोदी भी कैबिनेट में हेडमास्टरी करते आए हैं।

अपने को मौजूदा हालातों में पीड़ा इस बात से है कि इक्कीसवीं सदी में भी हिंदुओं में एक प्रधानमंत्री अपना अवतारी अंधविश्वास बनाए हुए है। मैं दिल्ली में जहां रहता हूं वह देश की पढ़ी-लिखी सभ्रांत, मध्यवर्गीय कॉलोनी है। बच्चे विदेश में काम करते हुए या पढ़ते हुए। बावजूद इसके अधिकांश लोग ताली-थाली बजाने वाले और झूठ, झांसों के कचरे में इस शोर के साथ कूदते हुए कि उन्हें भगवान प्राप्त हो गए। वे नहीं रहेंगे तो मुसलमान छा जाएंगे। इसलिए उनसे सुरक्षा, विकास और जीवन का सूख है। तभी चार जून को जब नतीजों का सदमा लगा तो एक भक्त अपने को रोक नहीं पाया और उसने कॉलोनी के पार्क में पीपल के पेड़ के नीचे तख्ती पर लिखा- ‘जयचंदों को उठा लो प्रभु’ और पेड़ पर ‘देशद्रोहियों से सावधान’!

सोचें, भक्त की मनोदशा पर। दिमाग में पकी हुई देशभक्तों बनाम देशद्रोहियों की लड़ाई। जैसे देश में गृहयुद्ध हो! और मोदी को मनचाहे वोट नहीं पड़ने पर असुरक्षा, भय, चिंता में पैदा यह क्षोभ कि भगवान को धोखा हुआ। उनके खिलाफ वोट देने वाले हिंदू देशद्रोही है! तभी सवाल है कौम का यह प्रतिनिधि दिमाग क्या लोकतंत्र के लायक है? क्या इससे ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ कभी हो सकता है? निश्चित ही मनुष्य स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आजादी के विश्वासी होने के नाते मैं भक्त के विश्वास, उसकी सोच, भक्ति और पूजा के उसके अधिकार का हिमायती हूं। बावजूद इसके क्यों न सोचूं कि इक्कीसवीं सदी, हां, इक्कीसवीं सदी में नरेंद्र मोदी की बदौलत देश के कथित बुद्धिमानों की बुद्धि को कैसे ताले लगे हैं! लोगों का दिल-दिमाग देश के भीतर ही जयचंद बनाम पृथ्वीराज की लड़ाई के अंधविश्वासों में पका है! इसलिए इस बात का विशेष अर्थ नहीं है कि नरेंद्र मोदी के 35 प्रतिशत भक्तों के आगे शेष 65 प्रतिशत भारतीयों से हमें भविष्य का विश्वास रखना चाहिए।

असल मसला भारत के एक आइडिया (हिंदू आइडिया) की बुद्धि के छिजने का, विकृत होने का है। इस सत्य की अनदेखी नहीं करें कि इस चुनाव में लद्दाख, कश्मीर घाटी, पंजाब और उत्तर पूर्व में ऐसे अनाम चेहरे जीते हैं, जिन्हें लोगों ने अपनी अस्मिता की खदबदाहट में वोट डाल जीताया है। उमर अब्दुल्ला की जगह तिहाड़ जेल में बंद इंजीनियर राशिद या पंजाब में खडूर साहिब से अमृतपाल या फरीदकोट से सरबजीत सिंह का चुनाव जीतना प्रमाण है कि भक्त अपने प्रभु से जयचंदों को उठा लेने की जो प्रार्थना कर रहे हैं वह मानसिकता अंततः भारत को लील लेगी! भारत को टुकड़ों में बांटेगी।

सो, सलाम उन लोगों को जिन्होंने बहुत बुद्धिमत्ता से वोट दे कर नरेंद्र मोदी को नकेल डाली तो विपक्ष को सत्ता पर भी नहीं बैठाया। मेरा मानना है विपक्ष यदि अभी जीतता तो उसकी सरकार वैसी ही बनती जैसी 1977 में जनता पार्टी की बनी थी। तब दो साल में ही वह छिन्न-भिन्न हो भारत का दुःस्वप्न हो गई थी!

तभी आभार उन सुधी मतदाताओं का, जिन्होंने संतुलन बनाया। जिसकी वजह से सभी समुदायों, मुसलमानों, सिक्खों, जातियों, उपराष्ट्रीयताओं के हर कोने में यह भरोसा जरूर बना होगा कि भारत में लोकतंत्र जिंदा ही नहीं है, बल्कि मताधिकार से वह विकल्प देता है, जिससे अन्याय मिटाया जा सकता है। अहंकार के खिलाफ अपने अधिकार और गरिमा के लिए लड़ा जा सकता है। इसलिए कश्मीर घाटी, लद्दाख से लेकर पंजाब, उत्तर-पूर्व व दक्षिण सभी तरफ के सभी सरोकारों में भी मोदी के खिलाफ पड़ा वोट देश की एकता, अखंडता और सामाजिकता में अभिनंदनीय है। क्या नहीं?

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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