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चुनाव अब जनमत संग्रह!

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इतिहास बनता लगता है। जनवरी में जो देश अबकी बार चार सौ पार के हुंकारे में गुमसुम था वह मई में विद्रोही दिख रहा है। इसलिए चुनाव अब जनमत संग्रह है। और इसका मुद्दा है मोदी बनाम संविधान-लोकतंत्र। इसके सवाल हैं, जनता को चक्रवर्ती-अवतारी राजा की एकछत्रता चाहिए या संसदीय व्यवस्था? एक कथित सर्वज्ञ नेता की केंद्रीकृत सत्ता चाहिए या विकेंद्रित सरकार? प्रधानमंत्री का पद सार्वभौम हो या जवाबदेह? मनमानी चाहिए या चेक-बैलेंस? कोतवाल चाहिए या कानून? पक्षपात चाहिए या निष्पक्षता? बराबरी चाहिए या गैर बराबरी? निर्भयता चाहिए या भयाकुलता? बुद्धि चाहिए या मूर्खता? अहंकार चाहिए या विनम्रता? रावण चाहिए या राम? देश में मर्यादा, नैतिकता, ईमानदारी और शोभनीयता का मान बना हुआ होना चाहिए या उनका निरंतर अवमूल्यन?

आश्चर्य जो ये सवाल अफवाहों में व छोटी-बड़ी बातों से भारत की मंद-बंद बुद्धि में हलचल पैदा किए हुए है! दस वर्षों में नरेंद्र मोदी ने देश की सुरक्षा, हिंदुओं की सुरक्षा के नैरेटिव से शहरी उच्च मध्य वर्ग, नौजवानों तथा कथित पढ़े-लिखे लोगों की बुद्धि का जैसा जो हरण किया है वह अपनी जगह है लेकिन छोटे-छोटे लोग अपने सरोकारों व जातीय सोच-विचार (जिसे दस वर्षों में खुद मोदी ने घर-घर और पैठाया) में अपने आरक्षण, लाभार्थी भूख में सुने वायदों, महंगाई जैसी हकीकत से खदबदाहट में हैं। इनके असंख्य समूहों से या तो वोट डालने का निश्चय झलका है या मतदान के दिन घर में बैठे रहने का मूड। तभी जनमत संग्रह कांटे का है।

हां, देश बहुत हद तक आज 1977 के चुनाव वक्त में है। तब भी चुनाव अचानक जनमत संग्रह में कन्वर्ट हुआ था। मुकाबला देवी दुर्गा बनाम विपक्ष के टिड्डी दल में था। आज नरेंद्र मोदी हैं और उनका देश में वैसा ही प्रोपेगेंडा है जैसा 1977 में था कि- सारा देश इंदिरा गांधी की कानी उंगली पर गोर्वधन पर्वत की तरह खड़ा हुआ है (एक जनसभा में नारायण दत्त तिवारी का भाषण) इसलिए उनकी कृष्ण कनिष्ठा पर्वत के नीचे से हटी, तो देश भरभरा कर गिर जाएगा। वैसा ही भय 2024 में मंद-बंद बुद्धि के लोगों में है कि मोदी नहीं जीते तो हमें मुसलमान मार डालेंगे। देश को पाकिस्तान-चीन खा जाएगा।

इसलिए 2024 का यक्ष प्रश्न है कि भविष्य के भय में भारत का पट्टा नरेंद्र मोदी के नाम लिखा रहे या हिंदुओं ने भी भारत माता का दूध पीया हुआ है। वे बिना मोदी के भी अपनी सुरक्षा में समर्थ हैं या नहीं? मोदी से ही सुरक्षा है या हम भी समर्थ हैं!

इंदिरा गांधी हैं तो विदेशी साजिशों से देश की सुरक्षा है, विकास है तो वैसे ही 2024 में नरेंद्र मोदी हैं तो सुरक्षा, विकास और सब मुमकिन का देश में भ्रम है। और यह अखिल भारतीय पैमाने का वह मुद्दा है, जिस पर चार जून को फैसला मिलेगा।

हो सकता है मैं गलत होऊं। लेकिन सन् 2024 का चुनाव 1977 के अनुपात में ज्यादा अखिल भारतीयता वाला है। जनवरी से मई के पांच महीने में मतदाताओं की धीरे-धीरे बदली करवट से मुझे खटका है कि अमीर हो या गरीब, दलित हो या ब्राह्मण, आदिवासी हो या मुंबईवासी, श्रीनगर का मतदाता हो या तिरूवंनतपुरम का हर वर्ग और वर्ण नरेंद्र मोदी बनाम संविधान के तराजू में अपने विवेक का वैसे ही उपयोग करता हुआ होना चाहिए, जैसे 1977 में इंदिरा बनाम संविधान पर निर्णय था। अखिल भारतीयता की फ्रेम में निर्णय होगा। नरेंद्र मोदी का मिशन, अबकी बार चार सौ पार का मिशन अखिल भारतीय था तो यह मुश्किल है जो कुछ इलाकों में वह फेल हो और कुछ इलाकों से वह चार सौ पार हो जाए। पूरा भारत समान भाव निर्णय लेगा।

यों भाजपा शासित और गैर भाजपाई राज्यों में फर्क की यह दलील अपनी जगह है कि गैर भाजपा राज्यों में क्योंकि नरेंद्र मोदी की मुट्ठी बंद है इसलिए बंगाल में ममता बनर्जी से तंग आए लोग उनकी आंधी बनाएंगे। ऐसे ही केरल और तमिलनाडु में! बंगाली ममता से तथा ओडिया लोग नवीन पटनायक से और तेलुगू, तमिल भाषी और मलायली लोग अपनी लोकल सरकारों के चेहरों से ऊबे हुए हैं इसलिए वे नरेंद्र मोदी को पसंद कर सकते हैं यह तर्क हिट नहीं होना है।

दरअसल चुनाव ऐतिहासिक महत्व का व आर-पार का है तो सर्वत्र सोचना तय है। मोदी के कारण, मोदी की धुरी से भक्तों की सेना बनाम वानर सेना का संघर्ष है। इसमें मुद्दों की विविधता अपने आप है। स्वंयस्फूर्त दिल-दिमाग खदबदाते हुए है। किसने कल्पना की थी कि गरीब-गुरबों में संविधान की बात आग की तरह फैलेगी? और वह भी अखिल भारतीयता में। हर जाति, हर धर्म में कम-ज्यादा बेचैनी के लक्षण हैं। यह अलग-अलग कारणों, अलग-अलग चेहरों जैसे लोकल उम्मीदवार से प्रादेशिक नेतृत्व और राष्ट्रीय नेताओं की वजह से उत्पन्न है। बावजूद इसके केंद्रीय चेहरा नरेंद्र मोदी का। इससे कुछ ऐसा हुआ है जो सभी जातियों, सभी धर्मों में किसी न किसी सुगबुगाहट से वानर सेना का रेला बना। बनिया, ब्राह्मण, राजपूत, जाट, जाटव, पासी, आदिवासी, यादव, कुर्मी, कुशवाह, मुसलमान, ईसाई आदि अपने-अपने कारणों से टिड्डी दल की तरह अचानक सक्रिय। और मोदी की सेना हैराना-परेशान। सवाल है क्या इस माहौल से बंगाल, तेलंगाना, ओडिशा, तमिलनाडु, केरल अप्रभावित रहे होंगे? संभव नहीं!

‘इंडिया’ गठबंधन वानर सेना जैसा है। चाहे उसे टिड्डी दल समझें। फिर भी नाक में दम करता हुआ, छोटी-छोटी असंख्य बातों से। लेकिन हर बात लोकतंत्र और संविधान के छाते के नीचे की, उससे जुड़ी हुई। कैसे?

सोचें, यदि अरविंद केजरीवाल से सहानुभूति में दिल्ली-हरियाणा में दस-बीस फीसदी बनियों ने भी भाजपा का खूंटा छोड़ आम आदमी पार्टी को वोट दिया हो तो ऐसा होना किस कारण से? नरेंद्र मोदी ने अपने शासन में केजरीवाल, हेमंत सोरेन और विपक्षी नेताओं के साथ जो किया है वह क्या मर्यादाओं, निष्पक्षता और शोभनीयता को बेरहमी से रौंदना नहीं है? क्या यह लोकतंत्र, संविधान और कानून के दुरूपयोग की कोतवालशाही नहीं है? राजपूत यदि कहीं नाराज हुए हैं तो वह अशोभनीय बयानबाजी से लोगों की मान मर्यादा से खेलना नहीं है? उत्तर प्रदेश, इलाहाबाद, फूलपुर जैसी सीटों से फीडबैक है कि बीस-तीस प्रतिशत ही सही पर ब्राह्मण वोट कांग्रेस-समाजवादी पार्टी की और रूझान लिए हुए हैं तो ऐसा क्यों? मानना चाहिए कि कम संख्या में ही सही, इलाहाबाद में पढ़े-लिखे, सभ्रांत ब्राह्मणों में बुद्धि खुली हुई है न कि भक्ति में बंद। मतलब फॉरवर्ड जातियों में भक्तिधारा के बावजूद बहुतों में यह ख्याल है कि नरेंद्र मोदी का लोकतंत्र-संविधान सम्मत व्यवहार नहीं है। इस तथ्य को भी नोट रखें कि मोदी की एकछत्रता के खिलाफ खुद्दारी के साथ ब्राह्मणों ने ही (विशेषकर सोशल मीडिया में) सर्वाधिक तुताड़ी बजाई है। यदि चुनाव अचानक पलटा है तो चार सौ पार के नारे के मायने की चिंगारी को घर-घर पहुंचवाने वाली तुताड़ी से ही पलटा।

हम औसत वोटर को किसी भी तरह वर्गीकृत करें, मोदी विरोधी वानर सेना में सर्वजनीय भागीदारी है। और वह अखिल भारतीय है। इस वानर सेना का क्या लक्ष्य है? अमर्यादा, मनमानेपन की दुष्टताओं से लोकतंत्र और संविधान को बचाना। असल मुद्दा मर्यादा का है। इसलिए क्योंकि मर्यादा, चेक-बैलेंस है तो संविधान और लोकतंत्र की आत्मा सुरक्षित है। इसलिए ज्योंहि चार सौ पार का नारा बना त्योंहि लोगों में स्वंयस्फूर्त यह विचार हुआ कि इतनी ताकत पा कर नरेंद्र मोदी क्या करेंगे? संघ का क्या एजेंडा है? दस वर्षों के शासन का क्या ट्रैक रिकॉर्ड है? और सोचते-सोचते अपने आप वानर सेना में जान और वह विपक्ष के लिए एक्टिव।

मैंने पहले भी लिखा है कि 2024 का चुनाव विपक्ष नहीं, बल्कि जनता लड़ रही है। और दांव पर क्योंकि लोकतंत्र-संविधान है तो इसमें यदि आरक्षण की चिंता में दलित, आदिवासी, पिछड़े वोट जब यूपी-बिहार में चिंतित हुए हैं तो यह संभव नहीं कि बंगाल, ओडिशा, तेलंगाना, तमिलनाडु के दलित-आदिवासी और पिछड़े मतदाता तक यह चिंता नहीं पहुंची हो। ऐसे ही मुसलमान, किसान तथा महंगाई-बेरोजगारी से बेहाल लोगों का निश्चय भी अखिल भारतीयता में है।

सोचें, इस दलील पर कि गोबर पट्टी में मोहभंग है तो क्या हुआ, बंगाल के भद्र-पढ़े-लिखे, ओडिशा के आदिवासी या तेलुगू-तमिल उपराष्ट़्रीयता वाला मानस और सर्वाधिक शिक्षित मलायली लोग नरेंद्र मोदी को भगवान जगन्नाथ या भगवान अय्यप्पा मान कर इस चुनाव में उनको वोट देंगे! क्या यह मुमकिन है? दो-चार नई सीटें मिलें या ऊपर-नीचे हो यह सामान्य बात है लेकिन चार सौ पार सीटों का मोदी का बेड़ा पूर्वी और दक्षिणी भारत के मतदाताओं से पार लगेगा, यह बेतुका अनुमान है।

मुद्दा मोदी बनाम संविधान है। संविधान में वह सब आता है जो दस वर्षों के मोदी राज के विरोध का सार-संक्षेप है। इससे आदिवासी उद्वेलित है। किसान (भले वह महाराष्ट्र का हो या हरियाणा, पंजाब का), दलित, ओबीसी, नौजवान, मुसलमान आदि वे सब लोग खदबदाए हुए हैं जो इन दिनों जनसभाओं के हुजूम में दिख रहे हैं या सोशल मीडिया में झलकते हैं। किसी विश्लेषक को अध्ययन करना चाहिए कि यूट्यूब, इंस्टाग्राम, फेसबुक, व्हाट्सऐप का पूरा सोशल मीडिया, इनका सभी भारतीय भाषाओं का हल्ला मोदी विरोध लिए हुए है या मोदी भक्ति? हिंदी में यदि मोदी विरोध मुखर है तो बांग्ला, ओडिया, तेलुगू, तमिल, मलायली में है या नहीं?

एक और छोटी मगर अहम बात। इस चुनाव में नरेंद्र मोदी के महाअभियान का आधार क्या था? राममंदिर। रामजी की उंगली पकड़ कर उनके घर में उनकी प्राण प्रतिष्ठा। लेकिन वह मुद्दा आज न मोदी के भाषण में है और न लोगों के ख्यालों में! उसकी जगह क्या है? नरेंद्र मोदी का चेहरा। सब कुछ मोदी के चेहरे पर केंद्रित। वैसे ही जैसे 1977 में था। एक तरफ जब तक सूरज चांद रहेगा, इंदिरा तेरा नाम रहेगा और उनके आगे सौ लंगूरों का विपक्ष (हां, जब इंदिरा गांधी ने उपचुनाव लड़ा था तब नारा था- एक शेरनी सौ लंगूर, चिकमंगलूर, चिकमंगलूर)। मगर सूरज-चांद वाली इंदिरा गांधी के आगे अचानक वानर सेना उठ खड़ी हुई और नारा गूंजा- इंदिरा हटाओ, देश बचाओ।

2024 में शोर है- अबकी बार चार सौ पार तो दूसरी तरफ है- मोदी हटाओ, संविधान बचाओ!

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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