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कोउ नृप होय हमहिं का हानी!

संविधान

हम हिंदुओं की राजनैतिक बुद्धी को तुलसीदासयों ही नहीं बता गए! वक्त जहांपनाह अकबर का हो और आबादी11-15 करोड लोगों की हो या दौपद्री मुर्मू के शासन की मौजूदा 140 करोड लोगों की हो, आम जन कीयह शाश्वत स्थाई फीलहै “कोउ नृप होय हमहिं का हानी’!वजह अनुभवों से बनी मजबूरी का आचरण है। सोचे, भारत के ज्ञात इतिहास में ईसापूर्व सन् 1500 में दिल्ली के खांडवप्रस्थ-इंद्रप्रस्थ से शुरू लोक अनुभवों के अब तक के सिलसिले का क्या लबोलुआब है? क्या यह नहीं कि 3 हजार 523 वर्षों के दिल्ली शासन से कौम, नस्ल का भला कब हुआ जो नागरिक यह न सोचे कि कोऊ नृप होई हमै का हानि, चेरी छाड़ि कि होइब रानी। शासन कोई हो हमें न हानि और न लाभ। मैं दासी या जैसे भी हूं वैसे ही आगे भी रहूंगी। भलाऐसा मत अकबर-जहांगीर के समय दिल्ली से बहुत दूरबनारस में तुलसीदास काकैसे हुआ?

कारण क्या यह माने की उनकी उस राज में चलती नहीं थी, उन्हे नगर कोतवाल और हाकिम गांठते नहीं थेतो लिख दिया कि राजा के आने-जाने से मेराक्या होना है! या कौम-नस्ल की लगातार अवनति, अनुभवों में उनका सोचा-विचारा सुनिश्चित निष्कर्ष था कि राजा और व्यवस्था दोनों धोखेबाज है। इनसे प्रजा का भला होने की बजाय गुलामी, भूख, पराश्रय और असुरक्षाएं बनी रहती है।

सो संभव है है उन्हेनृप, राजा व राजनीति पर लिखने की जरूरत इसलिए हुई क्योंकि उन्हे सैकडों वर्षों से हिंदूओं की सत्ता गुलामी और सत्ता भूख का सत्य बूझा। दरअसल भारत के सत्ता केंद्र दिल्ली का तिलिस्म ही कुछ ऐसा रहा है जो लोकहितकारी राजनीति का आईडिया ही नहीं बना। लोग न बागी हुए। न क्रांतियां हुई और न राजनैतिक विचारक पैदा हुए। लोग या तो रामायण,महाभारत, पुराण कथाओं के कालातीत मनोविश्व में जीते रहे या वर्तमान को कलियुग मान नियति और परलोक की सोच में ढले रहे। न कोई राजनैतिक विचार-दर्शन पैदा हुआ और न प्रयोग औरन व्यवस्था बनी। समाज बना, संहिता बनी। कबीलाई-ग्राम्य-जनपद जीवन की खांप, पंचायत, परिषदों का क्रमिक विकास भी हुआ लेकिन मनुष्य चेतना की स्वतंत्रता, गरिमा और अधिकारों, उसके लिए व्यवस्था, सुरक्षा आदि का कोई राजनैतिक आईडिया और दर्शन नहीं।

इसलिए दिल्ली सल्तनत की धुरी पर हिंदू हमेशा लुटा-पीटा रहा है। वह दिल्ली की सत्ता और खासकर विदेशी शासकों की तलवार का लगातार अधीन रहा है। अधीनता की गुलाम अवस्था में अलग तरह का मनोविज्ञान बना। श्रेष्ठी वर्ग जहां सत्ता और उसकी कृपाओं का भूखा रहा वहीं आम जन उससे दूर इस फलसफे में जीता आया कि कोऊ नृप होई हमै का हानि!

निश्चित ही हिंदू की राजनैतिक समझ में एक तरफ पॉवर की लालसा है तोदूसरी और पॉवर के खौफ, उससे दूर रहने का मनोविज्ञान है। तीसरा पहलू विधर्मियों की सत्ता के कारण धर्मावलंबियों की यह धारणाहैकि जब-जब संकट आता है, अधर्म होता है तो दुष्टों के विनाश के लिए ईश्वर अवतार लेते है। इसी के साथ राजा मतलब ईश्वर। यों बाकि सभ्यताओं में भी राजा के ईश्वर रूप में राजशाही-सामंतशाही पोषित हुई है। मगर दिल्ली में क्योंकि सैकड़ों साल एक के बाद एक विदेशी-विधर्मी सत्तावान रहे तो हिंदू भक्त प्रजा इसी विश्वास में जीने को मजबूर रही कि “यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।

तभी आश्चर्य नहीं जो गांधी ने हिंदू अंर्तमन को अपने से जोड़ने के लिए धर्म कथाओं का सहारा लिया। उन्होने उत्तर भारत में इलाहाबाद को केंद्र बना कर उन जुमलों, उन बातों से उत्तर भारत के हिंदुओं का मर्म छुआ जिससेलोगों में स्वयंस्फूर्त कालातीत मनोविश्व प्रासंगिक हुआ। वे महात्मा, अवतार कहलाएं। और स्वराजतथा रामराज्य से लोग अपने रामजी के राज की कल्पनाओं में खो गए।

विषयांतर हो रहा है। लेकिन ‘कोई राजा बने हमें क्या फर्क’ का निचोड जब गांधी की कमान में बदला और हिंदू रामराज्य की कल्पनासेआंदोलित हुए तो अपनेराज, अपनी राजनीति और अपनेशासन का ब्ल्यूप्रिंट क्या था? कुछ नहीं। संदेह नहीं किअंग्रेजों की संगत से विदेश में पढ़े हिंदू श्रेष्ठी जनों की सुध और कांग्रेस के गठन से हिंदुओं को मनुष्य आजादी की चेतना मिली।उपमहाद्वीप की सभी जातियों, धर्मों, सभी क्षेत्रों, राजे-रजवाड़ों के लोगों को पहली बार बोध हुआ कि मनुष्य आजादी मूल्यवान है। लोकतंत्र से वह स्वशासन और राजनीति संभव है जिससे तमाम तरह के लोग, भिन्नताओं के बावजूद समानता-स्वतंत्रता-भाईचारे सेएक राष्ट्र में जिंदगी जी अपना कुछ बना सकते है। इस चेतना में गांधी के‘रामराज्य’ जुमले का प्रयोग रामबाण था। इससे जन-जन में राजनीति अंकुरित हुई। लोग खासकर हिंदू मानस स्वराज और रामराज्य की बातों मेंअनुभवों से परे कल्पनाओं के रामराज्य को राजनीति के आदर्श मॉडल के नाते दिल-दिमाग में उतारते हुए था। गांधी की बातों से उपमहाद्वीप के भौगोलिक, धार्मिंक, सांस्कृतिक आकार-प्रकार की भिन्नताओं को संबंधों में समेट कर उन्हे एकीकृत शक्ल देने की राजनीति का जादू बना। मतलब राजनीति से दिल्ली में ऐसा स्वराज संभव है जो दिल्ली सल्तनत के इतिहास अनुभव से विपरित होगा। नागरिक खुद नृप होंगेऔर नागरिक जननए सार्वभौम अस्तित्व में अवसरों और स्वतंत्रता को भोगते हुए। हम जगदगुरू होंगे। दुनिया के लिए आदर्शों का रोल मॉडल।

पर गांधी की राजनीति और उसका सपना 1947 से पहले ही देश विभाजन में धाराशायी था। इतना ही नहीं फिर अंग्रेज लार्ड माउंटबेटन ने दिल्ली में अपनी उसी राजनीति, उसी शासन, उसी व्यवस्था को पंडित नेहरू तथा संविधान सभा व संविधान निर्माताओं को ट्रांसपर किया जो सदियों से दिल्ली का सत्ता तिलिस्म है, सत्ता विरासत है। जिसके बोध, जिसकी निरंतरता से दुखी मन तुलसीदास ने लिखा था-“कोउ नृप होय हमहिं का हानी’।

मतलब जो अकबर के वक्त था, मुगलों से अंग्रेजों को ट्रांसफर था वहीं आजादी के बाद स्वदेशी राजाओं को ट्रांसफर। कोतवालों-हाकिमों का व्यवस्थागत तानाबाना। और उसके पंडित नेहरू मानों अवती राजा। जो वे कहे वही सत्य। जो वे करें वही सही। इस बात का ज्यादा मतलब नहीं है कि पंडित नेहरू का वक्त भक्ति काल से कितना भरा-पूरा था और उसकी तुलना में 2023 केअमृतकाल में नरेंद्र मोदी का भक्ति काल कितना सघन है। असल बात नेहरू भारत भाग्य विधाता थे तो नरेंद्र मोदी भी भारत भाग्य विधाता है।

और इसमें नागरिक या तो भक्त है, आश्रित है या भयाकुल और “कोउ नृप होय हमहिं के हानी’ में जिंदगी को घसीटते हुए है। राजनीति या तो जागीदारी में कनवर्ट है या सत्ता की भूख में एक-दूसरे को मारती-काटती हुई है। तभी चुनाव भी रणक्षेत्र बन गए है जिसमें जीतना येन-केन-प्रकारेण जरूरी है।

कोई न माने इस बात को लेकिन यर्थाथ है कि दिल्ली और उसकी सत्ता इक्कीसवीं सदी में भारतीयों की ऐसी नियंता बनी है कि 1947 सेपहलेका अनुभव सामान्य समझ आएगा।यों अकबर का वक्त हो या अंग्रेज गर्वनर-जनरल का, हर वक्त सबकुछ दिल्ली के पॉवर से होता रहा है। दिल्ली की हुकूमत और उसके पॉवर के आगे सबका सरेंडर रहा है। तभी तो अकबर के समय जयपुर राजा मानसिंह ने सत्ता की महतत्ता में दिल्ली की मनसबदारी की वहीं बनारस में तुलसीदास ने “कोउ नृप होय हमहिं का हानी’ लिख आम हिंदू मनोदशा अनुसार सत्ता से किनारा किए रखा। ऐसे ही अंग्रेजों के राज का अनुभव है। राजे-रजवाड़ों ने दिल्ली के महारानी दरबार में अपनी हाजिरी लगवाई तोइसके पीछे मकसद क्या था? दिल्ली सर्वशक्तिवान है तो उसका हुक्म बजाना है। ताकि वे अपने इलाके के सत्तावान बने रहे। इसलिएदिल्ली का गर्वनर-जनरल जो चाहता था वहीं सूबों में रजवाड़ों में होता था। दिल्ली में बैठे हुए गर्वनर-जनरल के आदेश या सलाह से हैदराबाद का निजाम हो या जयपुर के महाराजा, सभी रजवाड़ों में उसी की इच्छा अनुसार रेजिडेंट कमिशनर या प्रधानमंत्री नियुक्त करते थे। और ध्यान रहे ऐसा ही लोकतंत्र के बावजूद कांग्रेस हाईकमान से होता रहा है तो भाजपा हाईकमान में भी होता हुआ है।

जाहिर है लोकतंत्र से उलटे दिल्ली की महिमा, उससे केंद्रीयकरण और रूतबे को नए आयाम मिले है। दिल्ली और अधिक सर्वशक्तिमान बनी है। शासक नए रूप और नाम से नियंता है, अवतार है। नेहरू बतौर प्रधानमंत्री अवतार माने जाते थे। इंदिया गांधी बतौर प्रधानमंत्री दुर्गा मानी गई। वही वीपीसिंह मसीहा थे औरनरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री है, हाईकमान है तो भक्तों के लिए मानों कल्कि अवतार।

तब क्यों न माने कि सारी माया गद्दी की है। कोई तीन हजार वर्षों से दिल्ली का सत्ता तख्त यदि एक की जैसापॉवर तिलिस्म, पॉवरफुल नृप पैदा करता हुआ है तो फिर तुलसीदासजी का यही वाक्य पकड़े रहना ज्यादा सटीक है कि –  कोउ नृप होय हमहिं का हानी!

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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