क्या सही है और क्या गलत? एक तरफ आईने में दिखता लाइव सत्य है तो दूसरी तरफ उसे नकारती भावना, ख्याल, आशंका और स्मृतियां हैं। इंसान लाइव नरसंहार को देख विचलित हो या यह माने कि जैसे को तैसा या ये तो हैं ही इसी लायक! जैसा मैंने पिछले सप्ताह लिखा, अब्राहम की संतानों के तीनों धर्मों में परस्पर घृणा उतनी ही पुरानी है, जितना घृणा शब्द है। इजराइल-यरुशलम-फिलस्तीन की भूमि में पैदा यहूदी, ईसाई और इस्लाम तीनों का सत्य है परस्पर नफरत। इन तीनों धर्मों से चार हजार वर्षों में पृथ्वी पर जितनी लड़ाइयां, क्रूसेड, नरसंहार हुए हैं वैसा कहीं नहीं हुआ है। तभी न ये धर्म परस्पर हिंसा से तौबा करते हैं और न नरसंहार से पसीजते हैं। दया और करुणा जैसा कुछ नहीं।
इसलिए सात अक्टूबर को हमास ने यहूदियों को निर्दयता से मारा तो मुसलमानों में पश्चाताप नहीं दिखा। और अब इजराइल गाजा पट्टी को भुन दे रहा है तो यहूदी और ईसाई शर्मसार नहीं दिख रहे हैं। इसलिए क्योंकि आदि काल से इनके दिल-दिमाग में गांठें हैं कि वे तो बर्बर हैं, उनके साथ ऐसा ही सलूक होना चाहिए। यहूदी ऐसे हैं, मुसलमान ऐसे हैं, ईसाई ऐसे हैं के पीढ़ी-दर-पीढी बोध ने तभी मनुष्य को बार-बार इंसान से नरभक्षी हुआ दिखलाया है। ऐसे में वे लोग क्या करें जो मानवतावादी हैं? क्या वे भी साक्षात सत्य की अनदेखी करें? उसकी जगह भावना और इतिहास की वजह से वे लाइव बर्बरता की तरफदारीकरें? हमास की बर्बरता के आगे यदि इजराइल बर्बर है तो वह सही है, गाजा को भुन देना चाहिए!
मैं पत्रकार हूं। और सभ्यताओं के संघर्ष में यहूदियों-इजराइलियों का इसलिए पक्षधर रहा हूं क्योंकि ज्ञात इतिहास की दास्तां में वे सचमुच अन्याय, ज्यादतियों के भुक्तभोगी रहे हैं। अब्राहम के वंशजों में जो आदि धर्म था वह अपने ही वंशज ईसाई व इस्लाम की घृणा और अत्याचारों का मारा रहा है। इतना ही नहीं 1948 में इजराइल के गठन के बाद भी वे चारों तरफ से अरब मुसलमानों से घिरे रहे हैं। मानों यहूदियों की स्थायी नियति है जो वे पीढ़ी-दर-पीढ़ी घृणा और आंतक में जीयें।
मैं यहूदियों की जिजीविषा का कायल हूं। सहस्त्राब्दियों बेघर और दर-दर भटकते हुए, नफरत-हिकारत तथा हिंसा के शिकार होते हुए भी यहूदियों ने अपनी आस्था नहीं छोड़ी। अपने को संघर्षों में तपाया और निखारा। विपरीत परिस्थितियों में जीते-जीते यहूदियों की बुद्धि लगातार पकती और खिलती गई। तभी यूरोपीय पुनर्जागरण के बाद अल्पसंख्या के बावजूद यहूदियों का पुरुषार्थ-ज्ञान-विज्ञान-आधुनिकता में उनका अपूर्व योगदान बना। इजराइल ने भी अपने निर्माण के बाद कुछ ही दशकों में गजब विकास और सफलताओं की कीर्ति बनाई।
वह सब अब गड़बड़ाता हुआ है! कैसे? जवाब में जरा सोचें, यहूदी इतिहास की मुख्य ग्रंथि क्या है? मोटा-मोटी ईसाइयों और मुसलमानों द्वारा उनके प्रति धारी हुई या बनवाई नफरत! इसकी वजह से वे अपनी मातृभूमि से बेदखल हुए। एशिया-यूरोप में भटके। सभी महाद्वीपों में या तो हाशिए के तिरस्कृत-अछूत रहे या प्रताड़नाओं के शिकार!
उस नाते हिटलर का नस्लीय नरसंहार यहूदी इतिहास का टर्निंग प्वाइंट था। उससे वैश्विक जनमत शर्मिंदा हुआ। यहूदियों के प्रति वैश्विक करुणा पैदा हुई।तभी महायुद्ध खत्म होने के बाद मित्र देशों में यहूदियों का एक राष्ट्र बनाने का संकल्प हुआ। यों इस बात में दम है कि अमेरिका-ब्रिटेन-फ्रांस याकि ईसाई सभ्यता की प्रतिनिधि जमात का यह फैसला भी एक दांव था। इसलिए क्योंकि यहूदियों का देश मुस्लिम आबादी के बीच बना। ताकि यहूदी बनाम मुस्लिम की परस्पर नफरत का नया स्थायी अखाड़ा बने। यहूदियों से ईसाइयों की जन्मजात लड़ाई बैकग्राउंड में दब जाए। सभ्यताओं के संघर्ष में इस्लाम के खिलाफ इजराइल पश्चिमी सभ्यता का स्थायी प्यादा या मोहरा रहे।
बहरहाल, असल बात 1948 से पहले यहूदियों का वैयक्तिक जीवन नफरत का शिकार था। यहूदी निज जीवन में अकेले या टोले-बस्ती के घेटो में जीते हुए संघर्ष करते थे। हिटलर ने नस्ल को ही खत्म करने का जब वीभत्स अभियान चलाया तो मानवीय संवेदनाओं का वैश्विक सैलाब बना। नतीजतन इजराइल का गठन हुआ। यहूदियों के लिए देश बना। यहूदियों को पहली बार बतौर राष्ट्र-राज्य सामूहिक, जिंदगी जीने की सार्वभौमता भरी एक चारदिवारी मिली।
कह सकते हैं नस्ल को तब नफरत और घृणा सेमुक्ति मिली। 75 वर्षों के इजराइली सफर के आधार पर यह भी कह सकते हैं कि दुनिया में उसका मान हुआ। यहूदियों के प्रति विश्वास और सम्मान बना। उस नाते मानना गलत नहीं होगा कि इजराइल के 75 साल यहूदी धर्म, नस्ल और समाज का मानों एक गौरवपूर्ण कालखंड। लोकतंत्र, विकास, आधुनिकता, शूरवीरता, निडरता और ज्ञान-विज्ञान-तकनीक सभी में इजराइल और उससे यहूदियों की प्रतिष्ठा बनी। घृणा की जगह प्रशंसा ने ली। नफरत की बजाय रूतबा और इजराइल राष्ट्र वैयक्तिक यहूदी जीवन का संरक्षक, रक्षक का गारंटीदाता हुआ।
1947 में आजाद हिंदुओं के भारत और 1948 में यहूदियों को मिले इजराइल का बेसिक फर्क यह है कि इजराइल में नागरिक स्वयंभू-सार्वभौम जिंदगी जीते आए हैं। वहां नागरिक और उसके अधिकार पहले हैं। सरकार और सत्ता हमेशा उत्तरदायी रही है, जबकि आजाद भारत में सरकार75 वर्षों से हम हिंदुओं पर वैसे ही शासन करते हुए है, जैसे अंग्रेज करते थे। भारत में सरकार जहां हिंदुओं की माई-बाप है वही इजराइल में यहूदियों की स्वतंत्रता सर्वोच्च है और सरकार जवाबदेह। तभी वहां हर नागरिक देश की रक्षा की खुद ट्रेनिंग लिए होता है। वहा सरकारें आती-जाती व पार्टियां बनती-बिगड़ती रहती हैं। हमास का आतंकी हमला हुआ तो देश का हर नौजवान सेना की ड्यूटी के लिए लाइन पर लगा हुआ था। सभी पार्टियां, सारा मीडिया एक सुर में यहूदी भावना व्यक्त करता हुआ था। इसलिए क्योंकि बच्चा-बच्चा यह जाने हुए है कि अपना घर होने, अपना देश होने का उनकी नस्ल, धर्म, कौम में क्या अर्थ है?
वह सब बदलना शुरू हुआ बेंजामिन नेतन्याहू के प्रधानमंत्री बनने के बाद से। उनकी सत्ता भूख ने इजराइल को बदला। और वक्त निश्चित ही यह प्रमाणित करेगा कि नेतन्याहू ने प्रधानमंत्री बने रहने की जिद्द में वे गलतियां कीं, जिससे इजराइली समाज में पुराना इतिहास फिर सुलगने लगा। हिसाब से ओस्लो करार या लिकुड पार्टी के बेगिन और यासिर अराफात में समझौता प्रमाण है कि नेतन्याहू से पहले यहूदी और फिलस्तीन सह-अस्तित्व की और बढ़ते हुए थे। इजराइल याकि यहूदी लोग फिलस्तीन देश का मूड बनाते हुए थे। अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर, बिल क्लिंटन, ओबामा आदि ने दो देश की भूमिका बना दी थी। लेकिन नेतन्याहू ने अपनी सत्ता के लिए उन कट्टरपंथी धड़ों, छोटी पार्टियों की मनमानी बनाई, जिनका इलहाम समूची पवित्र भूमि की मुक्ति का है। तभी फिलस्तीन बस्तियों को खाली करा कर जोर-जबरदस्ती नए सेटलमेंट का वह सिलसिला चला,जिससे नफरत, आतंक, हमास और हिजबुल्ला सबको पंख मिले। यह भी रियलिटी है कि 2023 की शुरुआत से समझदार यहूदी नागरिकों के इजराइल छोड़ कर विदेश जा बसने का ट्रेंड था। नेतन्याहू और उनके कैबिनेट की मनमानी से यहूदियों में ऐसा मोहभंग हुआ कि लोग यूरोप, अमेरिका लौटते हुए थे। सबको पता है कि सुप्रीम कोर्ट के अधिकारों को कम करने की नेतन्याहू व उनके कट्टरपंथी मंत्रियों के बनवाए विधेयकों से कई यहूदियों में माना जाने लगा कि इजराइल अब रहने लायक नहीं रहा। लोग बंटे और व्यवस्था भी लापरवाह बनी।
शायद तभी इजराइली खुफिया एजेंसियों को भनक भी नहीं लगी और सात अक्टूबर 2023 को हमास ने यहूदी दिवारों, नाकेबंदी को तोड़ वह आतंक बनाया कि पहले तो पूरी दुनिया यही सोच कर दहली कि भला इजराइल कैसे इतना लापरवाह! और उसके 22 दिन बाद अब स्थिति? इजराइल न बंधकों को छुड़ा पाया है और न वैश्विक जनमत उसके साथ है। उलटे न्यूयॉर्क, लंदन से लेकर पेरिस आदि उन सभी जगह इजराइल के खिलाफ प्रदर्शन हो रहे हैं, जहा यहूदियों की तूती बोलती है। वैश्विक टीवी चैनलों याकि ‘बीबीसी’, ‘सीएनएन’ और ‘अल जजीरा’ तीनों की गाजा की कवरेज में फर्क के बावजूद यह निष्कर्ष साफ है कि दुनिया में एंटी सेमेटिक याकि यहूदियों के खिलाफ भावना का लावा वापिस चौतरफा फैल रहा है।
हां, इजराइल और यहूदी अब विलेन करार हैं। संयुक्त राष्ट्र में पास हुए प्रस्ताव के मतदान पर गौर करें। इजराइल का साथ देने की बजाय फ्रांस, ब्रिटेन भी अमेरिका के साथ खड़े नहीं थे। अमेरिका की लीडरशीप में सिर्फ 14देशों ने प्रस्ताव का विरोध किया। जबकि गाजा पर इजराइली हमले को रूकवाने की मांग के पक्ष में 120 देशों ने वोट किया। 45 देश तटस्थ रहे जिनमें भारत भी एक था।
सो, क्या लगता नहीं कि यहूदी फिर उस वक्त में लौटते हुए हैं जब उनके खिलाफ नफरत, घृणा आम थी? क्या इसके मायने प्रधानमंत्री नेतन्याहू, उनकी वॉर कैबिनेट, यहूदियों के वैश्विक थिंक टैंकों को समझ में नहीं आ रहे होंगे? निश्चित ही हमास को, आतंकियों को खत्म करना इजराइल की प्राथमिक जरूरत है।बावजूद इसके यह सवाल तो अपनी जगह है कि इजराइल लापरवाह क्यों पाया गया? दूसरी बात, हमास को खत्म करने का रास्ता क्या पूरे गाजा और 23 लाख फिलस्तीनियों पर बमबारी का ही है? टीवी चैनलों, सोशल मीडिया से सब लाइव होने का जब जमाना है तो इजराइल द्वारा घर बैठे वैश्विक बदनामी को न्यौतना कौन सी अक्लमंदी है? और इस एप्रोच से आतंकी खत्म होंगे या आतंकियों की भावी पीढ़ियां बनेंगी?
कुल मिलाकर लगता यही है कि अब्राहम के धर्मों की नियति है जो कैसा भी वक्त हो लेकिन नफरत की फसल और उसकी लड़ाइयां रूक नहीं सकती!