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युद्ध से न अब जीत,न हार!

सच्चाई है पर अविश्वसनीय! इजराइल लाचार और फेल। पचास दिन हो गए है न हमास को इजराइल खत्म कर पाया और न वह बंधकों का पता लगा पाया। मजबूर हो कर उसने लड़ाई रोकी, और वह हमास से सौदेबाजी के साथ बंधकों व कैदियों की अदला-बदली कर रहा है। सवाल है पचास दिनों में इजराइल को क्या हासिल हुआ? यदि तटस्थता से सोचे तो पहली बार यहूदियों और इजराइल की चौतरफा बदनामी है! सिर्फ बीस किलोमीटर का एक इलाका और 20-22 लाख फिलीस्तीनी आबादी में से वह अपने बंधकों और हमास की लीडरशीप को ढूंढ नहीं पाया है तो इससे जहां इजराइली खुफियांगिरी की  पोल खुली है वही इजराइली सेना की असमर्थता और लाचारगी भी प्रमाणित है। साथ में बडा निष्कर्ष यह कि कोई कितनी ही मिसाइले घनी शहरी बस्तियों पर दांगे, बमबारी से शहरों को खंडहर बना दे लेकिन अपेक्षित सैनिक लक्ष्य अब वैसे प्राप्त नहीं हो सकते है जैसे बीसवीं सदी में हुआ करते थे। यह सत्य गाजा पट्टी से जाहिर है तो यूक्रेन के शहरों पर रूसी बमबारी से भी साबित है।

सोचे, दो वर्षों में टीवी चैनलों पर दुनिया ने यूक्रेन और गाजा पट्टी पर बमबारी और विनाश की कैसी-कैसी भयावह तस्वीरें देखी मगर क्या यूक्रेनी लोगों का हौसला टूटा? क्या फिलस्तीनी लोगों के चेहरें तौबा करते दिखलाई दिए? क्या रूसी सेना और पुतिन को यूक्रेन पर हमले से सैनिक और राजनैतिक लक्ष्य हासिल हुए? क्या इजराइल के सत्ताखोर और अकड़ू प्रधानमंत्री नेतन्याहू और उनका वॉर केबिनेट जीत का दांवा कर सकता है?

सचमुच रूस और इजराइल दोनों का सैनिक महाबल लाचार और बेमतलब प्रमाणित है। न यूक्रेन पर रूस का कब्जा हुआ है और न होने वाला है तो इजराइल भी हमास को खत्म नहीं कर सकता। उत्तरी गाजा को बरबाद करने, चप्पे-चप्पे को तलाश लेने के बावजूद इजराइल अपने बंधकों का पता नहीं लगा पाया। न ही हमास के लड़ाकों या लीडरशीप को मार या पकड सका। वह वैश्विक कूटनीति के जरिए अपने बंधकों को छुड़ा रहा है और बदले में अपनी जेलों में बंद फिलीस्तीनी कैदियों को अधिक संख्या में छोडता हुआ है। हमास के नकाब पहने लड़ाके (या चाहे तो आंतकी माने) रेडक्रास को जैसे यहूदी बंधकों को सुपुर्द करते दिखे है वे न केवल सशस्त्र है बल्कि अपने समय, अपनी शर्तों व प्लानिंग से सबकुछ करते हुए है। सीधा अर्थ है कि भयावह तबाही और सबकुछ चौपट होने के बावजूद गाजा में फिलीस्तीनियों का नेतृत्व हमास का बना रहेगा।

तो पचास दिन के इजराइली सैनिक अभियान से ग्राउंड रियलिटी क्या बदली है? शहर जरूर खंडहर हो गए है लेकिन न हमास खत्म हुआ है और न आम फिलीस्तीनी में हमास के खिलाफ यह गुस्सा या यह विद्रोह है कि ये हमारी तबाही के लिए जिम्मेवार। बरबादी के लिए दोषी। इन्हे हम पकडवाएंगे। ऐसें युद्ध उन्मादियों से अब हम पिंड छुड़ाएंगे।

सवाल है सभी बंधकों की रिहाई के बाद इजराइल के प्रधानमंत्री नेतन्याहू और उनका वॉर केबिनेट क्या और बड़े पैमाने पर गाजा के चप्पे-चप्पे को खोद डालेंगा, आंतकियों को मिटा कर ही दम लेगा? संभव नहीं है। उलटा होना है। इसलिए क्योंकि गाजा के भीतर तथा वेस्ट बैंक, अरब-खाडी देशों और वैश्विक नैरेटिव में इजराइल ने आठ अक्टूबर के बाद से अपनी जो तस्वीर, अपनी इमेज बनाई है उसके चलते गाजा को पूरी तरह अधिनस्थ करना, उसे ओपन जेल बनाना या इन तरीकों से अपने को सुरक्षित बनाना संभव नहीं है। हमास के आंतकी हमले के बाद दुनिया में इजराइल के प्रति सहानुभूति-संवेदना थी। हमास को मिटाने, बदला लेने के तैंवर, कार्रवाई में भी दुनिया साथ थी। लेकिन राजनैतिक-खुफिया और सैनिक लीडरशीप की यह नाकामयाबी थी जो इजराइल ने गाजा में हमास के ठिकानों को बिना चिंहित किए अंधाधुन बमबारी की। रिहायसी इलाकों, स्कूल, अस्पतालों और नागरिक सेवाओं के तमाम केंद्रों पर।  मानों वह  आम फिलीस्तीनी आबादी से बदला ले रहा हो। इजराइल की कार्रवाई से यह फर्क नहीं झलका कि वह सिविल आबादी पर नहीं बल्कि आंतकी ठिकानों को निशाना बना रहा है। इससे पूरी दुनिया में इजराइल जवाबदेह है तो यहूदी समुदाय न्यूयार्क से लेकर लंदन सभी और नफरत के शिकार होते हुए है।

इसलिए न जीत और न लड़ाई का अंत। इजराइल कुछ भी कर लें उसकी ‘आंतक के खिलाफ लड़ाई’ का हश्र वहीं होना है जिसका अनुभव अमेरिका को हुआ है। अफगानिस्तान, इराक या उत्तर-पूर्व के अफ्रीकी देशों को हुआ है। कह सकते है कि युद्ध लडकर 21वीं सदी में देश-कौम, सभ्यताओं की राजनीति नहीं सध सकती। इजराइल बनाम हमास के युद्ध का अलग नेचर है तो रूस-यूक्रेन लडाई का अलग। पर दोनों के  मूल में राजनीति है। रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने विश्व राजनीति में यह फितूर पाला था कि पश्चिमी देश और नाटों ताकतवर होते हुए है। सो अपने अंहम में उन्होने रूस की सुरक्षा में विस्तारवादी आईडिया बनाए। क्रीमिया पर कब्जा किया और फिर यूक्रेन पर निशाना साधा।

हां, राजनैतिक प्रतिस्पर्धा देश के भीतर हो या देशों के बीच, आम तौर पर पानीपत के मैदान नेताओं के अंहकार में बनते है। ऐसा पिछली सदी में भी था तो इक्कीसवीं सदी में भी है। बीसवीं सदी में नेताओं और देशों में जमीन की लड़ाई को लेकर महायुद्ध हुए। बाद में परमाणु हथियारों के विकास के बाद वैचारिक प्रतिस्पर्धा और ईगो के शीतयुद्ध में झगडे थे। पर सोवियत संघ के ढह जाने के बाद वैचारिकता खत्म हुई तो धर्म की कबीलाई लडाईयों का वक्त लौटा। अल कायदा के अमेरिका पर 9/11 हमले के बाद तो कई जगह, अफगानिस्तान से लेकर इराक में एक के बाद एक उन्मादी लड़ाईयां हुई।

अमेरिका और पश्चिम के सभ्य समाजों ने हर संभव कोशिश की, साम-दाम-दंड-भेद से अफगानों को सभ्य बनाने में अरबों डालर फूंके लेकिन अंत नतीजा अमेरिका का कबीलाई बीहड से भागना था।

साफ है कि युद्ध अब बिना जीत के घसीटते है। मकसद प्राप्ति के बिना सैनिक लड़ाईयां फुस्स होती है। सालों से सीरिया में लड़ाई चल रही है। यमन में इलाके बंटे हुए है। सूडान में लड़ाई चल रही है। न कोई जीत रहा है और न हार रहा है। अज़रबैजान ने नागोर्नो-काराबाख इलाके पर कब्जा कर अर्मेनियाई लोगों को बाहर निकाल किया तो कही कोई हल्ला नहीं। ऐसे ही सूडान, माली, अम्हारा, नाइजर, नाइजीरिया, सोमालिया से ले कर म्यांमार में गृह युद्ध या धर्म आधारित कबिलाई सशस्त्र लड़ाईया लड़ी जा रही है, लोग मर रहे है तो मरे किसे चिंता है।  पश्चिम एशिया हो या दक्षिण चीन सागर और उत्तर-पूर्वी अफ्रीका में ऐसे कई हॉट-स्पॉट बने हुए है जिसमें चिंगारियां भडकती रहती है लेकिन ˈकॉन्‌फ़्लिक्‍ट्‌ मेनेजमेंट’ के जुमले में कभी जो कूटनीति हुआ करती थी वह अब विश्व राजनीति में इसलिए बेमतलब हुई पड़ी है क्योंकि चीन और रूस तो अलग ही नई व्यवस्था बनाने के जुगाड में है।

दुनिया एक गांव में परिवर्तित है। इजराईल-हमास, रूस-यूक्रेन की लड़ाई टीवी चैनलों, सोशल मीडिया से घर-घर लाइव है। बावजूद इसके सभी देश क्योंकि अपनी-अपनी चिंताओं, समस्याओं और पंगों में उलझे हुए है तो अंदरूनी और पडौस से विवाद का प्रबंधन भी प्राथमिकताओं से बाहर है। जैसे भारत और चीन दोनों की सेनाएं आमने-सामने अड़ी हुई है। मणिपुर में जनजीवन दो हिस्सों में बंटा हुआ है लेकिन क्या विवाद प्रबंधन की कोई गंभीर कोशिश होते हुए है? ऐसे ही पडौसी देश म्यांमार कई तरह के झगड़ों में फंसा हुआ है और लगातार अशांत है पर न फौजी शासकों की ताकत असरकारक है और न विद्रोही, बागी कुछ हासिल करते हुए है। मानों मजबूरी है ल़ड़ना। फिर भले कुछ हासिल न हो।

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By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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