सोचना संभव नहीं है पर देखना तो है! और हाल में दिखा क्या बतलाता है? भारत तांबा है सोना नहीं! यदि ओलंपिक में लौह पदक होते तो वे भी हमारे हिस्से ज्यादा आते! चार साल में ओलंपिक, हर वर्ष नोबेल समारोह, हर वर्ष ऑस्कर से लेकर श्रेष्ठ साहित्यिक कृतियों के नामांकन से ले कर विज्ञान अनुसंधान की खोज की उपलब्धियों का जो सालाना लेखाजोखा सुनने को मिलता है तो कम से कम यह भान होना चाहिए कि हमारे स्वर्णिम काल के कहां-क्या लक्षण है? हाल में यह भी सुना था कि बांग्लादेश में हिंदूओं पर हमले हुए, उन्हे जान-माल के लाले पड़े है। लेकिन भारत महाशक्ति में इतनी भी कुव्वत नहीं जो बेघर हुए या भयाकुल हिंदू बांग्लादेशियों को शरण दें। विश्व राजनीति तो दूर पडौसियों की राजनीति में भी भारत मुंह की खाते हुए है। यदि विश्वशक्ति है तो इनता प्रमाणित तो होना चाहिए हम ओलंपिक के दस टॉप देशों में हो। या बाकि वैश्विक प्रतिमानों में टॉप पच्चीस में भारत भी एक हो। भारत विश्व की फैक्ट्री हो, सेवा क्षेत्र का सिरमौर हो। या भारत की आर्थिकी यह दमखम बतलाती हुई हो जो वह ओलंपिक खेलों की मेजबानी करें या अपने 120 करोड़ लोगों की खैरातों से गुजर रही अपमानभरी जिंदगी को यूनिवर्सल इनकम योजना (या सोशल सुरक्षा गारंटी) जैसा छाता मिले।
तभी स्वतंत्र भारत का सबसे बड़ा सार्वजनिक फ्राड़ है जो हर साल लालकिले से प्रधानमंत्री भाषण दे कर लोगों को सुनहरी उपलब्धियों और स्वर्णिम काल का झासा देते है और भीड़ तालियां बजाती है!
न भीड़ को भान है और न उसकी सरकार और राष्ट्र-राज्य के तंत्र को भान है कि स्वर्णिम काल क्या होता है? ईमानदारी से सोचे, क्या भारत के 140 करोड़ लोग स्वर्णिम काल का सुख भोग रहे है? क्या हमारी बुद्धी इतनी चौपट हो गई जो कास्यं बनाम सोने के फर्क का भी बोध नहीं!
महर्षि अरविंद ने कभी हम भारतीयों को समझाते, चेताते हुए लिखा था- किसी भी महान देश का बौद्धिक पतन हमेशा इन्ही तीन गुणों के क्षरण से आरंभ होता है- विवेकपूर्ण विचार करने की क्षमता, तुलना और विभेद करने की क्षमता तथा अभिव्यक्ति की क्षमता।.. जब इनकी तुलना में या इनकी जगह समाज और देश यह मान बैठता है कि ढेर सारी जानकारी एकत्र करना ही पर्याप्त है तो वह पतन का प्रारंभ।
फिर महर्षि ने लिखा है -भारत ने अब तक जो भी खोया हो, हमने अपनी बौद्धिक सजगता, तेजी और मौलिकता को बचा कर रखा है। किंतु यह अंतिम उपहार भी वर्तमान व्यवस्था में खतरे में आ गया है। और यदि यह चली जाती है तो यह अपूरणीय पतन और हमारी आमूल समाप्ति का आरंभ होगा।
जाहिर है महर्षि अरविंद के ये विचार स्वतंत्रता के तुंरत बाद देश की बनती दशा-दिशा और व्यवस्था व सोच के संदर्भ में थी। इसलिए जवाहर लाल नेहरू से ले कर नरेंद्र मोदी के 78 साल के वर्षों में कौम की विवेकपूर्ण विचार करने की क्षमता, दूसरे देशों और सभ्यताओं से अपनी तुलना की क्षमता और फिर उससे विभेद में अपनी वास्तविताओं को समझने की बुद्धीमतता, बौद्धिक सजगता तथा बौद्धिक तेजी का लगातार वह क्षरण सचमुच है जिससे हमें इस सत्य का भी अर्थ भी बूझता नहीं कि पेरिस ओलंपिक में भारत 71वें स्थान पर है तो इसका क्या अर्थ है? और ऐसा होना क्या 140 करोड़ लोगों के स्वर्णकाल का प्रतीक है? इतना ही नहीं इस साल के सबसे बड़े भारत संकट बांग्लादेश पर क्या माने? मैंने कही पढ़ा नहीं (भारत सरकार, विदेश मंत्रालय, सुरक्षा एजेंसियों में तो खैर सवाल ही नहीं) है कि भारत के किसी बौद्धिक, शोध प्रतिष्ठान, मीडिया हाऊस से या भाजपा-संघ की कथित हिंदूहितकारी संस्था ने यह पेपर लिखा हो, यह चेतावनी दी हो कि शेख हसीना वाजेद की एक ही टोकरी में अपने सभी अंडे रखने से भारत भविष्य में सब गंवा सकता है।
कोई न माने इस बात को लेकिन मेरा मानना है कि मोदी सरकार द्वारा शेख हसीना वाजेद की तानाशाही को सरंक्षण देने की बड़ी वजह अदानी का धंधा था। इसकी गहराई जाननी हो तो इस सच्चाई को जाने कि बांग्लादेशी हिंदुओं की रक्षा के लिए हस्तक्षेप, भयाकुल-भागे हिंदुओं को भारत में शरण देने में मोदी सरकार ने सार्वजनिक तौर पर अभी तक कुछ नहीं किया है लेकिन बांग्लादेश में तख्ता पलट से अडानी समूह को संभावी नुकसान से बचाने के लिए भारत सरकार ने तुरंत निर्णय किया। ऊर्जा मंत्रालय ने 12 अगस्त को ही उस विद्युत निर्यात नियम में यह संशोधन कर डाला कि अडानी समूह बांग्लादेश को निर्यात वाली बिजली भारत में बेच सकता है। ध्यान रहे सन् 2018 में भारत सरकार ने विद्युत निर्यात नियमों के तहत अडानी के झारखंड के गोड्डा प़ॉवर प्लांट के ही लिए शत-प्रतिशत बिजली निर्यात का नियम बनाया तो अभी जैसे ही बांग्लादेश में गडबडी हुई तो अदानी के ही लिए पहले बने नियम को जल्द बदला ताकि जो प्लांट पहले सारा उत्पादन बांग्लादेश को बेचने के लिए अनुबंधित था वह भारतीय ग्रिड से जुड देश के भीतर बिजली बेच सकें।
तो स्वर्णकाल किसका? न भारत के हिंदुओं का और न बांग्लादेश के हिंदुओं का। वह है अंबानी और अदानी का। भारत के क्रोनी पूंजीवादियों का! जिन्हे लेकर वैश्विक संस्थाओं का यह दो टूक आंकड़ा है कि भारत में गरीब बनाम अमीर की असमानता सुरसा की तरह बढ़ती हुई है। भारत की आबादी के दस प्रतिशत लोगों के पास कुल राष्ट्रीय संपत्ति का 77 प्रतिशत हिस्सा है। और जो नई एसेट व संपत्ति बन रही है उसका 73 प्रतिशत हिस्सा तो भारत के सबसे अमीर एक प्रतिशत (मुख्यतया 119 अऱबपती) लोगों के पास इकठ्ठा हो रही है। जाहिर है भारत में 140 करोड लोग अमीरी-गरीबि की जैसी भयावह असमानता में जी रहे है वह वैश्विक रिकार्ड है, मानवता का कलंक है!
तो किसका स्वर्णकाल? कैसा स्वर्णकाल? सोचे, 116 अरबपतियों और उनके संग के करोडपतियों, मालदार, उच्चमध्यवर्गीय 15 करोड़ लोगों की आबादी की अमीरी के नीचे के 125 करोड गरीब भारतीयों की नारकीय जिंदगी के अंतर पर! लेकिन देश की बुद्धी, नैरेटिव, प्रधानमंत्री के लालकिले के भाषण आदि कहीं भी आर्थिक असमानता का यह मुद्दा चिंता लायक नहीं है। दरअसल भारत के प्रधानमंत्री मुद्दे पर नहीं बोलते बल्कि सपने दिखाते है। स्वर्णिम भारत, विकसित भारत, एक भारत-श्रेष्ठ भारत आदि-आदि! सवाल है क्या कांस्य पदक श्रेष्ठ भारत है? क्या अमीरी-गरीबि का विकराल अंतर श्रेष्ठ भारत है? क्या पड़ौस में हिंदुओं की पिटाई समर्थ भारत का प्रमाण है? पूरी आर्थिकी में, पूरे बाजार में आज चाईनीज वस्तुओं और उसकी घटिया मशीनरी व तकनीक का बोलबाला है। क्या यह आत्मनिर्भर भारत का साक्ष्य है?
सच्चाई और मुद्दे भारत की गर्वनेश में मतलब नहीं रखते है। इसलिए क्योंकि गर्वनेश अमीर-कुलीन वर्ग से है जबकि जनता महज एक भीड़। भारत वह बिरला देश है जहां नागरिकों को भीड़ की तरह हैंडल किया जाता है। लालकिले से प्रधानमंत्री अपनी भीड़ को संबोधित करते है। यह भीड़ क्योंकि वोट है और भारत में वोट जिस मनोवृति में गिरा करते है तो उसके मद्देनजर प्रधानमंत्री, शासन, राजनीति, नेतृत्व के दिमाग में सिर्फ आरक्षण, जाति जनगणना, रैवडियों, सब्सिड़ी, भत्ता और नौकरी मुद्दा होंगे। परिणामत बार-बार लगातार दशकों से भीड़ को उल्लू बनाना कि हम देंगे आरक्षण, पैसा, राशन। फंला-फंला को फंला-फंला देंगे। हां, नरेंद्र मोदी के बाद यदि मल्लिकार्जुन खड़गे या राहुल गांधी का लालकिले से भाषण का मौका बना तो वे भी इंदिरा गांधी की गरीबी हटाओं की लीक में ही घोषणाएं करते हुए होंगे।
मैं कई बार सोचता हूं कि प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने लालकिले के प्राचीर से भाषण देने का फैसला भले ऐतिहासिक इमारत की वजह से किया हो लेकिन उन्होने भी सिलसिला लालकिले के मुगल बादशाहों की तासीर में बनाया। लालकिले का बादशाह भी जवाबदेह नहीं था। वह अपनी गद्दी, अपने स्वार्थों में साम, दाम, दंड, भेद में या तो राजनीति करता था या लूटता और लूटाता था। वह अपनी शान बघारता था। आश्चर्य नहीं जो 1962 में चीन से हारने के बाद 15 अगस्त 1963 के भाषण में नेहरू उपलब्धियों का नगाड़ा बजाते हुए थे तो बांग्लादेश में भारी झटके और हिंदुओं की दुर्दशा के बावजूद नरेंद्र मोदी लोगों को स्वर्णिम काल के सुनहरे दिनों का सपना दिखाते हुए थे।
महर्षि अरविंद ने ठिक चेताया था कि, भारत ने अब तक भले जो भी खोया हो, पर उसे अपनी बौद्धिक सजगता, तेजी, और मौलिकता से बचाए रखा लेकिन यह अंतिम उपहार भी वर्तमान व्यवस्था में खतरे में आ गया है.और यदि यह चली जाती है तो यह अपूरणीय पतन और हमारी आमूल समाप्ति का आरंभ होगा।
और अपूरणीय पतन सचमुच है। भारत वह भीड़ है जो भीड़ की चरित्रगत प्रवृति में अब भेड़ चाल में ही जीने को शापित है तो नागरिकों के वेयक्तिक जीवन में वह कुछ है ही नहीं जिससे वह दिमाग में यह ख्याल भी बनाए कि हम प्रस्तर काल में है या लौह काल में या कास्यं काल या स्वर्णिम काल में? वह विभेद नहीं कर सकता। प्रधानमंत्री ने लालकिले से कहां स्वर्णिम काल है तो लुटियन दिल्ली का भी वह नैरेटिव है और पूरे देश में तो यह नगाड़ा है ही कि बादशाहजहां से स्वर्णिम काल है। अब यदि बादशाह के आगे भीड़ है और पीछे लालकिले की व्यवस्थाएं है तो यह क्या बुद्धी की आमूल समाप्ति का क्या काल नहीं है?