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भारत के लोकतंत्र व चुनाव निष्पक्षता पर अमेरिका नहीं बोलेगा तो क्या रूस बोलेगा?

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जिस प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमेरिका में जा कर नारा लगवाया कि अबकी बार ट्रंप सरकार, वे और उनके विदेश मंत्रालय के कारिंदे इन दिनों अमेरिका, जर्मनी को नसीहत दे रहे हैं कि संप्रभु भारत के अंदरूनी मामले में इनका टांग अड़ाना निंदनीय है। जिन नरेंद्र मोदी ने अमेरिकी संसद में जा कर भारत के कथित ‘मदर ऑफ डेमोक्रेसी’ जुमले पर अपना ढिंढोरा पीटा और जिन्होंने चुनाव से पहले केजरीवाल आदि विपक्षी नेताओं को जेल में डाला है, कांग्रेस का चुनावी फंड जब्त कराया है वे चाहते हैं कि उनके चुनावी बेईमानीवाले इन कामों को दुनिया लोकतंत्र का कंलक न माने तथा अमेरिका, जर्मनी बोले नहीं तोऐसा दुनिया के लोकतंत्रवादी तो करने से रहे। तब मोदी, उनके विदेश मंत्री जयशंकर क्यों नहीं पुतिन या शी जिनफिंग से सर्टिफिकेट लेंते है कि नरेंद्र मोदी तो हमारे जैसे सच्चे लोकतंत्रवादी हैं! India democracy and Free and Fair Polls

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कोई न माने इस बात को लेकिन 2024 का लोकसभा चुनाव निर्णायक तौर पर दुनिया की निगाह में नरेंद्र मोदी को दूसरा व्लादिमीर पुतिन बनाने वाला है। वैश्विक मीडिया इन दिनों भारत के लोकसभा चुनाव में पक्षपात, विपक्ष के प्रति नीचता और नरेंद्र मोदी की करनियों से भरा है। चुनाव आयोग जहां भारत को शर्मसार करता हुआ है वही नरेंद्र मोदी वापिस 2014 से पहले की इमेज पाते हुए हैं। कहा जाने लगा है कि चुनावों में भारत का लोकतंत्र, रूसी लोकतंत्र के रास्ते है। नरेंद्र मोदी और व्लादिमीर पुतिन भाई-भाई। भूल जाएं अमेरिका, यूरोपीय देश, जापान, ऑस्ट्रेलिया याकि दुनिया के सभ्य लोकतांत्रिक देशों में नरेंद्र मोदी के प्रति उस मान-सम्मान को जो 2019 से पहले पश्चिमी दुनिया में मोदी पर नए सिरे से पुनर्विचार के साथ बना था।

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पश्चिमी देशों, विश्व मीडिया में भारत के लोकतंत्र पर अब वैसी ही चिंता है जैसी 1975 में इंदिरा गांधी द्वारा इमरजेंसी घोषणा के बाद थी। लोकतंत्र के सभी प्रतिमान वैश्विक इंडेक्सों में भारत का लोकतंत्र रैंकिंग में नीचे फिसलता हुआ है। डाउनग्रेड है। मामूली बात नहीं है जो संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनी गुटेरेस की ओर से यह चिंता आई कि दुनिया को उम्मीद है कि हर कोई स्वतंत्र और निष्पक्ष माहौल में भारत के संसदीय चुनावों में वोट कर सकेगा। भारत में राजनीतिक और नागरिक अधिकारों के साथ-साथ सभी लोगों के हितों की रक्षा होनी चाहिए। सोचें, जो संयुक्त राष्ट्र अपने चार्टर से सदस्य देशों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप पर रोक लगाता है, वही भारत में लोकतंत्र को ले कर चिंता व्यक्त करते हुए है तो आखिर ऐसा क्यों? India democracy and Free and Fair Polls

क्या यह उनकी सच्ची चिंता है या नरेंद्र मोदी के खिलाफ साजिश है? क्या अमेरिका, जर्मनी याकि जी-7 के अमीर लोकतांत्रिक देश भारत को अब अपने साथ नहीं रखना चाहते? क्या उन्होंने नरेंद्र मोदी से पंगा बना लिया है? मोदी को क्यों उसी निगाह से देखने लगे हैं, जैसे पुतिन या चीन के शी जिनफिंग को देखते हैं?

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मेरा मानना है दुनिया के लोकतांत्रिक देशों में लोकतंत्र के कारण ही भारत का हमेशा महत्व रहा? साम्यवादी उफान, अमेरिका बनाम सोवियत संघ या आतंकवाद के खिलाफ युद्ध या अमेरिका बनाम चीन, लोकतंत्र बनाम तानाशाही के हर दौर में आबादी के विशाल देश भारत का लोकतंत्र धारे रहना जहां कौतुक और मिसाल के नाते सम्मानीय था वही पश्चिमी बिरादरी में यह चिंता भी लगातार रही है कि भारत में लोकतंत्र मजबूत बने। लोकतांत्रिक भारत चीनी तानाशाही, अधिनायकवादी देशों के मुकाबले दुनिया का एक विकसित राष्ट्र बने ताकि लोकतंत्र के प्रति पूरी दुनिया में आस्था फैले।

इसी सोच में पश्चिमी देशों ने 2014 के चुनाव नतीजों के बाद, नरेंद्र मोदी की प्रकृति को जानते-समझते हुए भी उन्हें गले लगाया। हिंदू आइडिया ऑफ इंडिया के राष्ट्रवादी प्रतिनिधि का स्वागत किया। मोदी सरकार द्वारा चीन और रूस से धंधा करते रहने के बावजूद पश्चिमी देशों ने अपनी सामरिक रणनीति में मोदी के न्यू इंडिया को पार्टनर का दर्जा दिया। जबकि वाशिंगटन, लंदन, पेरिस आदि के सत्ता केंद्र को मालूम था कि नरेंद्र मोदी सिर्फ इवेंट मैनेजर हैं। वे काम के नहीं, बल्कि मार्केटिंग, हवाबाजी वाले हैं। फिर भी नरेंद्र मोदी को गले लगने दिया। उन्हें आम चुनाव से ठीक पहले जी-20 की मेजबानी का मौका दिया। नरेंद्र मोदी की वाह बनवाई।

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और अब वही पश्चिमी बिरादरी भारत के लोकतंत्र और चुनाव की निष्पक्षता पर चिंतित है। क्यों? इसलिए क्योंकि विश्व के जो अखबार, टीवी चैनल, सोशल मीडिया हैं वह उस एक-एक घटना को रिपोर्ट करते हुए हैं जो भारत के लोकतंत्र पर हथौड़े चलाना जैसी है। बांग्लादेश, पाकिस्तान, तुर्की आदि इस्लामी लोकतंत्र या अफ्रीकी, दक्षिण अमेरिकी लोकतंत्र को छोड़ें, लेकिन क्या अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, इटली, जापान, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड जैसे किसी भी सभ्य लोकतंत्र में कोई प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति वैसी गुंडई कर सकता है जो मोदी राज के भारत में विपक्ष के साथ होते हुए है? India democracy and Free and Fair Polls

क्या यह कल्पना संभव है जो प्रधानमंत्री ऋषि सुनक ब्रिटेन में अपने विरोधी लेबर पार्टी के नेता के यहां रेवेन्यू विभाग के छापे डलवाएं, भ्रष्टाचार-साजिश के झूठे आरोप लगा, मनी लॉन्डरिंग में भ्रष्ट करार दे कर उन्हे उनके मुस्लिम लंदन मेयर को जेल में डाल दें? या चुनाव से ऐन पहले लेबर पार्टी के एकाउंट जब्त कराएं और आलोचना हो तोदुनिया को यह जवाब दें, कानून अपना काम कर रहा है? ब्रिटेन में लोकतंत्र और संस्थाएं नियम-कायदे अनुसार काम कर रही हैं इसमें प्रधानमंत्री ऋषि सुनक का कोई लेना-देना नहीं है!

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ब्रिटेन में कल्पना में भी वह संभव नहीं है जो नरेंद्र मोदी भारत में करते हुए हैं। ऐसा ही अमेरिका में है। डोनाल्ड ट्रंप ने हर मनमानी की। लेकिन यह इंतहां फिर भी नहीं थी कि अपने को हारता देख अपने विरोधी उम्मीदवार बाइडेन पर किसी भी तरह के आरोप को आधार बना उन्हें जेल में डाला। फंड संग्रह में यूक्रेन का पैसा बता उसे जब्त करने जैसी कोई नीचता की। कह सकते हैं वहां राष्ट्रपति संस्थाओं से खेल नहीं सकता। India democracy and Free and Fair Polls

एजेंसियां, अफसर, सिस्टम भारत जैसा नहीं है। ऐसे ही ब्रिटेन में है। वहां प्रधानमंत्री सर्वसत्तावान है लेकिन वह मर्यादाओं, नियम-कायदों का पालक है। इसलिए सभ्य लोकतांत्रिक देशों में वे नग्नताएं, नीचताएं संभव नहीं है जो कथित ‘मदर ऑफ डेमोक्रेसी’ इंडिया में प्रधानमंत्री से ले कर पटवारी तक के व्यवहार की आम बात है।

जाहिर है भारत सदियों की गुलामी से बुरी तरह सड़ा-गला है। भारत की ‘मदर ऑफ डेमोक्रेसी’ वास्तविकताओं में ‘मदर ऑफ सेलेवरी’, ‘मदर ऑफ हंगर’ (पॉवर, पैसे और झूठ), ‘मदर ऑफ करप्शन’ आदि उन तमाम बुराइयों का प्रतिमान है, जिसमें न ईमानदारी है, न नैतिक मूल्य व चरित्र है और न दिमागी खुद्दारी तथा निडरता है।

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विषयातंर हो रहा है। असल बात भारत के लोकतंत्र की सेहत पर अमेरिका, पश्चिमी देशों, संयुक्त राष्ट्र सभी का चिंतित होना लोकतंत्र के तकाजे में स्वाभाविक है। और उन्हें रहना चाहिए। आखिर पृथ्वी के आठ अरब लोगों में यदि 140 करोड़ लोग तानाशाही के विषाणुओं में अपनी लोकतांत्रिक इम्युनिटी गंवा बैठते हैं तो वह पूरी मानवता का संकट होगा। कुछ भी हो 140 करोड़ मनुष्यों की भीड़ का अपना एक वजन है। और इस भीड़ में मोदी राज लोकतंत्र को मुर्दादिल बनाने वाले असंख्य वायरस पैदा करते हुए है। बतौर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले दस वर्षों में भारत की संस्थाओं, मीडिया, बुद्धि-समझ को धर्म की अफीम से, झूठ-छल प्रपंचों की माया से ऐसा कुंद बनाया है कि दुनिया का हर समझदार नेता, बौद्धिक थिंक टैंक, विश्व मीडिया सब हैरान हैं।

तभी इनको यह संभावना डराने वाली है कि राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस से ले कर अरविंद केजरीवाल, हेमंत सोरेन, तृणमूल कांग्रेस, शरद पवार या कि विरोधी सभी क्षेत्रीयों दलों पर इस चुनाव में यदि नरेंद्र मोदी का पॉवर बुलडोजर चल गया तो वे भारत में लोकतंत्र होने की बात किस मुंह कहेंगे? इसलिए अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी और कांग्रेस के बैंक खातों को फ्रीज करके चुनावी निष्पक्षता को ताक में रखने की मोदी-भाजपा की हिम्मत अमेरिका, जर्मनी, संयुक्त राष्ट्र आदि की निगाहों में पाप है।

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सवाल है यह क्या भारत की संप्रभुता को पश्चिमी देशों, संयुक्त राष्ट्र का ठेंगा नहीं है? कतई नहीं। इसलिए क्योंकि नरेंद्र मोदी का खुद का अमेरिका में ट्रंप को जिताने का व्यवहार क्या था? (बाइडेन और देश का कमाल जो उसके बावजूद मोदी को गले लगने दिया) फिर देश की संप्रभुता, अंखडता के मामले में जो मोदी राज सीमा पर चीन की करनियों की अनदेखी करते हुए, उन्हें छुपाते हुए है तो भारत की संप्रभुता का दुनिया में क्या मान। चीन, पाकिस्तान ने भारत की जमीन खाई हुई है। नेपाल, मालदीव जैसे पड़ोसी हों या दुनिया के तमाम देश, भारत को एक बाजार से ज्यादा महत्व नहीं देते। India democracy and Free and Fair Polls

फिर जब मोदी का ढिंढोरा है ‘मदर ऑफ डेमोक्रेसी’ का, लोकतांत्रिक होने के दांत दिखलाने का तो असली करनी देख अमेरिका, जर्मनी, यूरोपीय देश क्यों न दिखाएं कि नरेंद्र मोदी के खाने और दिखाने के दांत कैसे अलग-अलग! विदेश मंत्रालय और भारतीय मीडिया का भोंपू तंत्र भले कहे- भारत कानून के शासन वाला एक जीवंत और मजबूत लोकतंत्र है और भारत में कानून अपना काम करेगा।

और इस संबंध में बनाई गई सभी पक्षपातपूर्ण धारणाएं बहुत अनुचित हैं लेकिन दिल्ली में मौजूद विदेशी दूतावासों की रिपोर्टिंग तो अपने देशों को यह सच्चाई भेजते हुए है कि भारत में कानून काम नहीं कर रहा है, बल्कि नरेंद्र मोदी का हुक्म काम कर रहा है। लोकतंत्र अब मोदीतंत्र में कनवर्ट है और कथित लोकतंत्र के सबसे बड़े अंग मीडिया ने ‘मोदी इज इंडिया, इंडिया इज मोदी’ की तुरही बजा अधिनायकवादी नैरेटिव बना डाला है तो भारत अधिनायकवादी हुआ या लोकतंत्रवादी?

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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