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जिन्ना का सपना पूरा करना या भारत के टुकड़े?

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हम हिंदू चाहते क्या हैं? –2: हम हिंदू फड़ाफड़ा रहे हैं! इतिहास में लौट रहे हैं। और नरेंद्र मोदी हों या योगी आदित्यनाथ, कोई बूझ नहीं रहा है कि वे मनसा, वाचा, कर्मणा भारत के टुकड़ों का आधार बना रहे हैं! गौर करें यूपी के मुरादाबाद की एक खबर पर। वहां की पॉश टीडीआई सिटी हाउसिंग सोसायटी में हिंदू आगबबूला हैं। इसलिए क्योंकि कॉलोनी के एक घर को हिंदू मालिक ने एक मुस्लिम डॉक्टर को बेच दिया। सो, सोसायटी के साढ़े चार सौ हिंदू परिवार गुस्से में हैं। इनकी मांग है कि मुसलमान खरीदार की रजिस्ट्री रद्द हो। यदि ऐसा नहीं हुआ तो सोसायटी में जनसांख्यिकीय परिवर्तन होगा। एक एक कर हिंदू छोड़ भागेंगे और मुसलमान भर जाएंगे। मतलब सोसायटी पाकिस्तान हो जाएगी। उसे पाकिस्तान नहीं बनने देना है। और तय मानें ऐसा असंख्य हिंदू सोचते होंगे।

साढ़े चार सौ मकानों की सोसायटी में यदि एक मुसलमान ड़ॉक्टर के लिए गुंजाइश नहीं है तो यह मानसिकता एक दिन में तो नहीं बनी है। यदि हिंदू परिवारों में इतना खटका बना है तो ऐसा होना धीमी-धीमी आंच से ही है। मसला पक्के तौर पर पक रहा है। इतिहास के भूतालय के जादू-टोनों से दस वर्षों में ‘एक हो तो बचोगे’ के मंतर में बड़ी संख्या में हिंदू मान बैठे हैं, ठान बैठे हैं कि मुसलमान वह जीव है, जिससे असुरक्षा है, भविष्य का खतरा है इसलिए उससे दूर हो। उससे बचो, उसे अपनी कॉलोनी, अपनी बस्ती, अपनी राजनीति, भारत की नियति में साझेदार नहीं बनाओ।

यों इस्लाम से दुनिया भर में चिंता है। इस्लामोफोबिया सभी तरफ है। सभ्यताओं के संघर्ष का भावी सिनेरियो है। बावजूद इसके भारत वह बिरला देश है, जहां हिंदू अपने ही घर में, अपने ही अंगने में वह व्यवहार बना या तय कर चुके हैं, जिसमें उन्हें पता ही नहीं है कि वे चाह क्या रहे हैं। आ बैल मुझे मार का राजनीतिक गृहयुद्ध पका रहे हैं जबकि उद्देश्य का अता-पता नहीं है!

योगी की तूताड़ी के ताजा वाक्य पर गौर करें, ‘दुश्मन बगल के देश में किस प्रकार का कृत्य कर रहे हैं। अगर किसी को गलतफहमी है तो याद रखना कि किस प्रकार बाबर के एक सिपाहसालार ने जो कृत्य अयोध्या में किया था, संभल में किया था और जो काम बांग्लादेश में हो रहा है, तीनों की प्रकृति और डीएनए एक जैसा है’। इसलिए सब एक हो जाओ। यदि बटोंगे तो कटोगे।

जाहिर है मुरादाबाद की सोसायटी का हिंदू हो या संघ और भाजपा का स्वंयसेवक और भक्त मतदाता, सभी “दुश्मन” की “प्रकृति और डीएनए” के बोध में मुसलमान को “दुश्मन” की निगाह में देख रहे हैं। ऐसा पहली बार है। इतिहास की इस वास्तविकता को समझें कि मीर कासिम के सन् 721 के आक्रमण के बाद से हम सनातनधर्मियों ने मुसलमान को ‘विधर्मी’, ‘यवन’, ‘मलेच्छ’, ‘आतातायी’ माना और उन्हें यही कहा। यह भी ध्यान रहे 1947 से पहले मुस्लिम लीग ने जब पाकिस्तान की मांग पर डायरेक्ट एक्शन में गृहयुद्ध बनाया था तब भी उसकी भाषा में ‘दुश्मन’ हिंदू नहीं था, बल्कि धर्म की जिद्द थी। याकि मुसलमान के लिए मुसलमान देश बनाने का उद्देश्य था। जिन्ना या लियाकत अली ने यह नहीं बोला कि हिंदू “दुश्मन” है और उनकी “प्रकृति और डीएनए” की वजह से हम उनके साथ नहीं रह सकते।

उस नाते उपमहाद्वीप में यह पहली बार है जो मुसलमान “दुश्मन” की संज्ञा से लक्षित है। और प्रधानमंत्री, गृह मंत्री, मुख्यमंत्री से ले कर सांसद, विधायक और भक्त मतदाता इस विलाप में हैं कि देखो उनके कपड़े, उनकी टोपी, उनका खानपान देखो तथा श्मशान व कब्रिस्तान के फर्क में उन्हें तुष्ट करने वालों को भी पहचानो। उनकी “प्रकृति और डीएनए” अलग है, हम अलग हैं। हमें एक रहना है। बंटोंगे तो कटोगे।

जाहिर है दस वर्षों से विलाप और प्रलाप में बात अब “दुश्मन” की “प्रकृति और डीएनए” तक आ गई है। वे समाज, सोसायटी में वर्जित हैं। विलाप में दिनोंदिन बाबर, मंदिरों के ध्वंस पर बनी मस्जिदों व बांग्लादेश की घटनाओं से इतिहास की लाइव तस्वीरें बन रही हैं। संभल, अजमेर, जौनपुर, वाराणसी, मथुरा आदि से इतिहास लाइव है। दलीलें हैं कि याद करें 13 सौ सालों की गुलामी को। उनके नारा-ए-तकबीर के अहंकार और ताकत के दिखावे को। इबादत के नाम पर उन्मादी भीड़ की पत्थरबाजी को। या यह कि ये संविधान, सरकार, अदालत, मीडिया आदि किसी पर विश्वास नहीं करते हैं, फैसले नहीं मानते हैं। इनकी जनसंख्या, हिंसा और धर्मांधता से देश की एकता-अखंडता को खतरा है, आदि-आदि।

विलाप है तो प्रलाप भी है। जैसे यह कि इतिहास अलमारी में सजाने की चीज नहीं है। उससे सबक ले कर यदि भावी पीढ़ियों का जीवन निष्कंटक बनाना है तो एक हो! अतीत में जितने मंदिर तोड़े गए थे, हम उनके पुनर्निर्माण के लिए मुक़दमे दायर करेंगे। उन्होंने 13 सौ साल हमारे धर्म, दीन ईमान की जैसी तौहीन की तथा हिंदुओं ने जलालत की जो जिंदगी जी है तो बदला लेना ही है। ये शांति के पैगाम के नाम पर दारूल इस्लाम वाले हैं। वे लव जेहादी हैं। बेइंतहां बच्चे पैदा कर रहे हैं। देश के फलां-फलां इलाकों, जिलों, संभागों में बहुसंख्या में हो गए हैं। देखो, समझो ब्रिटेन में बच्चों के नामाकरण का टॉप शब्द मेहमूद है। इसलिए हिंदुओं बच्चे ज्यादा पैदा करो नहीं तो अल्पसंख्यक हो जाओगे।

सो विलाप और प्रलाप इतिहास तथा वर्तमान दोनों को लिए हुए है। इतना ही नहीं हम हिंदू ब्रिटेन, फ्रांस जैसे देशों की चिंता में भी दुबले हैं। सोशल मीडिया इस ख्याल में डूबा हुआ है कि वहां तो इस्लाम का टेकओवर होता हुआ है। पर हम ज्यादा समझदार हैं क्योंकि मोदीजी, योगीजी बुलडोजर चला कर सब ठीक कर देंगे! बस जरूरत इतनी भर है कि हिंदुओं एक हो। आपसी एकता में बाधा पैदा करने वाले लोगों (कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, सेकुलरों) से दूर रहो। उन्हें वोट मत दो। बंटो नहीं, बल्कि एक संघ शक्ति, एक पार्टी, एक राजा, एक धर्म, एक राज, एक झंडे में गोलबंद हो जाओ! इतिहास में हर्षवर्धन के बाद हम क्षत्रपों की रियासतों में जैसे बंटे रहे, वैसे नहीं बंटना है। यदि हम बंटे नहीं होते तो बकौल योगी,  “चंद मुट्ठी भर आक्रांता आकर भारत को पददलित करने का दुस्साहस नहीं कर पाते। भारत के वीर योद्धा उन्हें रौंद डालते”। इसलिए अब हमें एक हो कर आंक्राताओं, बाबर की संतानों को औकात बता देना है।

सवाल है औकात बताने, इतिहास का बदला लेने का मैदान याकि गृहयुद्ध की रणभूमि कौन सी है? भारत देश! तभी लोग संकल्प धार रहे हैं कि हम एक हैं इसलिए हम हमारी सोसायटी के ड़ीएनए की एकता में रहेंगे। तुम तुम्हारी कॉलोनी, बस्ती, बाड़े, अपने घेटो में जाओ! सोचें, घर को ही अपना रणक्षेत्र बनाना हिंदुओं की इक्कीसवीं सदी की राजनीतिक बौद्धिकता का क्या नया प्रतिमान नहीं है? इससे क्या इस पहेली का जवाब नहीं मिलता कि हम 13 सौ साल क्यों गुलाम रहे?

कल्पना करें भारत के मोहल्लों, सोसायटी, गांव, कस्बों, शहरों, जिलों, संभागों में ऐसा होना लगातार बढ़ता गया तो भारत का क्या बनेगा? जवाब है वही जो पाकिस्तान के निर्माता मोहम्मद अली जिन्ना का मूल ख्याल और सपना था। जिन्ना ने ऐसी ही शक्ल में हिंदुस्तान में पाकिस्तान बनाने का विचार किया था। इसे एक इंटरव्यू में उन्होंने अंग्रेज पत्रकार से शेयर किया था। उसमें यह सवाल जवाब था-

प्रश्न- मिस्टर जिन्ना, आपकी कल्पना का पाकिस्तान कैसा है? क्या आप चाहते हैं हर जिले में, हर शहर में हर गांव में पाकिस्तान हो?

जिन्ना- हां, मैं यही चाहता हूं।

प्रश्न- लेकिन मिस्टर जिन्ना यह तो बड़ी डरावनी कल्पना है।

जिन्ना- मैं हर जिले में, हर शहर में, हर गांव में पाकिस्तान चाहता हूं। यह डरावनी कल्पना है। लेकिन इसके अलावा कोई चारा नहीं है!

सोचें, जिन्ना ने इस अफलातूनी और असंभव बात में भारत का भविष्य बूझा, जिसमें केंद्र में, राज्य में, जिले में, शहर में, दो दो सरकारें हों, जिनमें से एक हिंदुओं पर शासन करें और एक मुसलमानों पर। इसलिए क्योंकि दोनों धर्म और उनके लोगों का डीएनए अलग-अलग तथा एक-दूसरे के साथ सोसायटी, बस्ती शेयर करने वाला नहीं था! इस बात की महामना हिंदी संपादक राजेंद्र माथुर ने विवेचना करते हुए अक्टूबर 1965 में लिखा था कि, “पाकिस्तान के निर्णय का सच्चा श्रेय न तो अंग्रेजों को है, न मुस्लिम लीग को। उसका श्रेय उस पागलपन और नफरत के वातावरण को दिया जाना चाहिए, जिसने राजनीति को गृहयुद्ध का रूप दे दिया था”।

और ईमानदारी से सोचें, आज भारत में या मुरादाबाद की सोसायटी में वैसा ही पागलपन और नफरत का भंवर क्या बनता हुआ नहीं है?

तब भी उसका गढ़ गंगा-यमुना का दोआब था और आज भी है। पता नहीं जिन्ना के उस ख्याल के समय उत्तर प्रदेश या पूरे देश के जिलों, शहरों में हिंदू और मुस्लिम आबादी के अलग अलग बाड़ों (घेटो) का अनुपात क्या था? मगर आज जरूर हम कश्मीर घाटी से लेकर केरल और गुजरात से असम में मोटामोटी अनुमान लगा सकते हैं कि हिंदू और मुसलमान के बाड़ों की संख्यात्मक ताकत में राजनीतिक गृहुयद्ध में भविष्य का नक्शा कैसा संभव है। बाड़ेबंदी तो हो ही रही है। कहते हैं मणिपुर में केंद्र व प्रदेश सरकार है लेकिन कुकी अलग रह रहे हैं और मैती अलग। दोनों के बाड़े एक-दूसरे के लिए वर्जित!

कोई चार साल पहले उत्तर-पूर्वी दिल्ली में दंगे हुए थे। उसका असर है जो दोनों समुदाय के परिवार साझी आबादी की कॉलोनी से बाहर निकल अपनी-अपनी बस्तियों में शिफ्ट हुए या कोशिश में हैं। हिंदू को अपने डीएनए की सोसायटी (हिंदुस्तान) में रहना है तो मुसलमान को भी अपने बाड़े (पाकिस्तान) में! बाड़ेबंदी की इस विभाजकता, राजनीति से जब हर शहर, हर जिले में पानीपत की लड़ाई में अपन् हिंदु वीर योद्धा ‘दुश्मन’ को रौंदने के लिए बाहर निकलेंगे तो वे एकता (जो अभी है) को ताकत दे रहे होंगे या भारत के टुकड़ों का मध्य काल लौटा रहे होंगे?

इसलिए फिर यक्ष प्रश्न है हम हिंदू चाह क्या रहे हैं? (जारी)

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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