हम हिंदू चाहते क्या हैं?: सोचें, क्या हम हिंदू वैसे हो सकते हैं, जैसे इस्लाम के बंदे हैं? क्या सनातनधर्मियों का व्यवहार इस्लाम के मंतव्य, उद्देश्य, राजनीति (दारूल हरब, दारूल इस्लाम, विश्वासी, धिम्मी, काफिर के सियासी दर्शन) जैसा हो सकता है? और आधुनिक युग में ऐसा होना या इसकी कोशिश करना क्या ठीक होगा? सवाल को इजराइल व नेतन्याहू के उदाहरण से समझें। निश्चित ही इतिहास के झरोखे में यहूदियों से अधिक ‘जाति विध्वंस’ हिंदुओं (विशेषकर कश्मीर का मध्यकाल) का था। लेकिन यहूदी (अब्राहम) पश्चिमी सभ्यता के पितामह हैं।
दुनिया भर में भटकते, खटकते, मरते हुए भी यहूदियों ने अपनी जिजीविषा में अपना बौद्धिक बल बनाए रखा। वे हम हिंदुओं की तरह कलियुगी बुद्धि में कलुषित नहीं हुए। वे धर्म पर अडिग रहे तो पश्चिमी सभ्यता के लिए उपयोगी भी थे। और जब इजराइल पाया तो वे पहले दिन से क्या करते हुए हैं? मनसा, वाचा, कर्मणा यहूदी राष्ट्र की धुन में हैं। उन्होंने फिलस्तीनियों के प्रति वही धिम्मी नीति अपनाई हुई है, जैसा इस्लामी देश अपने दारूल इस्लाम में अविश्वासियों के साथ बनाते हैं!
जबकि हम सनातनधर्मियों ने बुद्धम् शरणम् गच्छामी व इस्लामी हमलावरों के बाद से कलियुगी अंधेपन में बुद्धिहीनता धारी हुई है। मन और दिमाग को कलियुगी बना लिया है। तभी आश्चर्य नहीं जो आधुनिक समय में भी कलियुगी गलतियां लिए हुए हैं।
1947 में हिंदू-मुस्लिम आबादी अदला-बदली की अनदेखी: क्या यह हमारी प्रकृति का हिस्सा था?
सोचें, याद करें 1947 में सभी पक्षों ने राजी खुशी धर्म के आधार पर दो घोंसले बनाए थे तो तब दोष क्या हिंदुओं का नहीं था जो उन्होंने उस अनुसार आबादी की अदला-बदली का फैसला नहीं किया? फालतू बात है कि वह अकेले, गांधी-नेहरू व कांग्रेस की गलती थी। उस समय की अंतरिम सरकार में सभी पार्टियां थीं। सरदार पटेल, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, बलदेव सिंह सब थे।
मदनमोहन मालवीय से लेकर आरएसएस और सनातनी रामराज्य परिषद् के प्रभुदत्त ब्रह्मचारी किसी की भी तब ऐसी कोई मांग, बयान व आंदोलन का मुझे रिकॉर्ड नहीं मिला है, जिस आधार पर मानें कि हिंदुओं में कोई तो इस सच्चाई से आंदोलित था कि मुसलमान के लिए पाकिस्तान और हिंदुओं के लिए यदि भारत बना है तो इसकी वास्तविकता में ईमानदारी से आबादी की अदला-बदली हो। ताकि दोनों ही धर्म इतिहास के भूतों से मुक्ति पाएं। लेकिन हिंदू एक तो मुस्लिम लीग के डायरेक्ट एक्शन से भयाकुल थे वही सत्ता की भूख (जो 78 वर्षों से लगातार है) में सबको जल्दी थी कि जैसे भी हो पॉवर ट्रांसफर हो। वे स्वतंत्रता दिलवाने वाले राष्ट्रपिता, राष्ट्रनिर्माता और विश्वगुरू बनें।
जाहिर है हम सनातनधर्मियों के डीएनए यहूदी, इस्लाम, ईसाई या चाइनीज सभ्यता जैसी तासीर के नहीं हैं। हमारे बस में वही है जो हमारी प्रकृति है। इस्लाम और हिंदू का फर्क है जो मुसलमान डायरेक्ट एक्शन से पाकिस्तान बनवा लेता है वही हिंदू में दोनों धर्मों के अलग-अलग घरौंदे में मुस्लिम आबादी को मुस्लिम घरौंदे में ट्रांसफर कराने का ख्याल भी नहीं बनाता।
सनातनी मानस में भय और खामोख्याली: स्वतंत्रता के बाद भी धर्मीय अस्मिता की अनदेखी
तब भी इतिहास से घायल सनातनी मानस में भयाकुलता और खामोख्याली थी। इस्लाम का डायरेक्ट एक्शन था तो उस पर गुस्सा होने के बजाय हिंदू अपने आपको कोस रहे थे। और न यह सोचा या ठाना कि गुलामी से अपनी धर्म अस्मिता को वैसे ही स्वतंत्र होना है जैसे मुसलमान हो रहे हैं! जब इस्लाम अपना स्वतंत्र देश पा रहा है तो बाकी हिंदुस्तान, हिंदुओं का ही होगा। ब्रिटेन की वैश्विक चौधराहट से यहूदियों के लिए इजराइल, मुसलमान के लिए पाकिस्तान और हिंदुओं के लिए हिंदुस्तान पर जब दुनिया का ठप्पा है तो क्या तुक थी जो हमने धर्मों की कलह का भारत बनाया?
हमने इतिहास के झगड़े, आतंक और अंदरूनी कलह का भारत बनाया। वजह दिमाग में मध्यकाल से चली आ रही भयाकुलता, गुलामी और भूख थी। खामोख्याली थी कि अंग्रेजों से सत्ता ट्रांसफर हो जाए तो उनके नक्शेकदम पर आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष, सबका साथ-सबके विकास के हम विश्वगुरू बन जाएंगे। सत्ता बस हाथ आ जाए तो जो चाहेंगे कर डालेंगे। रामराज्य, समाजवाद, हिंदू राष्ट्र, विकसित सब भारत बन जाएगा।
मेरा मानना है और हो सकता है मैं गलत हूं लेकिन जरा सोचें कि गांधी-नेहरू और सभी तरह के सियासी हिंदुओं का 1947 में क्या उद्देश्य था? क्या सिर्फ इतना भर नहीं कि जैसे भी हो अंग्रेजों से हिंदुओं को सत्ता ट्रांसफर हो। कोई बात नहीं यदि मुसलमान पाकिस्तान मांग रहे हैं तो हम उसे मंजूर करते हैं! इस भूख व हड़बड़ी के अलावा हिंदू नेताओं के दिमाग में कुछ भी नहीं था। हिंदू नेतृत्व ने तनिक भी नहीं सोचा कि मुस्लिम लीग, जिन्ना की जिद्द इस्लाम याकि धर्म की जिद्द है और इससे अपने आप साबित है कि मुसलमान को सहअस्तित्व में जीना मंजूर नहीं तो हम क्यों मुसलमान को रखना चाहते हैं?
स्वतंत्रता का उद्देश्य: क्या हिंदू नेताओं ने धर्म और सांस्कृतिक अस्मिता की रक्षा पर ध्यान दिया?
गांधी-नेहरू, पटेल, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, आंबेडकर (अंतरिम सरकार का सर्वदलीय कैबिनेट) के दिमाग में केवल पॉवर ट्रांसफर की भूख थी। मध्यकाल के झगड़े-टंटों, गुलामी, धार्मिक कलह से हिंदुओं को स्वतंत्र बनाने का उद्देश्य था ही नहीं। मालिक-गुलाम, शासक-शासित के घावों की स्मृति, सांप्रदायिक दुराव और हिंसा से स्थायी स्वतंत्रता का हमारा उद्देश्य था ही नहीं। हम सनातनधर्मियों का यह उद्देश्य नहीं था कि जैसे मुसलमान पाकिस्तान बना इस्लामी स्वतंत्रता हासिल कर रहे है वैसे हिदुस्तान पा कर हिंदूओं को भी धर्म की स्वतंत्रता, उसके संस्कृति-सभ्यताजन्य अस्मिता का गौरव राष्ट्र प्राप्त हो! सनातनधर्मी उस धर्म की रीति-नीति-राजनीति से स्वतंत्रता और मुक्ति पाएं, जिसकी अधीनता में सैकड़ों सालों से हैं। वह धर्म अर्थात इस्लाम, जिसके कारण पश्चिम एशिया, मध्य-उत्तर एशिया के हमलावरों ने भारत को लूट की चरागाह बनाया और अंग्रेज भी फिर हिंदुओं को लूटने चले आए!
विचार करें, हमे स्वतंत्रता किससे चाहिए थी? उन अवस्थाओं, उस गुलामी, उस धर्म-संस्कृति से चाहिए थी, जिसके कारण सन् 712 से हिंदुओं के दीन-ईमान की तौहीन थी। जिसकी वजह से हिंदुओं ने जलालत और जोर जबरदस्ती का इतिहास जीया था। क्या यह कौम (हिंदुओं) के नियंता नेताओं का मूल, एकमेव उद्देश्य नहीं होना चाहिए था? खासकर तब जब जिन्ना, मुस्लिम लीग और मुसलमानों (डायरेक्ट एक्शन से जाहिर) ने दुनिया से दो टूक कहा था कि वे हिंदुओं के साथ नहीं रह सकते हैं। मुस्लिम बौद्धिकों और अवाम का तब दो टूक तर्क था कि दोनों धर्मों की जीवन पद्धति में बुनियादी अंतर है। इसलिए साझे चुल्हे में रहना नाममुकिन है। हमारा हिंदुओं से साझा नहीं हो सकता। हमारा जीना अलग है उनका अलग है। हमें अपने जीने, अपने धर्म के लिए अलग स्थान चाहिए! इसलिए हमारे लिए पाकिस्तान बने और हिंदुओं के लिए हिंदुस्तान!
हिंदू नेताओं की चुप्प: क्या स्वतंत्रता का उद्देश्य केवल सत्ता प्राप्ति था?
क्या तब एक भी हिंदू नेता था, जिसने इतनी ही साफगोई से कहा हो कि मुस्लिम लीग, जिन्ना, अंग्रेजों सबका फैसला सही तथा लॉजिकल है। इसलिए उन्हीं की तरह हमारी स्वतंत्रता का उद्देश्य भी हिंदुओं की स्वतंत्रता है। इसलिए हम हिंदू अपनी मातृभूमि, पुण्यभूमि, पितृभूमि का बंटवारा मंजूर करते हैं।
ऐसी ईमानदार एप्रोच सावरकर की भी नहीं थी। सावरकर ने हिंदुत्व की थीसिस में उपमहाद्वीप को हिंदुओं की मातृभूमि, पुण्यभूमि, पितृभूमि करार दिया था। उनकी मुसलमान से शर्त थी कि वह भारत को अपनी मातृभूमि और पुण्यभूमि (सऊदी अरब को नहीं) माने। लेकिन यह सावरकर को भी ख्याल नहीं था कि हिंदुओं की गुलामी का असली इतिहास इस्लाम से है। और उससे स्वतंत्रता हिंदुओं का प्राथमिक उद्देश्य है!
सावरकर ने सनातन धर्म और इस्लाम का भेद बताया। लेकिन भारत में मुसलमान के बतौर हिंदुस्तानी मुस्लिम रहने की बात की। जैसे वे ग्रीस में ग्रीक मुस्लिम और पोलैंड में पॉलिश मुस्लिम के रूप में अल्पसंख्यक थे। जाहिर है हिंदुओं के सभी समूह, कांग्रेस और राष्ट्रवादी तमाम नेता एक ही ख्याल के थे। जैसे भी हो हम अंग्रेजों से सत्ता पाएं। हैरानी की बात है अल्लामा इक़बाल ने जब ‘मुस्लिम हैं हम वतन है सारा जहां हमारा’ और मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान का उदे्दश्य घोषित किया, डायरेक्ट एक्शन लिया तब भी हिंदुओं के दिल-दिमाग में चिंगारी पैदा नहीं हुई कि हम हिंदुओं को भी इस्लाम से स्वतंत्रता चाहिए। आखिर जिन्ना का यह भी तर्क था कि मुसलमान को नेहरू का, हिंदू कांग्रेस का नेतृत्व मंजूर नहीं है। वही दूसरी तरफ तथ्य है कि नेहरू-गांधी, कांग्रेस ने भी जिन्ना को बतौर प्रधानमंत्री नहीं माना था!
1947 की स्वतंत्रता: हिंदू नेताओं का उद्देश्य केवल सत्ता प्राप्ति, धर्म की स्वतंत्रता नहीं
कल्पना करें उन लम्हों, 1947 से पहले के उस समय की जब अल्लामा इकबाल, मुस्लिम लीग, जिन्ना, लियाकत अली ने इस्लामी दारूल इस्लाम के उद्देश्य में करो या मरो की लड़ाई लड़ पाकिस्तान पाया। जिन्ना और मुसलमान ने इस्लाम के मकसद में, इस्लाम का पाकिस्तान बनाया। उन्हें न हिंदुओं की अधीनता मंजूर और न साझा स्वीकार्य। वही सनातनधर्मियों की लड़ाई किस उद्देश्य से थी? जैसे भी हो हमें अंग्रेजों से दिल्ली की सत्ता का पॉवर ट्रांसफर हो! हिंदू नेताओं ने बुद्धिहीनता, भयाकुल और भूख की मनोदशा की हड़बड़ी में अंग्रेजों से सत्ता (पॉवर) ट्रांसफर कराने के अलावा कुछ भी नहीं सोचा।
तभी हिंदुओं ने आजादी की रात ‘ट्रिस्ट विद डेस्टिनी’ में यह लफ्फाजी सुनी की जब दुनिया सो रही है तब भारत आजादी की सांस ले रहा है! और क्या थी आजादी की वह सांस? मानों लाइव मध्यकाल। हिंदू-मुस्लिम हिंसा में डूबा हुआ हिंदुस्तान। गांधी नोआखली में हिंदू-मुसलमान को लड़ता, मरता देख रहे थे वही नेहरू और सरदार पटेल मध्यकाल के टुकड़ों (रियासतों) को इकट्ठा करते हुए इस अनुभव में थे कि इस्लाम ने अब नई कश्मीर की जिद्द बना ली है वही जूनागढ़, हैदराबाद, भोपाल के नवाब अपना डीएनए बतलाते हुए हैं।
हैरानी भरी बात है कि 1947 के आगे-पीछे मुस्लिम लीग के डायरेक्ट एक्शन, दोनों धर्मों की भयावह सांप्रदायिक हिंसा के अनुभवों में भी हिंदुओं की और से कोई यह सोचने वाला नहीं था कि एक धर्म (इस्लाम) ने अपनी आजादी, अपना होमलैंड पा लिया है तो बतौर नस्ल-कौम-धर्म के हिंदुओं ने क्या पाया है? क्या है इस स्वतंत्रता का उद्देश्य? हकीकत में कोई उद्देश्य नहीं था सिवाय सत्ता पाने, सत्ता पर बैठने के!
सच्चाई कड़वी होती है। इसलिए हम हिंदुओं का मनोविज्ञान अंधे को अंधा न कहो सूरदास कहो का है। मगर कौम, देश, धर्म में भी यदि झूठ, खामोख्याली में ही इमारत बनाएंगे तो वही होगा जो आज होता हुआ है। और भविष्य में होगा।
हो सकता है मैं गलत हूं लेकिन पॉवर पाने के बाद नेहरू और पटेल ने एक-एक कर जितने टुकड़ों (रियासतों) को जोड़ भारत को शक्ल दी तो साथ में इतिहास के मध्यकालीन हिंदू बनाम मुस्लिम बीजों का बीजारोपण भी किया। फिर भले वह कश्मीर हो या मंदिर-मस्जिद जैसे विग्रह। तभी स्वतंत्र भारत का इतिहास पहले दिन से आज तक मध्यकाल जैसी इन चिंताओं का है कि इस्लाम को कैसे हैंडल करें? कैसे पाकिस्तान से जूझे? कैसे सांप्रदायिक हिंसा, आतंक रोकें? तुष्टीकरण से दिल जीतें, उनका देश के संसाधनों पर पहला हक बनाकर उन्हें भारतीय बनाएं या उन्हे ठोक कर, बुलडोजर दिखला कर सीधा करें!
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समकालीन भारत (उपमहाद्वीप) की घटनाओं में मध्यकाल की प्रतिध्वनियों के अलावा नया कुछ नहीं है। आधुनिक भारत का निर्माण पॉवर पाने की हड़बड़ी में था। भयाकुल और इलहामी ख्यालों की निरूदेश्यता में था। गांधी-नेहरू ने माना पॉवर आ रहा है तो उससे अपने आप सब बनेगा। भारत में रहा मुसलमान अतातुर्क के तुर्कियों जैसा आधुनिक हो जाएगा। नेहरू की फरिश्ताई इमेज, उनके नए दीने इलाही धर्म याकि सेकुलर फलसफे में फूलवालों के साझे, लाल किले, अकबर रोड और औरंगजेब रोड, कथित गंगा-जमुनी तहजीब में हिंदू और मुसलमान एक साथ होली मनाएंगे, ईदी खाएंगे। और एक भारत, श्रेष्ठ भारत से दुनिया में विश्वगुरूता होगी।
जाहिर है नेहरू अपने आइडिया ऑफ इंडिया में भी पॉवर की ताकत पर निजी ख्यालों के जमीन पर साकार उतरने के मुगालते में थे तो मोदी-योगी के आइडिया ऑफ इंडिया में भी झांसा है कि एक रहों, हमें वोट देते जाओ तो वह दिन दूर नहीं जब भारत के वीर योद्धा उन्हें रौंद डालेंगे। बाबर की संतानों को उनकी औकात बता देंगे! (जारी)