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मुसलमान को धिम्मी बनाकर रखेंगे या धर्मांतरित करेंगे या मारेंगे?

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कितना खराब है जो भारत ने संविधान में ‘सेकुलर’ रखा हुआ है और व्यवहार उस हिंदूपने का है, जिसमें न उद्देश्य मालूम है और न स्पष्टता और न बहादुरी व ईमानदारी है! ले देकर यह सनक है कि मुसलमान ने ऐसा किया, तो हम भी वैसा करें। अर्थात इतिहास का बदला लेना है! यदि यह प्रण, यही कसौटी है तो दिल्ली का प्रधानमंत्री, लखनऊ का वजीर क्या मुसलमान को वैसे मारेगा जैसे महमूद गजनी, कुतुबुद्दीन ऐबक ने हिंदुओं को मारा, उन्हें धर्मांतरित किया?

हम हिंदू चाहते क्या है? -4: इतिहास को झगड़ालू मान कोई उसे भुलाए या महान मान चिकना-चुपड़ा बनाए असल बात अनुभवों की विरासत में लोक इतिहास मान्यता है। भले उसे तब कोई इस्लामोफोबिया, हिंदूफोबिया, चर्चफोबिया कह कर खारिज करे। सही है हिंदुओं को इतिहास नहीं, बल्कि पुराण पसंद है। ऐसा होना इतिहास की कटु सच्चाइयों से भागने की मजबूरी है! उस इतिहास को भला क्या याद रखना, जो उससे नहीं था, बल्कि विधर्मियों से था। ऐसी स्थिति आदिधर्म बनाम नए संगठित धर्म के फर्क से है। आदिधर्म, प्राचीन सभ्यताएं नए संगठित धर्मों से लुटी-पिटी और खत्म हुई है। बमुश्किल आदिधर्म यहूदी और हिंदू बचे हैं लेकिन ये नए धर्मो के भुक्तभोगी तो हैं। तभी न अस्वाभाविक है और न आश्चर्यजनक जो यहूदी और हिंदुओं को आधुनिक समय में बतौर धर्म, कौम और राष्ट्र की सुरक्षा चिंता है।

बाकि धर्मों में ऐसा संकट नहीं है। इसलिए क्योंकि उनमें उद्देश्यों की स्पष्टता है। सन् 712 में पहला मुस्लिम हमलावर जब भारत आया था तो वह केवल लूटने के लिए नहीं, बल्कि धर्म का उद्देश्य ले कर आया था। इसलिए उससे हिंदुओं का जब सामना हुआ तो उन्हें समझ नहीं आया कि अब क्या करें, कैसे सामना हो? इतना भर अहसास बना कि ये उन जैसे धर्म पालक नहीं हैं इसलिए उन्हे ‘विधर्मी’ कहा जाने लगा। यह नहीं बूझा कि ये हिंदू धर्म के इस्लाम में धर्मांतरण का उद्देश्य लिए हुए हैं। हिंदुस्तान को दारूल हरब और फिर दारूल इस्लाम बनाना है।

इसे हिंदुओं का भोलापन कहें, बुद्धिहीनता मानें या मूर्खता जो सन् 712 से लेकर सन् 2024 के अब तक के इतिहास में हिंदू धर्मगुरूओं, शंकराचार्यों, धर्माचार्यों, धर्मरक्षकों में एक भी दफा यह विचार मंथन नहीं था कि हम बहुलवादी मूर्तिपूजक सनातनियों का एकेश्वरवादी इस्लाम से कैसा व्यवहार बने, उसे कैसे हैंडल करें? किन तरीकों, किस राजधर्म से हिंदुओं का मुस्लिम प्रजा के साथ व्यवहार हो, जिसका जन्मजात लक्ष्य पृथ्वी को दारूल इस्लाम बनाना है।

और यह हिंदू अनाड़ीपन तब है जब कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी, गुजरात से ले कर पूर्वोत्तर भारत में पिछले 1312 वर्षों के इतिहास का यह साक्ष्य है कि खलीफाई मिशन में मुहम्मद बिन कासिम (711–715) का जब हिंदुस्तान पर पहला हमला हुआ तो सिंध पर कब्जा करते ही उसने ‘हिंद (भारत) के राजाओं’ को पत्र लिखकर उनसे आत्मसमर्पण और इस्लाम धर्म को अपनाने का आदेश दिया था। सन् 711 में मीर कासिम, सन् 1001 में मेहमूद गजनी की तलवार तथा सन् 1333 से श्रीनगर में शुरू तुर्क-ईरानी सूफी संतों के सिलसिले के एक अग्रणी सूफी मीर अली हमदानी ने कश्मीर को जखिरत-उल मलूक की प्रयोगशाला बनाया तो हिंदू राजाओं, और उनके धर्माचायों के आगे अनुभव के सत्य बेबाक था। पैगाम दो टूक था कि तलवार हो या सूफीवाद सबका उद्देश्य, एकमेव मंतव्य हिंदुस्तान को दारूल इस्लाम बनाना है!

निर्विवाद है इस्लाम का कोई रूप हो, गजनी या इस सदी का बगदादी या तालिबानी तथा मध्यकाल का सूफी मीर अली हमदानी हो या इसी सदी का आधुनिक प्रचारक जाकिर नाईक सब इस्लाम के पक्के और सच्चे थे और हैं। सभी का उद्देश्य इस्लाम के उसूलों में दूसरे धर्मावलंबी से व्यवहार है। इसलिए मध्यकाल में चंद सूफियों से कश्मीर सिर्फ 31 वर्षों में मुस्लिम बहुल बना तो हिंदुस्तान की बाकी जगहों जैसे बंगाल, बिहार, कश्मीर, बीजापुर का सूफियों से इस्लामीकरण था। वही दिल्ली के शासकों, औरंगजेब की तलवार से भी हिंदू कन्वर्ट था। इस सबकी परिणति में 1947 में पाकिस्तान बना। आज उपमहाद्वीप में चार इस्लामी देश (पाकिस्तान, अफगानिस्तान, मालदीव और बांग्लादेश) हैं। हर देश अपने राष्ट्रीय उद्देश्यों में धर्म के मंतव्य और कर्तव्य का वैसा ही संकल्प लिए हुए है, जैसे इतिहास में सुल्तानों का, सूफियों का था। इनमें कोई कंफ्यूजन, कोई हिप्पोक्रेसी और दोगलापन नहीं है।

कोई सोच सकता है मेरा यह सब लिखना विग्रही इतिहास है। पर इतिहास विग्रही हो या अमन के कबूतरों का, अंतिम सत्य परिणाम का है। जरा कश्मीर पर गौर करें। सूफी संत हमदानी ने राजधर्म याकि राजनीतिक नैतिकता और अच्छी सरकार के नियमों का अपना ग्रंथ ‘जखिरत-उल मलूक’ (मुल्क की व्यवस्था) से सुल्तान को ज्ञान दिया (ज़.म.- पृ.117-8) कि, ‘सभी एक मुस्लिम शासक को सलाह देते हैं कि वे अपने गैर-मुस्लिम विषयों पर बीस अपमानजनक शर्तें लगाएं और बदले में गैर-मुस्लिमों को कुछ भी गारंटी नहीं दी जाएं। (इन्फ्रा, पीपी.107-9 भी देखें)। तभी सुल्तान शहाबुद्दीन ने हिंदुओं को धिम्मी (याकि जजिया अदा कर शांति से रहने की छूट) का दर्जा नहीं दिया, बल्कि हमदानी और सुल्तान ने उन्हें युद्धरत ‘काफिर’ की श्रेणी में दुश्मन मान उन पर अत्याचारों की इंतहां की। खुद हमदानी ने श्रीनगर में हिंदुओं के प्रसिद्ध कालीश्री मंदिर के ध्वंस का नेतृत्व किया। उसके खंडहर पर मस्जिद, खानकाह-ए-मौला मस्जिद बनाई (आज भी हैं)। वह हिंदू धर्मावलंबियों पर जोर जबरदस्ती का कश्मीर में पहला, निर्णायक आदेश व पैगाम था।

सूफी ने वही किया जो इस्लाम का मतंव्य और उसके तौर-तरीके हैं। ठीक दूसरे छोर पर सनातनी धर्मावलंबियों के व्यवहार और उसके परिणाम पर गौर करें। कोई चार सौ साल बाद 1819 में महाराजा रणजीत सिंह की सिख सेना ने अफगानों से कश्मीर को मुक्त कराया। सेना ने श्रीनगर में प्रवेश किया तो सिख सूरमा खड़क सिंह और फूल सिंह ने हिंदुओं के हालात, दशा देख कालीश्री मंदिर पर निर्मित खानकाह-ए-मौला मस्जिद (हमदानी द्वारा निर्मित) को तोड़ने का आदेश दिया। लेकिन सर्व धर्म समभावी या भयाकुल मंत्री-ताल्लुकेदार कश्मीरी पंडित बीरबल धर ने उस आदेश को खत्म कराया। वह मस्जिद टूटी नहीं। और इतिहास का अगला साक्ष्य है कि उसी बीरबर धर का वंशज राजनाथ धर 30 जून 1990 के दिन श्रीनगर में इस्लामी आंतकियों का शिकार हुआ।

इसलिए मेरा मानना है कि इस्लाम ज्ञात इतिहास का विजेता धर्म है। उसके आगे हिंदुओं की अधीनता थी तो भयाकुल अनुभवों में सनातनधर्मियों (हिंदू, सिख, बौद्ध सभी) की बुद्धि-विवेक या उनके धर्माचार्यों, कुलीनों की बुद्धि में विचार मंथन का यह रसायन बना ही नहीं कि भला तब हम इस्लाम को कैसे हैंडल करें? कोई आश्चर्य नहीं जब 1947 में अंग्रेजों से आजादी का अवसर आया तो इस्लाम के बंदों को धर्म (जिंदगी) का उद्देश्य दो टूक मालूम था। मुस्लिम नेता दुविधा में नहीं थे। 1947 में मोहम्मद अली जिन्ना और मुस्लिम लीग को पता था कि वे इस्लाम और उसके उद्देश्यों, मुस्लिम जीवन पद्धति के लिए पाकिस्तान बना रहे हैं। वे कांग्रेस, गांधी-नेहरू को हिकारत से देखते थे। कहते थे न मुसलमान आपके नेतृत्व को मान सकता है, न सहअस्तित्व व साझा संभव है। हम अपने धर्म के कायदों का पाकिस्तान बनाएंगे। जो इस्लाम के उद्देश्यों का झंडाबरदार होगा।

ऐसी स्पष्टता हर देश के राष्ट्रीय उद्देश्यों में होती है। हर राष्ट्र का प्राथमिक सत्व-मूल या प्राथमिक धर्म होता है। अमेरिका, यूरोपीय देश धर्मनिरपेक्ष हैं तथा बाकी धर्मों के साथ उनका समान व्यवहार है बावजूद इसके धर्म, इतिहास से जो पंरपरा है उसकी छाप राजा-रानी के राज्याभिषेक में मिलेगी। पेरिस में ऐतिहासिक तीर्थ नोट्रे डैम चर्च जल कर खाक हुआ तो फ्रांस की सरकार और राष्ट्रपति मैक्रों उसके पुनर्निर्माण में जुटे। ऐसे ही जर्मनी धर्मनिरेपक्ष है लेकिन ईसाई त्योहार क्रिसमस, ईस्टर संविधान संरक्षित त्योहार हैं वही सरकारी स्कूलों में धार्मिक पढ़ाई है। यूरोपीय समाजों में पुनर्जागरण से चर्च और राष्ट्र की पृथकता ने वहां धर्मनिरपेक्षता बनवाई और वह हिंदू विचार सर्व धर्म समभाव के समतुल्य है। यह आइडिया वहां इसलिए संभव था क्योंकि इस्लाम को पहले यूरोपीय देशों ने घुसने नहीं दिया। बाद में मुसलमान यूरोप में आए तो इनके उपनिवेश के शरणार्थी या गुलाम होने के मौके के कारण।

विषयांतर हो रहा है। असल बात भारतीय उपमहाद्वीप में इस्लाम के उद्देश्य तथा एक दूसरे के अनुभवों का इतिहास है। उसके चलते 1947 में इस्लाम दो टूक, स्पष्ट उद्देश्य लिए हुए था वहीं हिंदू अपने धर्म, भयाकुल मन, सत्ता भूख और इलहामी ख्यालों के कारण गलती करते हुए था। ध्यान रहे मुसलमान ने कभी नहीं कहा कि भारत धर्मनिरपेक्ष होगा तभी वे भारत में रहेंगे। मुसलमान हर स्थिति, हर जगह रहने में तत्पर होता है। कम्युनिस्टों की धर्म विरोधी व्यवस्था हो या चेचेन्या, चीन जैसे जंगले में, उसे सब बरदाश्त है। जबकि दो-ढाई सौ साल पहले हम हिंदुओं के लिए विदेश यात्रा पाप और वर्जित थी। तभी इस्लाम के लिए कोई देश वंदेमातरम नहीं है। क्योंकि पूरी पृथ्वी पर दारूल इस्लाम स्थापित करना है।

तभी इस्लाम राजनीति से, राजनीति के लिए राजनीतिक लक्ष्यों वाला धर्म है। उसी अनुसार राष्ट्रधर्म, नागरिक धर्म व व्यवस्थाएं है। इस्लामी देश में अविश्वासियों के साथ कैसा सलूक हो, इसके तरीकों में अमन, धिम्मी, जजिया टैक्स, काफिर, कॉन्ट्रैक्ट, संवैधानिक चार्टर के तौर तरीके हैं। मुस्लिम हमलावरों, बादशाहों और सल्तनत ने इन्हीं तरीकों में हिंदुओं के साथ व्यवहार किया है। अकबर ने बिना जजिया टैक्स के अविश्वासियों को धिम्मी प्रजा की तरह माना वहीं औरंगजेब ने धिम्मी प्रजा में जजिया टैक्स लगाया। कई जगह (जैसे कश्मीर) उसके सूबेदारों ने युद्ध के हवाले उन्हें काफिर करार दे मारा-लूटा! उस इतिहास को पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश में हिंदुओं-सिखों के प्रति व्यवहार के समकालीन अनुभवों से भी समझ सकते हैं। सम सामयिक इतिहास का यह भी सत्य है कि अफगानिस्तान में नब्बे के दशक में गुरूद्वारों को तोड़ा गया। तालिबानी सत्ता में आए तो उन्होंने हिंदुओं और सिखों के गैर मुस्लिम होने की पहचान में उनके लिए गेरूआ टैग (yellow tags) पहनना तथा जजिया टैक्स देना अनिवार्य किया।

इस पूरे परिप्रेक्ष्य में हम, भारत के लोग यदि अपने संविधान और उद्देश्यों पर गौर करें तो पहली बात हिंदुओं की वैसी कोई आधिकारिक अहमियत नहीं है, जैसी हर मुल्क में वहां के मूल या प्राथमिक धर्म की है। उलटे हिंदू को फिजूल में बहुसंख्यक करार दे कर सेकुलर राजनीति में हौव्वा बना कि अल्पसंख्यक के साथ अन्याय है। इसी के चलते तुष्टिकरण का बवाल हुआ। राजनीति हुई। नतीजा सामने है। दोनों वर्ग अपने अस्तित्व, अस्मिता पर न केवल चिंता में हैं, बल्कि 9/11 के बाद के वैश्विक नैरेटिव के प्रभावों में हिंदू के घर-घर ‘दुश्मन’ चिन्हित है वही मुस्लिम घर और घेटो में भी है।

और कितना खराब है जो भारत ने संविधान में ‘सेकुलर’ रखा हुआ है और व्यवहार उस हिंदूपने का है, जिसमें न उद्देश्य मालूम है और न स्पष्टता और न बहादुरी व ईमानदारी है! ले देकर यह सनक है कि मुसलमान ने ऐसा किया, तो हम भी वैसा करें। अर्थात इतिहास का बदला लेना है! यदि यह प्रण, यही कसौटी है तो दिल्ली का प्रधानमंत्री, लखनऊ का वजीर क्या मुसलमान को वैसे मारेगा जैसे महमूद गजनी, कुतुबुद्दीन ऐबक ने हिंदुओं को मारा, उन्हें धर्मांतरित किया या जजिया टैक्स लगा उन्हें दोयम नागरिकता की जिंदगी दी? जबकि हिंदू सत्ता और धर्माचार्य भी मुसलमान का धर्मांतरण नहीं कर सकता हैं क्योंकि हिंदू धर्म में घर वापसी या धर्मांतरण का विचार-फैसला है ही नही। फिर जब धर्माचायों, हिंदू नेताओं (भाजपा, संघ सहित) ने जात-पांत को और हवा दे कर ऊंच-नीच, भेदभाव को आस्मां पर पहुंचा दिया है तो धर्मांतरित हिंदू यदि वापिस हिंदू बना भी तो क्या उसे समानता से जीने की जिंदगी होगी? तब अगला तरीका है (जो इस्लाम का कश्मीर में था) मुसलमान को भगाएं? या फिर संविधान बदल कर, हिंदू राष्ट्र घोषित कर इस्लाम की धिम्मी जैसी व्यवस्था करें, जिसमें मुसलमान दोयम दर्जे की नागरिकता में रहे। भारत में रहने के लिए जजिया टैक्स दे! क्या इन तरीकों में कुछ भी संभव है? ऐसा कोई भी तरीका, उद्देश्य हम हिंदुओं की दृष्टि, बुद्धि के बूते, उसके शौर्य के बस की बात नहीं है। न इजराइल की तरह ठोक सकते हैं और न उनकी तरह यहूदी राष्ट्रधर्म और धर्मनिरपेक्षता के समन्वयन में दो टूक रक्षा-सुरक्षा ठोस बना सकते हैं। तब भविष्य की दिशा और मुकाम क्या है? इस पर कल।

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By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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