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गृहयुद्ध कितने दशक बाद?

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civil war: सवाल चौंका सकता है। लेकिन यदि विदेशियों के शासन को छोड़ कर सोचें तो हिंदू शासनों के दौरान हिंदुस्तान में स्थिरता कब, कहां, कितनी रही है? विशेषकर सन् 711 में अरब उमय्यदी कबीले के सेनापति मुहम्मद बिन कासिम के हमलों के बाद? उसके बाद के इतिहास में हिंदू राजाओं, उनके शासन की उम्र और अवधि कितने दशकों या सदी की थी? स्वतंत्र भारत के इतिहास के दो परिवारों, दो विचारों पर गौर करें। एक नेहरू-गांधी परिवार और दूसरा संघ-मोदी परिवार। इन दोनों के चौदह प्रधानमंत्रियों के शासनों में कितनी तरह के कोहराम, धार्मिक-जातीय टकराव और लड़ने-लड़ाने, काटो-बांटो और राज करो के अनुभव हैं? ये अनुभव अपने आप धीरे धीरे भारत को क्या गृहयुद्ध की ओर ले जाते हुए नहीं हैं? फिर संघ-मोदी परिवार तो यों भी दिन-रात पानीपत की लड़ाई के इतिहास में सांस लेता है।

यदि चेहरों से भारत भविष्य का सिनेरियो बूझें और नरेंद्र मोदी के बाद अमित शाह, योगी आदित्यनाथ, हिमंत बिस्वा सरमा, अनंत हेगड़े, अनुराग ठाकुर, तेजस्वी सूर्या जैसे मोदीवादी या नेहरू-गांधी परिवार के राहुल गांधी, प्रियंका गांधी, मल्लिकार्जुन खड़गे आदि के नेतृत्व में भारत के अगले दो चार दशक हुए तो परिणाम में यह स्थिति क्या नहीं होगी कि, ‘जब कल्हण पंडित ने अपना इतिहास समाप्त किया, तो गृहयुद्ध के अलावा और कुछ नहीं था, और दमारा (या स्थानीय सामंती प्रभु), ‘जलने, लूटने और लड़ने में कुशल,’ देश के लिए एक आतंक थे। केंद्रीय अधिकार समाप्त हो गया था और राजा अधिक असहाय व अक्षम हो रहे थे’। या यह वाक्य कि,  “एक राजा के राक्षस” ने उन्नीस साल, तीन महीने और पच्चीस दिनों में कश्मीर को खा लिया।

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ये वाक्य कल्हण के उत्तराधिकारी इतिहासकार जोनराजा ने कश्मीर के हिंदू राजा सुहादेव (1301–1320) की विरासत पर हताशा व्यक्त करते हुए कोई सात सौ साल पहले (1320 ईस्वी में) लिखे थे।

और सत्य है कश्मीरी हिंदुओं को आगे गृहयुद्ध से अधिक भयावह अनुभव भुगतने पड़े।

निश्चित ही आज के भूमंडलीकृत विश्व और आधुनिक स्थितियों में बहुत कुछ नया है। राष्ट्र राज्य के अस्तित्व को टिकाऊ रखते कई कवच हैं। लेकिन जिस कौम ने इतिहास से नहीं सीखा है, जो देश राजनीति और शासन बुद्धि में गंवार, लकीर का फकीर है, जो अपने ही पांवों पर कुल्हाड़ी मारता है, जिसकी हर साख पर एक दूसरे को चोंच मारते उल्लू बैठे हैं तो भला ऐसे देश को आधुनिक फेविकोल भी क्या बचाए रख सकेंगे? इसलिए गृहयुद्ध नियति है। पहले मेरा पचास, सौ साल बाद सिनेरियो का कयास था। अब लग रहा है सब कुछ जल्दी होता हुआ है। 140 करोड़ लोगों के दिलो-दिमाग में छोटी-बड़ी हर घटना अविश्वास, झूठ और नफरत के भभके पैदा कर रही है। समझदारी, समझ, धैर्य का स्पेस लगातार घटता हुआ है।

आज खबर है दिल्ली में दो जगह धमाके हुए। कल खबर थी एक दिन में बीस हवाई उड़ानों को उड़ाने की धमकी मिली। सप्ताह में ऐसी एक सौ धमकियां! उससे पहले खबर थी दुर्गा विसर्जन के दिन एक साथ इतनी जगह हिंसा। बहराइच में उपद्रव। मुसलमान ने हिंदू नौजवान को गोली मारी। पुलिस ने दो मुसलमानों की टांग में गोली मार कर गिरफ्तारी की। और इन खबरों पर विपक्ष के पाले में प्रतिक्रिया है कि यह सब चुनाव के चक्कर में, लोगों को भयाकुल बनाने की चालबाजियां हैं। त्योहार के सीजन में यह सब होगा ताकि महाराष्ट्र में वोट पकें। इस तरह की बाते लोगों के सड़े दिमाग की नहीं, बल्कि बेइंतहां अविश्वास की मनोदशा का प्रमाण है। इसी सिलसिले में सोचें कि दो सिख उग्रवादियों को उड़ाने की साजिश में अमेरिका और कनाडा ने मोदी सरकार पर जो ऊंगली उठाई है तो उसे पीड़ित पक्ष ने कैसे लिया होगा? देश विदेश का हर सिख किस तरह सोचता हुआ होगा?

नरेंद्र मोदी और अमित शाह से नफरत जैसी बातों का विशेष अर्थ नहीं है लेकिन हिंदू और सिख के संबंधों में करोड़ों लोगों के दिल दिमाग पर यदि असर की वास्तविकता में विचारें तो इतिहास का यह कैसा मोड़! हम हिंदुओं के लिए कृपाणधारी सिखों का ज्यादा अर्थ है या लाठीधारी आरएसएस, हिंदू राज की पुलिस, सीबीआई, ईडी, रॉ की बेहूदा, झूठी ताकत का ज्यादा मतलब है? यदि मुसलमान से कभी लड़ाई हुई (जो कि होगी, क्योंकि उसके बिना बेचैन इस्लाम तथा मोदी-शाह का पानीपत सिनेरियो बनता नहीं है) तो हमें सिख चाहिए या मुसलमान-सिख का साझा?

इसलिए मैं हैरान हूं मोदी-शाह के इन पैंतरों पर, जिसमें जाट सिख की जगह पंजाबी हैं और जाट की जगह राम रहीम के दलित भक्त हैं! मराठाओं की जगह माली हैं….. हिसाब से मोदी-शाह-संघ के पानीपत लड़ाई के सिनेरियो में हिंदुओं की जातियों का हिसाब भी नहीं लगना चाहिए। मगर जब मोदी-शाह ने ही भगवा संतरे की हिंदू एकता को छील कर उसे अलग-अलग जातियों की फांकों में बांट डाला है तो अगला गृहयुद्ध भी वैसा ही होगा जैसा कश्मीरी राजा सुहादेव के बाद हुआ था। हिंदुओं को तब समझ ही नहीं आया कि हुआ क्या, लड़ें कैसे? ईरान से आए कुछ सूफियों ने अचानक सत्ता अपनी बना डाली, हिंदुओं को मुसलमान बनाया। ऊपर से इतिहास में यह थीसिस भी बना डाली की निचली जातियां ब्राह्मणवाद से त्रस्त थीं। उसने राजी खुशी इस्लाम अपनाया।

यह महाझूठ है लेकिन इतिहास ऐसा ही लिखा हुआ है क्योंकि हिंदू राजशाही को तब भी अहसास नहीं था कि राज कैसे किया जाए। और सच्चे इतिहास के लिए भी लड़ना होता है!

विषयांतर हो गया है। लेकिन इन दिनों में कुछ कश्मीर की असलियत और उस पर लिखने की धुन में हूं। यह वास्तविकता समझ आती है कि कश्मीर प्रमाण है कि सनातन धर्म, सनातन संस्कृति ने भारत को ‘द वंडर दैट वाज इंडिया’ (सतयुग) बनाया लेकिन फिर कलियुग आना, हिंदुओं का गुलाम होना दरअसल राज्येंद्रियों की अचेतना व राजनीतिक मूर्खताओं से था। कश्मीर का आदिकाल, ईसा पूर्व और ईसा बाद का इतिहास हिंदू-बौद्ध साझे का गौरवपूर्ण काल था। मगर जब बाहरी धर्म आया और उसकी राजनीति व समझदारी की चुनौती में परीक्षा की घड़ी आई तो हिंदू राजाओं की नासमझी तथा जहालत भरे अहंकार ने सब डूबो दिया। कश्मीर, सभ्यता-संस्कृति की कब्रगाह बना। मेरा मानना है पश्चिम के धर्म राजनीति से जन्मे हैं। एक उद्देश्य विशेष से पैदा हैं। इसलिए राजनीति, बुद्धि और तलवार याकि बुलबुल शाह व मेहमूद गजनवी दोनों ही तरह के उपयोगों में इस्लाम प्रवीण है, खूंखार है, समझदार है। वहीं हिंदुओं को या तो लाठी और बुलडोजर चलाना आता है या जुमले गढ़ना। तभी गृहयुद्ध, आपसी लड़ाई, पतन बार-बार है। वह हिंदुओं के अपने ही राजाओं और प्रधानमंत्रियों के अहंकारों के आपसी टकराव से है।

सो, हमारा असल मसला पृथ्वीराज बनाम जयचंद का स्थायी हिंदू वर्गीकरण है। तू मेरा नहीं तो मैं तेरा नहीं। और इसके अहंकार की जंग में सब जायज। इसलिए पक्ष के हिंदू और विपक्ष के हिंदू का वर्गीकरण सन् 2024 में भी पूरे समाज को अविश्वासी बना चुका है। 140 करोड़ लोगों में धर्म और जाति समूहों में परस्पर अविश्वास है तो शासन और व्यवस्था, चुनाव और राजनीति में भी तेरे और मेरे का वर्गीकरण है। दो खेमे हैं। एक उत्पीड़क है दूसरा पीड़ित। एक नायक है और दूसरा खलनायक। बीच का कोई स्पेस नहीं है। मजेदार बात यह है कि दोनों ही पक्ष बुनियादी तौर पर अपने को पीड़ित करार दे कर बदले की भावना में सुलगे हुए हैं। नरेंद्र मोदी, सरकार, भक्त हिंदुओं में पीड़ित पक्ष होने का स्यापा है तो राहुल गांधी, विपक्ष और मुसलमानों का भी पीड़ित होने का स्यापा है। इसलिए परस्पर विश्वास की गुंजाइश ही नहीं बची। अपने आप हर चुनाव में, हर तरह के शक्ति परीक्षण में आर-पार की लड़ाई की जिद्द है।

कोई आश्चर्य नहीं जो हरियाणा चुनाव में भाजपा की जीत पर वे सब लोग अविश्वास और ईवीएम मशीन की धांधली की दलील लिए हैं, जो विरोध में सुलगे हुए हैं। अब यह सुनने को मिल रहा है कि महाराष्ट्र और झारखंड में भी भाजपा जीतेगी, दिल्ली, असम, यूपी को भी जीत लेगी क्योंकि ईवीएम मशीनों के रहते मोदी-शाह कभी हार नहीं सकते हैं! दोनों पक्ष सत्य, सुलह, युद्धविराम, समझदारी का अंश मात्र भी लिए हुए नहीं हैं। ऐसे में यदि बीस-पच्चीस साल यह सिलसिला चला तो आगे गृहयुद्ध क्या नहीं बना होगा?

न केवल पानीपत का अखाड़ा सजा हुआ है, बल्कि पीड़ित-उत्पीड़ित के ख्याल और इलहाम में भावनाओं को सुलगाने की हर वह कोशिश है, जिससे देश भले दांव पर लगे, राजनीति, शासन व्यवस्था सबसे भरोसा उठ जाए मगर हारना नहीं जीतना है।

यों लगता है अब सुलगाने की भी जरूरत नहीं। भारत में लोगों के दिमाग को सुलगाने के आज जितनी तरह के साधन, तरीके और वायरस हैं, शायद ही दुनिया में कहीं हों। चुनाव लड़ना भी अब तरीका है। जो जीतता है वह अहंकार में भभके मारता है जो हारता है वह मन ही मन झुलसता है। दोनों में और गांठें बनती हैं। दुकान नफरत की हो या प्रेम की, दोनों में संग्राम है। एक तरफ लाठी से लेकर बुलडोजर, मीडिया है, तो वहीं दूसरी और सूफियाई प्रेम की भाषा, सोशल मीडिया व अविश्वासों की आंधी है।

अकेले भारत की यह खूबी है जो नेहरू-गांधी बनाम संघ-मोदी के आइडिया, सेकुलर बनाम हिंदू विचार में लड़ाई झूठ पर, झूठ के लिए, झूठ द्वारा लड़ी जा रही है। यों इन दिनों अमेरिका में भी डोनाल्ड ट्रंप बनाम कमला हैरिस, कैथोलिक बनाम गैर-कैथोलिक याकि कट्टरपंथी बनाम उदारवादी में भयावह लड़ाई है। वहां भी ट्रंप भगवान का अवतार हैं। अमेरिका बुरी तरह बंटा है। लेकिन वहां झूठ के बोलबाले के अलावा बुद्धि, सत्य, सिद्धांत, वैचारिकता और ईमानदारी की उपस्थिति स्थायी है। अमेरिका के बुद्धिमना, दूरदृष्टा संस्थापकों ने बुद्धि का खुलापन और सत्य की जिद्द में वह संविधान, उसका ऐसा चेक-बैलेंस बनाया है कि सत्य, ज्ञान, विज्ञान की गंगोत्री वहां कभी सूख नहीं सकती।

जबकि भारत में कुछ भी नहीं है! इसलिए लगता है हिंदुओं को कोई श्राप है जो बेताल पचीसी की तरह बार-बार सोचना होता है, अनुभव करना होता है कि फलां राजा ने इतने वर्ष, इतने महीने, इतने दिन राज करने के बाद भारत को यह क्या बना कर छोड़ा जो देश गुलाम हुआ। पानीपत की लड़ाई हुई। देश विभाजित हुआ। अब इक्कीसवीं सदी में भी उसी दिशा में बढ़ते हुए। अपने ही लोगों के आपसी गृहयुद्ध, पानीपत की लड़ाई का सिनेरियो!

सोच सकते हैं फालतू बात! पर इतिहास को तो याद रखें। विभाजन को तो नहीं भूलें!

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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