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गधेड़ो!

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क्या ‘गधा’ मनुष्य हो सकता है? हां, भारत में सब संभव है! वह राजा बन सकता है, मंत्री बन सकता है, कलेक्टर, तहसीलदार, पटवारी कुछ भी बन सकता है। बस, माटसा (मास्टर साहब) उसको पढ़ा दें! मारवाड़ी-मेवाड़ी में गधेड़े को मनक (मनुष्य) बनाने की एक व्यंग्यात्मक लोककथा है। पर गधा, मनुष्य बना तो भी अपनी प्रवृत्ति से कैसे बाज आ सकता है। उसके न काज के और न काम के मिजाज के साथ खा-खा कर मुटियाने और दुलत्ती मारने की आदत नहीं जाएगी। मेरा मानना है स्वतंत्र भारत के 78 वर्षों का यह एक अभूतपूर्व जुगाड़ है जो ‘गधेड़े’ को ‘मनक’ बनाने में अपनी यूनिक शिक्षा विकसित है। इस आविष्कार या जुगाड़ के पांच तत्व है- गधापन लिए प्राणी, दूसरे माटसा (मास्टर), तीसरे अंग्रेजी भाषा, चौथे रट्टामार पढ़ाई और अंत में बेचारा भोला धोबी या जनता!

हाल में अमेजन प्राइम पर एक लघु फिल्म देखने को मिली। शीर्षक है- गधेड़ोः डॉन्की! लोककथा पर बनी यह फिल्म मुश्किल से पंद्रह मिनट की होगा। फिल्म बनाते हुए फिल्मकार का व्यंग्य, कटाक्ष क्या था, मुझे पता नहीं। लेकिन इस छोटी सी फिल्म के मेरे जितने अर्थ हैं, वे आधुनिक भारत की सच्चाई हैं। उस भीड़ की भी सच्चाई जो बचपन से जवानी तक या तो टाइम पास करती है या जो सर्वशिक्षा के नाम पर ‘मनक’ हो जाने का ठप्पा लिए होती है। और लायक होने के लिए वैसे ही जुगाड़ बैठाती है जैसे गौरू धोबी अपने गधे को ‘मनक’ बनाने के लिए माटसा को पैसे दे कर जुगाड़ बनाता है।

माटसा याकि शिक्षक का जुगाड़ क्या है? अंग्रेजी की बारहखड़ी आना। और उससे शिक्षा व टाइमपास। कक्षा में लड़के सो रहे हैं, लेटे हैं, मुर्गा बने हैं, मटरगश्ती या क्लास के बाहर खड़े हैं और माटसा ब्लैकबोर्ड पर चाक से अंग्रेजी में संडे, मंडे जैसी शब्दावली के उटपंटाग उच्चारण, वर्तनी से पढ़ा रहा हैं। माटसा अपने में मगन हैं। मस्त और खामोख्याली का जीवन है। देश के मनुष्यों का निर्माण कर रहा हैं!

गौरू धोबी कौतुकता से माटसा के काम को देखता है, सोचता है यह क्या है? वह माटसा के आगे निठल्ले खड़े-बैठे, अलमस्त चेहरों में अपने गधे का ख्याल बनाता है। उससे रहा नहीं जाता, वह माटसा से पूछता है तुम क्या करते हो? वह गौरू को ज्ञान देता है, मैं गधेड़ों (गधों) को ‘मनक’ (मनुष्य) बनाता हूं। भोले गौरू का दिमाग दौड़ता है। और एक दिन माटसा को रोक विनती करता है- माटसा, मेरा यह गधा है कुछ नहीं करता है, दिन-भर खाता रहता है, कहते हुए माटसा के हाथ में नोट की एक गड्डी थमा देता है। और माटसा भोले गौरू की मूर्खता से मौके को लपकता है। वह उससे गधे के गले की रस्सी ले लेता है।….और उस गधे को दूसरे धोबी को बेच कर बात भूल जाता है।

लेकिन धोबी तो गधे के ‘मनक’ बनने की प्रतीक्षा में है। छह महीने बाद वह माटसा के पीछे पड़ता है। बार-बार अपने गधे को ले कर तकाजा करता है कि वह ‘मनक’ बन गया? वह कहां है? आखिर तंग आ कर माटसा उससे पिंड छुड़ाते हुए जवाब देता है, हां, वो मनक बन गयो। शहर में वह तहसीलदार है।

गौरू और उसकी पत्नी गधेड़े के मनक बनने की खुशी में उछलते हुए, उसके तहसीलदार (मूल कथा में राजा बनना है) बनने की बात सुन रस्सी ले कर, उसे घर लिवा लाने के लिए शहर की और चल देते हैं। शहर में तहसीलदार आफिस पहुंच उसके कमरे के बाहर से उसे देखते है। सोने की चेन, कड़े पहने एक मोटे अफसर को देख खुश होते हैं। कमरे के बाहर चपरासी से भिड़ते हैं। गौरू कहता है मैं उसका मालिक हूं और देखों मैं रस्सी ले कर आया हूं तो इस शोर को सुन तहसीलदार बाहर निकलता है। और बहस कर रहे गौरू को पीछे से कस कर लात मारता है। बेचारा गौरू चारों खाने चित्त। वह कराहते हुए उठता है और अपनी पत्नी से कहता है ‘गधो भले मनक बन जाए फिर भी दुलत्ती मारने की आदत नहीं जाएगी’! …

अब इस तस्वीर में भारत के भोले लोगों की ठगाई, बिना स्वभाव-संस्कार के अंगूठा छाप साक्षर बनाने की जिद्द तथा मुफ्त या पैसों से या आरक्षण से गधेड़ों को ‘मनक’ बनाने की अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था और उसकी नौकरियों व नौकरशाही, मंत्रियों के समाज को तौलें तो 140 करोड़ लोगों में गौरू जैसे आम लोगों के अनुभव व नियति का क्या साक्षात्कार नहीं होगा? बेचारा गौरू, अपनी मासूमियत में ‘मनक’ बनवाने की शिक्षा और व्यवस्था से कैसा तो धोखा खाते हुए, जेब कटवाते हुए है और फिर दुलत्ती, लात व लाठी खाने का भाग्य लिए हुए है।

फिल्म का यह सीन भी पते का है जो गौरू धोबी के यहां वाशिंग मशीन में कपड़े धुल रहे हैं और गधा निठल्ला खड़ा है। यह इस सच्चाई का प्रतीक है कि गांव-कस्बों या शहरों में जो पुश्तैनी काम थे, जातीय-वर्ण व्यवस्था से जो स्किल, काबलियत, हुनर था उस सबका मशीनी युग में अर्थ नहीं है। और निठल्ले, बेकार नौजवानों के लिए अंग्रेजी की ए, बी, सी में रेंकना, रट्टा मार करके ‘मनक’ बनने की डिग्री व ठप्पे के अलावा कुछ नहीं है। ऐसे ‘मनक’ बनने से ही तो नौजवान के लिए कॉन्स्टेबल, सिपाही, पटवारी, कलेक्टर, कोतवाल, मंत्री बनने की लाइन है। वह लाइन जिससे दुलत्ती मारने, लाठी के पॉवर से लोगों को हांकते रहने की वह परंपरा कायम है जो सदियों की गुलामी से शाश्वत है। दुलत्ती दर दुलत्ती और रेंकते ही रेंकते और अपने आपको विश्वगुरू मानना। याद करें अपनी इन कहवातों को कि- गदहा गावे, ऊंट सराहे! गधा घूरा देख कर ही रेंके! गधा घोड़ा एक भाव! गधा धोने से बछड़ा नहीं हो जाता! गधे की खातिर सर मुंडवाए! गधों के गले में गजरा! गधों की यारी में लातों की तैयारी! गधे ही मुल्क जीत लें तो घोड़ों को कौन पूछे! गधे के ऊपर वेद लदे, गधा न वेदी होय!

हां, हमारा कलियुग गधे और गधेड़ों का ही है। और नोट ऱखें अभी तो वाशिंग मशीन से गधे बेकार हैं लेकिन आने वाले एक-दो दशक बाद तो नकली बुद्धि याकि एआई से ‘गधों’ को ‘मनक’ बनाने के माटसा भी नहीं होंगे और न ही साक्षर गधेड़ों के लिए काम होगा।

मैंने हाल में सनातन परंपरा की शिक्षा व्यवस्था पर पढ़ा है। इसलिए ‘मनक’ बनाने की मौजूदा प्रक्रिया से हटकर भारत के उस समय की वर्ण व्यवस्था, गुरूकुल पढ़ाई तथा शिक्षक की भूमिका की पर जरा गौर करें। तब मान्यता थी कि संस्कार से बच्चे के स्वभाव विकसित होने के बाद ही उसकी काबलयित व गुणों के अंकुर फूटते हैं। तब तक उसके कर्म, वर्ण व करियर का निश्चय नहीं हो सकता। तब जाति और वर्ण जन्म से तय नहीं था, बल्कि कर्म से वर्ण का संबंध था। व्यक्ति के गुण कैसे हैं, वे काम की कैसी प्रवृत्तियां लिए हुए हैं इसकी दिशा जान कर गुरूकुल का गुरू तय करता था कि बच्चे को क्या पढ़ाना है, वह किस कर्म, किस वर्ण श्रेणी (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र) के लिए फिट है। मतलब भले जन्म से कोई बड़े परिवार का बच्चा हो लेकिन उसके संस्कार, संगति, स्वभाव में ऐसी बातें हो सकती हैं, जिनका प्रभाव संस्कार निर्माण में जन्म के प्रभाव से भी अधिक भारी व प्रबल हो। ऐसी स्थिति में ब्राह्मण की संतान क्षत्रिय, वैश्य या शुद्र कुछ भी हो सकती है। शुद्र का बेटा ब्राह्मण का कर्म करने वाला हो सकता है।

इस परंपरा के प्रमाण ठोस है कि वर्ण याकि काम, शिक्षा की दिशा का निश्चय बच्चों की प्रारंभिक पढ़ाई से शुरू होता था। बालक के बतौर मनुष्य संस्कार, दीक्षा के नाते उपनयन, जनेऊ संस्कार के बाद बच्चे गुरूकुल जाते थे। इस संस्कार की कसौटियों में जिसका जल्दी या देरी से संस्कार होता था उस अनुसार भी लक्षण बनता था कि वह किस कर्म, जाति के गुण लिए हुए है। यदि कोई छात्र पांच-सात साल की उम्र में ही उपनयन संस्कार योग्य हुआ तो समझा जाता था वह बच्चा ब्राह्मण वर्ण का होगा। आठ-नौ वर्ष की उम्र में उपनयन प्राप्त करने की योग्यता के छात्र का क्षत्रिय वर्ण में तथा ग्यारह-बारह वर्ष की उम्र में उपनयन होने के मायने बच्चा वैश्य वर्ण के काम की संभावना वाला है। और जो इस उम्र तक भी उपनयन की योग्यता की कसौटी में खरा नहीं वह शुद्र श्रेणी के सेवा कार्यों के लिए उपयुक्त समझा जाता था।

गुरूकुलों में शिक्षक द्वारा बच्चों के ऑर्ब्जवेशन, निरीक्षण से, उन्हीं के द्वारा शिक्षार्थी के मिजाज, प्रवृत्ति के अनुसार वर्ण, करियर विशेष की काबलियत की शिक्षा शुरू होती थी। उपनयन प्राप्त किए हुए छात्रों में भी गुरू छंटनी करते थे। शिक्षक की जिम्मेवारी थी कि वह छात्र पर नजर रखें। उसके गुण, कर्म तथा स्वभाव को बूझते, निरीक्षण कर उसके बारे में निर्णय बनाएं। तब मान्यता थी कि बारह वर्ष की उम्र तक लड़के-लड़कियों का स्वभाव परिपक्व होता है। यदि छात्र स्वतंत्र माहौल में पले तो सोलह वर्ष की उम्र तक उसके वर्ण का निर्णय होता था। इस आयु के बाद पूरी तरह वर्ण अनुरूप उसकी शिक्षा-दीक्षा हुआ करती थी।

जाहिर है सनातन धर्म की मूल धारणा है कि हर मनुष्य एक जैसा नहीं है। हर व्यक्ति अपने गुण, अवगुण, काबलियत में अलग-अलग व्यक्तित्व, अलग-अलग करियर का स्वभाव लिए हुए है। प्राणियों में पशु अपनी-अपनी प्रजाति में जैसे एक से होते हैं, गधे, गधे ही होंगे तो हंस ही हंस लेकिन मनुष्यों में स्वभाव के फर्क से गधेड़े हैं, शेर दिल हैं, बुद्मिमान हैं, कारोबारी मिजाज के हैं तो नौकरीपेशा सेवादार भी। कोई न माने इस बात को लेकिन अंग्रेजों के समय तक भारत की शिक्षा में, अंग्रेजों की नौकरी व्यवस्था में (सेना से लेकर वायसराय के स्टाफ तक की नियुक्तियों में) भारतीयों के संस्कारगत स्वभावों के अनुसार लोगों की छंटनी का काम था। अंग्रेजों की बराबरी के आईसीएस अफसर या प्रोफेसर, सैनिक ओहदों, कारोबारियों को मौका सबमें कंपीटिशन (रट्टामारा अंग्रेजी परीक्षाओं का नहीं) था और शिक्षक भी काबिल चुने जाते थे वही लाठी, कलम लिए अफसर भी वर्ण-कर्म स्वभाव के अनुसार होते थे। इस सत्य के भी प्रमाण हैं कि मुगल दरबार हो या अंग्रेज शासन सबमें ईमानदारी, चरित्र और बुद्धि का मान था। अकबर के दरबार से वायसराय-जनरल की परिषदों के चेहरे इसका प्रमाण हैं।

लेकिन 15 अगस्त 1947 से सितंबर 2024 के मौजूदा समय तक, नेहरू से ले कर मोदी तक का भारत अनुभव क्या है? भारत उस गधेड़ेपन का मारा है, जिसमें सरकार माई बाप है और प्रधानमंत्री अपने आपको भगवान मानते हैं। सरकार माटसा (मास्टर) बन गई है। उसी से शिक्षा तय है और गुण, संस्कार, स्वभाव सब गौण है। गधे-घोड़े सब बराबर हैं। जुगाड़ और पैसे से गधेड़ों को ‘मनक’ बनाने की प्रक्रिया है। नतीजतन शिक्षा और अवसरों में जहां भयावह असमानता बनी है वही सारा सिस्टम ही मानों गधेड़ों के लिए गधेड़ों द्वारा गधेड़ों की दुलत्ती को समर्पित है। क्या मैं गलत हूं?

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By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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