चीन दुनिया की पहेली है। एक ऐसी पहेली जिसमें मनुष्य बुनियादी तौर पर व्यवहार में भला है मगर तब जब वह आज्ञापालक हो। मतलब वह पिंजरे का अनुशासन लिए हुए हो। स्वतंत्रता बाद में पहले ड्यूटी। पहले आज्ञाकारी फिर अधिकार का हकदार। वैयक्तिकता बाद में पहले कम्युनिटी। संर्घष बाद में पहले हारमनी, सांमजस्यता! मनुष्य की यह तासीर ‘गुआक्सो’ जुमले में अभिव्यक्त है। चीन में गुआक्सों वह विषय, वह आईडिया, वह रट्टा है जिसे चाहे तो चीनी मनोदशा या उसकी बुनियाद कह सकते है। मेरी धारणा है कि इसी से ड्रेगन वाली खूंखार तासीर और इतिहास की सभ्यतागत की खुरापाते है। निश्चित ही चाईनीज राजवंशों की इतिहास में वैश्विक डुगडुगी है। लेकिन सबका आधार गुआक्सो प्रवृति का पालतू मानव। चाईनीज सभ्यता के इतिहास में भी वह स्पार्क, वह पुर्नजागरण, सौ फूल खिलने की वे क्रांतिया कहा है जिससे मानव स्वतंत्रता को पंख लगा हो। कौम के नए अनुभव हो। ज्ञान-विज्ञान और सत्य शोध की बुद्धी विकसित हुई हो।
समकालीन समझ में जो लोग चीन को विकसित तथा मनुष्य कल्याण का रोल मॉडल मानते है या उसके विश्व की औद्योगिक फैक्ट्री होने से गौरवान्वित है वे इस सच्चाई से बेखबर है कि चीन, बेताल पचीसी का वह कपटी तांत्रिक और साधू है जिसकी माया अंततः छली और नकली साबित होगी। पिछले पचहतर वर्षों पर गौर करें। क्या यह सत्य नहीं है कि न माओ की क्रांति से लोगों का, दुनिया का भला हुआ और न देंग शियाओं पिंग व शी जिन पिंग की लालपूंजीवादी रीति-नीति ने लोगों की मनुष्य गरिमा बनाई। चीन में क्या है किसी व्यक्ति की स्वतंत्र बुद्धी या गरिमा की औकात?
माओ त्से तुंग ने भी अपनी ताकत, अपने प्रयोगों का जलवा बनाया। उनके बाद देंग शियाओ पिंग ने पूंजीवाद का तंत्र-मंत्र अपनाया। पूंजीवादी तौर तरीकों की नकल से चीन का नया तांत्रिक चौगा बनाया। इसके बूते उपलब्धियों के तमाम झंडे गाढ़े। लेकिन क्या वह सब क्रूरता और नकल से नहीं था? और फिर वैश्विक महामारी कोविड का वायरस फूटा तो बतौर राष्ट्र-राज्य, सभ्यतागत आचरण में उसका क्या व्यवहार था? चीनी व्यवस्था ने अपने ही लोगों के साथ क्या व्यवहार किया? याद करें महामारी के वक्त चाईनीज लोगों के साथ प्रशासन का कैसा सलूक था। मनुष्यों को भेड-बकरी की तरह पकड़ कर बाड़ों में ठूसा गया या उन पर वैक्सीन लगी। उन्हे आंतकित-प्रताडित किया गया। महामारी की विपदा में दुनिया में मनुष्यों के साथ सर्वाधिक पशुगत व्यवहार की जगह चीन था। राष्ट्रपति शी जिन पिंग, उनकी कम्युनिस्ट पार्टी और तंत्र-सिस्टम न अपने लोगों के साथ सही सलूक करते हुए थे और न अंदरूनी और वैश्विक तौर पर जवाबदेह थे।
दोषी शी जिन पिंग या बीजिंग का सत्ता वर्ग नहीं है बल्कि 150 करोड चीनियों की मनोदशा की वह विरासत है जिसमें बच्चेों को स्कूली शिक्षा से (गुआक्सो) ईसा पूर्व वाले संस्कार पैठाए जाते है. मतलब मानव धर्म है आज्ञा की पालाना। मनुष्य स्वतंत्रता और अधिकार बाद में तथा पहले कर्तव्यकारी और आज्ञाकारी होना। यही है सिनालॉजी का सारतत्व। मतलब चीनी सभ्यता-संस्कृति की प्रकृति, उसकी बुनावट का सार! कंफ्यूशियस ने भी चीनी लोगों के बाड़े में जिंदगी जीने के लिए वैयक्तिक जीवन को उसके परिवेश की दुनिया में जैसे गुथा है वही जड़ दिमाग की वजह है। तभी तो माओं या शी जिन पिंग, कम्युनिस्ट पार्टी का जो शंखनाद वही फिर समाज का उदघोष। उसका टारगेट। इसके सामने व्यक्ति और वैयक्तिक स्वतंत्रता सब बेमानी। चीनी नागरिक को अपनी बुद्धी और स्वतंत्रता को अपने नेता व मालिक को सुपुर्द करना ही है। यों कंफ्यूशियस दर्शन में कई मनभावक सत्य है लेकिन चीन के राजवंशों व साम्राज्यों ने इंसान को उसके हवाले भी प्रजा को जैसेा कर्तव्यनिष्ठ, अनुशासित बनाया है तो उससे समाज का कभी मशीनीकरण हुआ या तो कभी अफ्रीमीकरण।
तभी हर अनुभव, हर प्रयोग और हर समय का आखिर में एक जैसा हश्र। 1978 में चीन विश्व आर्थिकी से बाहर तथा अछूत था। अमेरिकी राष्ट्रपति निक्शन व उनके विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर ने दिमाग की स्वतंत्र फितरत, अपने अमेरिकी स्वार्थ में चीन पर हाथ रखा। उसका अछूतपना खत्म किया। उसे पूंजी, तकनीक और मशीन दी और चीन की सस्ती-अनुशासित श्रम शक्ति से विश्व आर्थिकी की उत्पादकता बढ़ाई। अमेरिका और पश्चिमी सभ्यता के लिए एक सस्ती औद्योगिक फैक्ट्री बनी। निक्सन, रोनाल्ड रीगन, माग्ररेट थेचर आदि पश्चिमी नेताओं को गलतफहमी थी की पूंजीवादी मलाई से लोग और समाज आजाद ख्याल बनेगें। वक्त धीरे-धीरे चीन को लोकतंत्र की और ले जाएगा।
जो हो, पश्चिम के पारस से कंगले-भूखे चीन का कायाकल्प हुआ। वह सुनहरा होने लगा। कोई अस्सी करोड लोग भयावह गरीबी से ऊपर उठे। चीन सफलता की वैश्विक कहानी बना। औद्योगिक उत्पादन, निर्यात, विदेश व्यापार और विदेशी निवेश से अर्जित सरकारी मुनाफे व राजस्व से चीन विश्व अर्थव्यवस्था का कुबेर बना।
मगर चीन की मनोदशा में, चीनी कम्युनिस्ट पार्टी, राष्ट्रपति शी जिन पिंग, बीजिंग के प्रभु वर्ग में इसका अलग ही अर्थ थी। वह इससे इस गुमान में आया है कि हम मिडिल किंगडम’ याकि झोंगजुओ की वह वैश्विक धुरी जिससे बर्बर-हिंसक लोगों से बचने का पथ मार्ग। हमारी नस्ल-खास जिसने वह कर दिखाया जो समकालीन दुनिया में दूसरा कोई नहीं कर सका।
तभी राष्ट्रपति शी जिन पिंग ने अपनी कथित महानता के साथ चीन की महानता की जुगलज़ोडी में ताउम्र राष्ट्रपति बनने का काम किया। अमेरिका से प्रतिस्पर्धा का रो़डमैप बनाया। सो परिणाम वही जो पिछली सदी में भी कई जगह देखने को मिला। सोवियत संघ महान होते-होते क्या आज पुतिन की कमान में दुनिया का मवाली देश नहीं है? मेरा मानना है कि पिछसे सवा सौ सालों में हर उस नस्ल और देश के हाथों शक्ति और समद्धि का वरदान ईश्वर-प्रकृति ने छीना है जिसके शासकों ने अंहकार में अपने को भस्मासुर बनाया। फिर भले वह हिटलर रहा हो यो तमाम तरह के कम्युनिस्ट शासक और निरंकुश शासन व्यवस्थाएं।
सचमुच सोचने वाली बात है कि कौन सी नस्ल और कितने देश है जो विचारधारा या हिटलरी तासीर की कमान से समद्धी और स्थिरता का सतत जिंदादिल सफर लिए हुए है?
पश्चिम के कारण चीन विकास, समद्धि का गतिमान आदर्श देश बना! लेकिन अब आगे की क्या दिशा? जिस आर्थिकी से चीन फूलता हुआ था वही पिचकती हुई है। ये भविष्यवाणियां दमदार है कि राष्ट्रपति शी जिन पिंन कितने ही हाथ-पांव मारे, चीन मंदी की और है। सबकुछ गडबडाता हुआ है। प्रापर्टी और इंफ्रास्ट्रक्चर लायबिलिटी हो गए है। तमाम तरह की सरकारी कंपनियों का कर्ज सकल घरेलू उत्पाद से अधिक 300 प्रतिशत है। ‘वॉल स्ट्रीट जर्नल’ की माने तो चीन का चालीस साल पुराना विकास म़ॉडल ‘चरमराता’ हुआ है। चीन बहुत धीमी वृद्धि के युग में प्रवेश कर रहा है। प्रतिकूल जनसांख्यिकी और पश्चिमी देशों से बढ़ती दूरियों से स्थिति लगातार खराब होते हुए है। इसका विदेशी निवेश व व्यापार पर सीधा असर है। कोलंबिया विश्वविद्यालय में आर्थिक संकटों के विशेषज्ञ-इतिहासकार एडम टोजे के अनुसार- हम आर्थिक इतिहास के सबसे नाटकीय बदलाव को देख रहे हैं।
जाहिर है चीन का जैसे नाटकीय विकास था वैसे ही आगे गिरावट के नाटकीय बदलाव देखने को मिलेंगे। यदि ऐसा है तो जाहिर है चीन की कम्युनिस्ट पार्टी और राष्ट्रपति शी जिन पिंग भी अपने हाथों गलत, उलटे फैसले करते हुए है। एक वक्त था जब चीन की सफलता के साथ तकनिकी-आईटी-डिजिटल कंपनियों के नित नए सुपरस्टारों के नाम सुनने को मिलते थे। उद्यमी रोल मॉडल थे तो टेक्नोक्रेट आर्थिकी और सफलताओं के निर्णयकर्ता। लेकिन महामारी के समय से चीन से निज पुरषार्थ या वैयक्तिक बुद्धी की सफलताओं की कहानियां लुप्त होते हुए है। महानगरों में पैसे वाला वह खरीदार भी गायब है जिनसे कभी प्रोपर्टी बूम था। चीन की आर्थिकी स्वदेशी मांग-आपूर्ति का जो दम लिए हुए थी वह घटता हुआ है।
सो यह नाटकीय बदलाव ही है जो विदेश से खरीद के घटते हुए आर्डर तो देश के भीतर भी खरीददार नहीं। कैसी अकल्पनीय बात है जो चीन की अपनी फैक्ट्री में बनी बैटरी चालित कारों के इलन मस्क दाम-दाम बार-बार घटा रहे है लेकिन गाडियां फिर भी बिक नहीं रही।
उस नाते चीन की वही दशा है जो भारत की छोटे स्तर पर है। दोनों का यह सकंट है कि कुल आबादी में अच्छी क्रयशक्ति वाले परिवार पहले से ही कम है तो आर्थिक बदहाली से आई मंदी में ग्राहक जुटे तो कहां से जुटे? भारत में भी सुरसा जैसे खर्च से जैसे प्रोपर्टी और इंफ्रास्ट्रक्चर विकास की झाकिया बनी है लेकिन इस्तेमाल कम है तो इससे सैकडो गुना अधिक अनुपात में चीन का बना ढ़ाचा भारी बोझ साबित होता हुआ है। उसके बूते चक्रवर्ती मुनाफा तो दूर रखरखाव का बेसिक खर्चा भी निकल नहीं पा रहा।
बुनियादी मुद्दा है कि पूंजीवादी देशों की मानव स्वतंत्रता के पारस पत्थर से चीन ने अपने को जैसा चमकाया वह सब कम्युनिस्ट पार्टी, शी जिन पिंग के अंहकार और चाईनीज सभ्यता की बुनियादी तासीर से गुडगौबर हो रहा है। निश्चित ही दुनिया के लिए अगले दस साल चीन के नाटकीय गिरावट के होंगे? विश्वास नहीं होता?… कोई बात नहीं, समय चीन की उडान के क्रैस की कहानी सुनाते हुए होगा।