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मुसलमान क्या मनुष्य नहीं?

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सवाल चार अक्टूबर 2024 को ‘द गार्डियन’, लंदन में 24 वर्ष की गाजा की एक मुस्लिम महिला का था (Aren’t we human, just like you?)। इससे पहले सितंबर में भारत में 19 वर्ष के एक हिंदू नौजवान आर्यन को मुस्लिम समझ उसकी हत्या पर उसकी मां उमा ने शोक में पूछा- क्या मुसलमान मनुष्य नहीं हैं? दोनों सवाल आज सात अक्टूबर 2024 को, उस वर्षगांठ में विचारणीय हैं, जिसके एक साल पहले हमास के आतंकियों ने इजराइल में निहत्थे यहूदियों पर बर्बरता बरसाई थी। इसलिए इनका आज की तारीख में यहूदी और गैर इस्लामी सभी धर्मों में जवाब तलाशेंगे तो मुसलमान ही जवाबदेह करार दिया जाएगा?

दुनिया में फिलहाल कोई दो अरब मुसलमान हैं। इसका 20 प्रतिशत हिस्सा, 40 करोड़ लोग इजराइल के ईर्द गिर्द के पश्चिम एशिया व उत्तरी अफ्रीका में हैं! यही इस्लाम का जन्मस्थान है। यही उसके तीनों पवित्र तीर्थ हैं। यही के सऊदी अरब के वहाबी, हनफ़ी, सलाफ़ी के धर्मगुरूओं, मौलानाओं, अयातुल्लाहों से लेकर ओसामा बिन लादेन, बगदादी आदि जिहादियों के ख्यालों से दुनिया भर का मुसलमान अपने पैगंबर को अंतिम मानता है। सभी मनुष्यों, पूरी पृथ्वी का वह रहनुमा समझता है। बाकी धर्मों, नस्लों, कौमों से श्रेष्ठ मानता है। और इसी की जिद्द में सभी को अपने रंग में रंगना चाहता है!

बावजूद इसके इस्लाम की पवित्र भूमि की एक मुस्लिम महिला का सवाल है ‘मुसलमान क्या मनुष्य नहीं’!

और सऊदी अरब, उसके बादशाह, मक्का-मदीना के मौलानाओं, मिस्र में सुन्नी इस्लाम के सबसे बड़े और पुराने अल-अजहर विश्वविद्यालय के फन्ने खां धर्मगुरूओं के पास जवाब नहीं है। सभी को सांप सूंघा हुआ है। मौन हैं। निरूत्तर हैं। मुझे अल-अजहर के महामहिम ग्रांड इमाम प्रो. अहमद अल तैयब का जून 2023 का एक बयान जरूर पढ़ने को मिला, जिसमें वे मिस्र के उन राष्ट्रपति सीसी को उनके दस साला राज को अल्लाह के नाम पर बधाई देते हुए हैं, जिन्होंने गाजा के मुसलमानों को मिस्र में शरण नहीं लेने देने के लिए सीमा पर सुरक्षा सख्त की हुई है।

क्या यह इंसानियत है? क्या यह मुस्लिम भाईचारा है? हर मुसलमान कह रहा है कि इजराइल नरसंहार कर रहा है। यदि ऐसा है तो गाजा, पश्चिमी बैंक, लेबनान, सीरिया आदि में इजराइली सेना की कार्रवाई से बचने के लिए भयाकुल, भूखे-बेहाल मुसलमानों को बगल के इस्लामी देश शरण क्यों नहीं दे रहे हैं? हिटलर जब यहूदियों का नरसंहार कर रहा था तो जर्मनी और उसके कब्जे के इलाकों से भाग रहे यहूदियों को यूरोप शरण देते हुए था।

यहूदियों को बाहर निकलने में मदद की गई। ईसाई और हिंदू राजा तक ने (पोलैंड से यहूदी गुजरात के बंदरगाह तक भाग कर आए थे) शरण दी। लेकिन पश्चिम एशिया के सभी इस्लामी देशों ने (मिस्र, जोर्डन, सऊदी अरब, खाड़ी देश, तुर्की आदि) ने फिलस्तीनियों, शियाओं, सुन्नियों के लिए सीमा बंद की हुई है। और तो और इन देशों ने इजराइल के खिलाफ बोलने, उस पर पाबंदी लगाने तथा उससे नाता तोड़ने जैसा कोई फैसला नहीं किया है।

एक तरफ इजराइल औकात बता रहा है तो दूसरी और पश्चिम एशिया के मुस्लिम देश अपने व्यवहार से बता दे रहे हैं कि मनुष्यता की भीख मांग रहे लोग मनुष्य नहीं हैं! वे मनुष्य नहीं है! आखिर जिस जमीन पर इस्लाम पैदा हुआ और जहां के फतवों, बहकावों तथा मनुष्य को जिहादी बनाने की शिक्षा है उस माटी के 40 करोड़ में यह सामान्य मनुष्यता तो होनी चाहिए कि यदि उनके भाईजानों का कहीं नरसंहार है, पीड़ित जन हताशा में अपने मनुष्य अस्तित्व पर सोचने लगे हैं तो उनके लिए दरवाजा खोल कर उन्हें शरण दें! इजराइल को रोकें या अपना दीन-ईमान सब दांव पर लगा कर अमेरिका, यूरोप, चीन, भारत, रूस के विशाल मानवीय समूहों से याचना करें कि मानवता के नाम पर इजराइल को समझाएं! सोचे, 54 देशों के इस्लामी संगठन ओआईसी ने सदस्य देशों को शरणार्थियों के लिए दरवाजे खोलने तक को नहीं कहां!

यों इजराइल को कोई समझाने की स्थिति में नहीं है। और न पृथ्वी के आठ अरब लोगों में से छह अरब लोगों को मनाया, समझाया जा सकता है कि वे अपने दिल-दिमाग से इस्लामोफोबिया को बाहर निकालें। अपनी जगह सत्य है कि दुनिया के हर कोने में इंसानियतपरस्त लोग इजराइल की ज्यादतियों को नापसंद करते हैं। ऐसे इंसान विश्व राजधानियों में फिलस्तीनी-मुस्लिम प्रदर्शनों में शरीक हो रहे हैं। बावजूद इसके घर-घर इस्लोमोफोबिया के होने की हकीकत है। मेरा मानना है ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस, ऑस्ट्रिया, डेनमार्क, न्यूजीलैंड वे प्रतिनिधि देश हैं, जो धर्म, नस्ल, कौम के मामलों में सर्वाधिक उदार व सर्वधर्म समभावी हैं।

लेकिन ये देश भी अब किस मनोदशा में हैं? इस्लामोफोबिया में हैं। इसकी वजह से इन देशों में दक्षिणपंथियों की राजनीति बढ़ी है। इमिग्रेशन रोकने के फैसले हो रहे हैं। मुसलमानों का रहना दूभर हो रहा है। नफरती अपराध बढ़ रहे हैं। जापान जैसे देश में भी इस्लोमोफाबिया है तो 55 लाख मुस्लिम आबादी के जर्मनी में नफरती हमले इतने बढ़ गए हैं कि एक महिला की हालिया टिप्पणी थी कि फिलस्तीन मूल की जर्मन होने का पहले गर्व था अब मैं अपनी पहचान पर शंकालु हूं जैसे टीनएजर होता है। (I was always proud of being a German with Palestinian roots, Now I’m starting to doubt my identity, like a teenager.)

कौन है इसके लिए जिम्मेवार? क्या जर्मनी? जिसने उत्तरी अफ्रीका, तुर्की से बेइंतहां मुसलमान आने दिए? क्या फ्रांस, ब्रिटेन, अमेरिका जिन्होंने बेइंतहां मुसलमानों को शरण दी!

दस तरह की बातें, दस तरह की दलीलें और जवाब दिए जा सकते हैं? मगर इस्लाम ने पिछले पच्चीस वर्षों में, नई सदी की शुरुआत से, 9/11 (हालांकि असल तारीख आयतुल्लाह रूहोल्लाह खुमैनी की प्रेरित 1979 की ईरानी क्रांति है) से दुनिया ने टीवी चैनलों पर मुस्लिम चेहरों का जो उग्रवाद देखा है तो वक्त अपने आप यह नैरेटिव, यह सवाल बनाए हुए है कि मुसलमान है क्या? एक के बाद एक घटनाओं ने पूरे धर्म की अलग ही पहचान बना दी है। इस मनोविज्ञान की गहराई कोई नहीं बूझ सकता है कि जैसे 9/11 की तस्वीरों से दुनिया दहली वैसे ही सात  अक्टूबर 2023 को इजराइल पर हमास के हमले से भी दहली। कटु सत्य है कि अल कायदा तथा हमास दोनों के हमलों से दुनिया के मुसलमान के मन की तरंग एक सी थी। अमेरिका को सबक का सुकून तो इजराइल को सबक का भी सुकून।

याद करें कश्मीर घाटी का मुसलमान हो या पाकिस्तान, अमेरिका और ब्रिटेन सभी तरफ के मुसलमान का खबर के तुरंत बाद क्या भाव था? जबकि बाकी धर्मों, नस्लों, कौम के अमेरिका, यूरोप, भारत, जापान, ब्राजील, रूस आदि के गैर इस्लामी लोगों ने दोनों हमलों की खबर पर मन ही मन क्या सोचा?

सात अक्टूबर 2023 के दिन हमास ने यहूदियों पर जघन्यता दिखाई तो मुसलमान अलग सोचते हुए था वही बाकी धर्मावलंबी हमास को उसी चश्मे से देखते हुए थे जैसे अलकायदा, आईएसआईएस को देखा। तभी प्रधानमंत्री नेतन्याहू ने हमास के बहाने अपनी लड़ाई को वही रूप दिया जो 9/11 के बाद राष्ट्रपति बुश ने आतंक के खिलाफ वैश्विक जंग के निश्चय के हुंकारे में दिया था।

नेतन्याहू के मंत्रियों ने फिलस्तीनियों को ‘नरपशु’ (human animals) करार दिया तो खुद नेतन्याहू ने भी ओल्ड टेस्टामेंट के हवाले फ़िलस्तीनियों को “अमालेक” बताया। मतलब यहूदियों का वह कट्टर दुश्मन जो जरूरत पड़ने पर पकड़ से बचने के लिए अपने को जानवर बना लेता है और जिन्हें पृथ्वी से मिटाने की जरूरत है। नेतन्याहू ने यह बात विश्व बिरादरी में नरसंहार तथा युद्ध अपराध की आलोचना के जवाब में अपनी नीति को सही ठहराने की दलील में कहीं है।

सो, इजराइल बेखौफ है। हमास के बहाने वह हिजबुल्लाह, हूती, ईरान उन सभी के प्रति निर्दयी और बर्बर है, जिन्हें यह गलतफहमी है कि उन्हीं के ईश्वर का सत्य अंतिम है।

गाजा के मामले में एक मुस्लिम वेबसाइट (muslimmatters.org) पर ‘अल्लाह की रहमत से निराश न हों’ के हवाले डॉ. मुहम्मद वाजिद अख्तर का एक विश्लेषण देखने को मिला। लब्बोलुआब है रमजान के दिन दुनिया की लगभग हर मस्जिद में देखा-बोला गया, ’हे अल्लाह, गाजा के लोगों को बचा लो! हे अल्लाह उनकी मदद करो! हे अल्लाह उनकी रक्षा करो!…लगता है कि हम अधीर हो रहे हैं और शायद अल्लाह हमारी दुआओं और उत्कट प्रार्थनाओं को स्वीकार कर रहा है, लेकिन वह ऐसा इस तरह से कर रहा है कि हम देख या समझ नहीं सकते हैं।

शायद अल्लाह हमारी मदद कर रहा है और अन्यथा स्थिति बहुत बदतर होती। शायद वह हमारी प्रार्थनाओं का उत्तर नहीं दे रहा है क्योंकि हमारे साथ बुनियादी तौर पर कुछ गड़बड़ है। … ऐसा क्यों हो सकता है इसके कुछ कारण हैं’। और फिर डॉ. अख्तर ने धर्मावलंबियों की चार तरह की हिप्पोक्रेसी (निजी, वित्तीय, सामाजिक और सियासी) गिनाईं।

उधर दक्षिण एशिया के मुसलमानों के उपदेशक जाकिर नाइक ने पाकिस्तान में क्या बताया? कहना है, ‘अल्लाह का प्लान बेस्ट ऑफ प्लान है, जिसका इंसान को बाद में पता चलता है। मिसाल के तौर पर अल्लाह तआला फ़लस्तीन को अगर एक दिन में जिताना चाहता तो जिता सकता था लेकिन नहीं जिताया क्योंकि अल्लाह बेहतर प्लानर है।…अगर अल्लाह एक दिन में फ़लस्तीन को जिता देता तो एक साल तक चली जंग में हज़ारों लोग आज फ़लस्तीन के पक्ष में नहीं होते। सात अक्तूबर को हुई घटना के बाद 99 फ़ीसदी ग़ैर मुस्लिम इजराइल के पक्ष में थे लेकिन आज 99 फ़ीसदी लोग ग़ज़ा को सही कह रहे हैं’। एक पत्रकार ने पूछा- 16 हजार मासूम बच्चों की मौत के नुक़सान का क्या हुआ? इस पर नाइक ने कहा ‘वो जन्नत में गए। यही तो इनाम है, जिसे आप नुकसान कह रहे हैं’।

तब क्यों दुनिया के छह अरब लोग इस सवाल पर दिमाग खपाएं कि, मुसलमान क्या मनुष्य नहीं हैं?

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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