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हम हिंदू क्या चाहते है?

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Hindu: क्या मुसलमान का भुर्ता बनाना हैं? उन्हे पालतू बनाना हैं? या आ बैल मुझे मार में 1947 से पहले के मुस्लिम डायरेक्ट एक्शन को न्योतना है?

सचमुच संभल और अजमेर दरगाह की घटना से  यह यक्ष प्रश्न है कि आखिर हम हिंदू चाहते क्या है?  मेरा मानना है अजमेर दरगाह की बांग्लादेश, पाकिस्तान में जबरदस्त मान्यता है। इसलिए अजमेर की खबर से बांग्लादेश के सवा करोड़ हिंदूओं का जीना हराम होगा।

वे या तो वहां से भागेंगे अन्यथा उत्पीडित जीवन जीते-जीते अंततः धर्मांतरित होंगे। हिंदू धर्म छोड़ेंगे! ऐसा होना मोदी-शाह-संघ परिवार का एक ऐतिहासिक योगदान होगा।

उनके राज की यह कीर्ति बनेगी कि उपमहाद्वीप के बांग्लादेश में हिंदू पूरी तरह खत्म हुए। बांग्लादेश शत-प्रतिशत दारूल इस्लाम बना।

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क्या यह हिंदू लक्ष्य है

यही हम चाहते है? क्या यह हिंदू लक्ष्य है? नोट करें भारत में आज जो है वह अब बांग्लादेश में भी है। वहां भी भभका और उन्माद है।

फर्क यह है कि बांग्लादेशियों के बस में हिंदुओं को भगाना, उन्हे धर्मांतरित करके मिटाना हैं जबकि भारत के हिंदुओं के बूते में यह ताकत नहीं है।

बांग्लादेश के मुस्लिम घरोंदे का शत-प्रतिशत इस्लामीकरण तय हैं जबकि हम हिंदू अपने घरोंदे में ले दे कर या तो मसजिद में शिवलिंग ढूंढ सकते है या इतिहास को दुहराने की नियति लिए हुए है।

योगी आदित्यनाथ, हिमंता बिस्वा, मोदी-शाह, गिरिराजसिंह आदि तमाम चेहरें बंटोंगे तो कटोंगे के आव्हान से भीड़ को चाहे जितना संगठित कर लें लेकिन हिंदू पहले की तरह आज भी बिना लक्ष्य के है, बिना बुद्धी और साधनों व विकल्पों के है।

सोचे, ईमानदारी से विचार करें कि संभल, अजमेर, मथुरा, आगरा में इतिहास की खुदाई करने से हम हिंदुओं को क्या प्राप्त होगा?

क्या इससे  भारत मसजिदों, मुसलमानों से मुक्त होगा? भारत क्लीन होगा? भारत वैसा ही शत-प्रतिशत हिंदू राष्ट्र होगा जैसे पाकिस्तान, अफगानिस्तान है और बांग्लादेश होता हुआ है?

यह भी छोड़े क्या मोदी-योगी, भाजपा भारत को हिंदू राष्ट्र भी घोषित कर सकते है? अपने संविधान से ‘सेकुलर’ शब्द भी हटा सकते है?

मान ले ऐसा कर सकते है तो यह कितने लोग मानते हुए है कि ऐसा लक्ष्य है? फिर इस लक्ष्य का क्या तो रोडमैप है?  उसके तरीके, हथियार और उसकी सेना क्या है? उससे विकल्प क्या है?

मसला कौम, धर्म और देश का

मसला कौम, धर्म और देश का है। इसलिए बेबाक विचार और सवाल जरूरी है। पिछले दस वर्षों से हम हिंदुओं ने अपने को असुरक्षित माना है।

इससे इस्लाम से पंगा बना और बढ़ा है। वह इस्लाम, जिसका जन्म से दो टूक लक्ष्य है। सीधा बेबाक रोडमैप है। तौर-तरीके है। इस्लाम का दो टूक लक्ष्य दुनिया के लोगों को विश्वासी अर्थात मुसलमान बनाना है।

यही इस्लाम का लक्ष्य है, उसके बंदों का कर्तव्य है। हर बंदा उसका औजार, उसकी सेना है। सेना के तरीके में तलवार है तो सूफीयाना घुट्टी भी है। इसमें बांग्लादेश भी मिसाल है।

तथ्य है भारत में बाकि जगह तलवार से लेकिन बंगाल और कश्मीर में हिंदू आबादी का इस्लामीकरण तुर्क-फारसी सूफी संतों से था।

दूसरे शब्दों में सीधे गर्दन को पकड़ों या दिमाग में इस्लाम घुसाओं मगर येनकेन प्रकारेण अविश्वासियों को पैंगबर का विश्वासी बनाना ही है, यह मंतव्य और कर्तव्य जन्म के साथ है।

इस नाते कह सकते है किसी और धर्म के घर पर अपना कब्जा बनाने के लिए इस्लामी तौर-तरीकों के जितने अनुभव भारतीय उपमहाद्वीप को है शायद ही पृथ्वी के किसी दूसरे कोने को हो।

इस्लाम में कोई भी स्थान पराया नहीं

इस्लाम में कभी भी किसी भी स्थान को पराया नहीं माना। वह कहीं किरायेदार नहीं हुआ। वह हर धर्म के घर को, दारूल हरब मानते हुए उसमें सीधे अपने पट्टे, कब्जाधारी की हैसियत से अपना दारूल इस्लाम बनाने के मिशन में लगातार रत रहा।(Hindu)

समकालीन इतिहास की जरूर यह कुछ अनहोनी है जो यहूदियों ने मुसलमानों को उनके दारूल इस्लाम इलाके से खदेड़ा।

यहूदियों ने अपने जन्मस्थान को बुद्धी और ताकत के बूते वापिस अपना घरोंदा बनाया। हिंदुओं और यहूदियों की यह साम्यता है जो अपनी मातृभूमि और पुण्यभूमि से या तो उजड़े या इस्लाम के गुलाम बन धर्म को पकड़े रहे।

पर दोनों को इतिहास के घाव तो है। इसी कारण हिंदुओं में अपने घरोंदे की सुरक्षा की चिंता की भयाकुलता है वही यहूदी मुसलमानों के फिलीस्तीन खाली कराते हुए है।(Hindu)

हिंदुओं को खंडहर ही मिलने

दोनों की एप्रोच गलत है। इसलिए क्योंकि इतिहास की खुदाई से (हिंदुओं) को खंडहर ही मिलने है। वही इजराइल ठुकाई कितनी ही करें मुसलमान का जनसंख्यात्मक परिवर्तन संभव नहीं है।

इजराइल फिलीस्तीनियों, शियाओं को कितना ही खदेंडे या मारे, उसे मुसलमानों के बीच में ही रहना है। ध्यान रहे यहूदी भी मुसलमानों को धर्मांतरण का विकल्प नहीं देते है।(Hindu)

धर्म व्यवस्था और पंरपरा में हिंदू और यहूदियों में धर्मांतरण याकि लोगों की घरवापसी करवाने की व्यवस्था नहीं है। मूल यहूदी से पश्चिम एसिया के बाकी धर्म (ईसाई व इस्लाम) बने।

यहूदियों की संख्या घटती ही गई(Hindu)

इससे यहूदियों की संख्या घटती ही गई लेकिन यहूदियों ने धर्मांतरित लोगों की घर वापसी या दूसरे धर्मों से यहूदी धर्म में धर्मांतरण के विकल्प-तरीके को नहीं अपनाया।

जबकि इस्लाम और ईसाई धर्म के विस्तार का यही बड़ा आधार है। ऐसे ही भारतीय उपमहाद्वीप में सनातन धर्म ने इतिहास की मार के बावजूद कभी यह नहीं सोचा कि उसके जो लोग विधर्मी हो गए है उन्हे वापिस धर्म में लाने के लिए वैसा ही महाअभियान चले जैसे इस्लाम का है।(Hindu)

सनातन धर्म ने देशी मत-मतांतरतों में आवाजाही स्वीकारी लेकिन इस्लाम को ले कर ‘विधर्मी’, ‘मल्लेच्छ’  की अपनी गांठ में धर्मांतरित मुसलमानों पर ऐसा कोई विचार नहीं किया जिससे आवाजाही बने।

तभी 1947 से पहले पाकिस्तान के पैरोकारों की यह जिद्द ठोस थी कि हिंदू और मुसलमान इतने अलग-अलग है कि साथ नहीं रह सकते।

विषयांतर हो गया है। मोटामोटी हिंदुओं के मौजूदा उद्देश्यों पर विचार करें तो सवाल है कि अजमेर या संभल की मसजिद के नीचे शिवलिंग मिल भी गया तो वह हिंदुओं के दिल-दिमाग में क्या वैसी ही प्राण प्रतिष्ठा पाएं हुए होंगे जैसे आदि शैव तीर्थों की है?(Hindu)

सवाल है इससे क्या मुसलमान अपने को शक्तिहीन मान वैसी दीनता में दबे-डरे रहेंगे जैसे हजार साल हिंदू आबादी इस्लामी राज में रही? इतिहास का कैसा बदला लेना है?

मसला हमारे अपने घरौंदे का

मसला हमारे अपने घरौंदे का है। जिसके हम मकान मालिक है। मगर मुस्लिम उपस्थिति है तो इतिहास के घाव ताजा है। पडौस और साझे का दुराव है।

दिन-रात की असुरक्षा और भयाकुलता है। धर्म-सभ्यता के मिटने का खतरा है। वहीं सत्ता की राजनीति भी है।

फिलहाल इतिहास और पॉवर के एक और एक ग्यारह की वजह से भारत में हिंदू बनाम मुस्लिम का आमने-सामने होना इतिहास से है। कह सकते है एक तरह से नियति का हिस्सा है।(Hindu)

दिक्कत यह है कि इस नियति में हम हिंदूओं का उद्देश्य कुछ भी नहीं है। सिर्फ भीड़ जैसा व्यवहार है। संभल, अजमेर, बुलड़ोजर, बंटोंगे तो कटोंगे के जुमलों और सत्ता के अंहकार में आगा-पीछा नहीं सोचा जा रहा है।

क्या यह संभव है कि बीस करोड़ मुसलमान अपने धर्म-दीन की तौहिन से वैसे समर्पण कर दें जैसे चौदहवी सदी में सिकंदर बुतशिकन के संहार के आगे कश्मीर में सनातनियों ने किया था?

हिंदुओ का संहार और समर्पण

मुमकिन ही नहीं है। तब हिंदुओ का जो संहार और समर्पण हुआ था वह इस इस्लाम धर्म को अपनाने के विकल्प में था।

आज इस्लाम के दीन-ईमान की चाहे जितनी तौहीन करें वह रहेगा तो मुसलमान ही? उसकी जलालत उसकी कट्टरता की भठ्ठी होगी?(Hindu)

आखिर उसके आगे हिंदू बनने, घर वापसी तथा घर वापसी से पूरे ठसके या मान-सम्मान से जिंदगी जीने का विकल्प तो नहीं  है। वह तौहिन और जलालत में कट्टरता को ही गले लगाएगा!

सोचे, कल्पना करें, अजमेर में दरगाह के ध्वंस (जैसे चौदहवी सदी में श्रीनगर में श्रीदुर्गामंदिर के ध्वंस पर मसजिद निर्माण) पर शिवमंदिर बना, संभल में हरिहर मंदिर बना तो उन खादिमों, मुल्लाओं, काजियों और उन मुसलमानों का क्या होगा जिससे पूरे जीवन की डौर बंधी है?(Hindu)

वे रहेंगे तो मुसलमान। न उनके पास हिंदू बनने का विकल्प है और न बेगैरत जिंदगी ताउम्र जी सकते है। प्रताड़ना, उत्पीडन की एक सीमा होती है। या तो वह धर्म बदलेगा या अपने धर्म के लिए जिहाद करेगा।

बेसिक मैदान तो घर का(Hindu)

क्या ऐसा सिनेरियों योगी आदित्यनाथ, हिंदू साधू-संतों, महामंडलेश्वरों, प्रवचको, शंकराचार्यों से लेकर भाजपा-संघ के स्वंयसेवकों ने सोचा है?

लाठी भांजना और जुमलेबाजी राजनीति में चलेगी लेकिन धर्म की, सभ्यता के संघर्ष की निर्णायक या पानीपत की लड़ाई बना रहे है तो बेसिक मैदान तो घर का है।(Hindu)

उससे यदि बगल के बांग्लादेश के सवा करोड हिंदुओं की जान को दांव पर लगाके हुए पूरे देश में मसजिदें खुदवानी है तो आगे-पीछे का भी तो हिसाब लगना चाहिए।

हमें अपने ही हाथों क्यों फिर प्रमाणित करना है कि हम अलग है, वे अलग है और दोनों का साथ-साथ रहना संभव नहीं है। तब भला 1947 के इतिहास की पुनारावृति में कितनी देरी है? क्या यही हम हिंदुओं का उद्देश्य है?

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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