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अपने ‘दोस्त’ टोनी नहीं रहे

कैसी गजब बात जो पर्चे, चर्चे और खर्चे के सामर्थ्य के बावजूद टोनी ने अपने को न अमर सिंह बनने दिया और न बालू।….टोनी सरकारों की काली कोठरियों में आते-जाते हुए भी इस तरह के प्रलोभनों से बचा रहा कि राज्यसभा सांसद बने। अपना भी बिजनेस बनाए। सत्ता में मैकेनिक बने। लॉबिस्ट और पीआर की दिल्ली में टोनी मेरे अनुभव में अकेली वह शख्सियत जिसने सत्ता की काली कोठरी, कीचड़ में भी अपने आपको साफ-सुथरा रखा और जीवन को अपनी मूल तासीर (संगीत, सिगार, वाईन, निजता, लुटियन दिल्ली के हूज एंड हू चेहरों के बीच की चकल्लसी के मजे) में जीया।

यही शुभब्रत भट्टाचार्य का मैसेज (We lost our friend Tony Jesudasan) था। और मैं ‘अपने’ में टोनी उर्फ एंटनी यशुदासन के साथ का ‘अपनापन’ याद करने लगा। हां, टोनी अपना दोस्त। उसकी तीन-चार दशक की भूली-बिसरी स्मृतियां! शुरुआत के बीस सालों की वे यादें खास है जब मैं लुटियन दिल्ली की सत्ता और मुंबई के धनपतियों की प्रकृति-प्रवृत्ति को जानने-बूझने की हूक तथा ‘गपशप’ लिखते हुए था। मेरे लिए टोनी न केवल ‘गपशप’ का सोर्स था, बल्कि अपनेपन की खुशमिजाजी का एक चेहरा भी। मेरा मानना है कि दिल्ली के सत्ता तिलिस्म में टोनी उन तमाम चेहरों (बालू, तलवार, अमर सिंह, राजीव, रामावतार, त्यागी, राडिया, बजाज, आईसी, चौधरी आदि तमाम अय्यारों से) से अलग इसलिए था क्योंकि उसने अपनी एक्सेस में सब कुछ पा कर भी वह कुछ नहीं किया, जिससे दिल्ली अपने हाई प्रोफाइलों को भूखा, भयाकुल तथा भ्रष्ट बनाती है। दरअसल टोनी मूलतः अमेरिकी दूतावास के यूएसआईएस से जनसंपर्क की पेशेवरी याकि प्रोफेशनलिज्म से संस्कारित था। इसलिए मिजाज और ट्रेनिंग दोनों में सत्ता निरपेक्ष। तभी टोनी सरकारों की काली कोठरियों में आते-जाते हुए भी इस तरह के प्रलोभनों  से बचा रहा कि राज्यसभा सांसद बने। अपना भी बिजनेस बनाए। सत्ता में मैकेनिक बने।

मैंने 45 वर्षों की लुटयिन दिल्ली में सत्ता की कोठरियों की एक्सेस वाले नेताओं, अफसरों, पत्रकारों, वकीलों, जजों, सेठों आदि जानकारों को सत्ता का दलाल, मैकेनिक, तिकड़मी, बेईमान, लालची और भूखा बनते हुए लगातार देखा है। मेरी, मान्यता है कि हिंदुओं को श्राप है कि जो दिल्ली की सत्ता पर बैठेगा वह भ्रष्ट होगा। लूटेगा और देश को लुटवाएगा। फिर यह काम समाजवाद, राष्ट्रवाद, आदर्शवाद, लोकसेवा के नाम पर हो या किसी भी पेशे के जरिए। दिल्ली के सत्तावानों में जनसंपर्क से बनी एक्सेस से ही धीरूभाई ने बाला सुब्रहमण्यम के जरिए अंबानी एंपायर खडा किया तो हाल-फिलहाल अदानी एंपायर के निर्माण का भारत अनुभव है।

विषयांतर हो रहा है। मगर मामला क्योंकि मेरे जिंदगीनामे और भारत अनुभव का है तो टोनी यशुदासन को श्रद्धांजलि और उनकी पत्नी पारूल शर्मा व बेटी प्रीतिका को संवेदना की अभिव्यक्ति मेरे मूल्यांकन के इस सत्य से भी है कि टोनी ने जग दर्शन के मेले को अपनी तासीर में पुण्यता से जीया। कैसी गजब बात जो पर्चे, चर्चे और खर्चे के सामर्थ्य के बावजूद टोनी ने अपने को न अमर सिंह बनने दिया और न बालू। टोनी ने सिर्फ और सिर्फ जनसंपर्क के प्रोफेशनलिज्म तथा मालिक-सह-दोस्त अनिल अंबानी की रक्षा-सुरक्षा में अपने को अर्पित-समर्पित किए रखा।

मेरे लिए दिल्ली के नेताओं, मीडियाकर्मियों, अफसरों में खपे रहने वाला टोनी वह शख्स था, जिसका मुझे जीवन अनुभव में बोध भले, भद्र ईसाई चेहरों से है। जैसे ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के दिवंगत संपादक बीजी वर्गीज। सन् 1983-84 में ‘जनसत्ता’ की शुरुआत के बाद की बात है। तब बीजी वर्गीज तथा टोनी (कार्टूनिस्ट रविशंकर, टाइम्स ग्रुप के मेरे सहपाठी राजेंद्र मेनन, रमेश मेनन के कारण भी मलायली चेहरों से अनुभव से भी धारणा बनी) से परिचय व जानने-समझने के बाद मानने लगा था कि भद्र क्रिश्चियनों का भलापन गजब है। वर्गीज कितने बड़े संपादक मगरबावजूद इसके इतने सहज, सज्जन व भले!

संयोग और सौभाग्य जो मुझे बहुत कम उम्र (26 वर्ष) में ‘इंडियन एक्सप्रेस’ समूह के लांच होने वाले ‘जनसत्ता’ में सीनियर पोजिशन मिली। हम सीनियर लोग एक्सप्रेस बिल्डिंग में वर्गीज साहब के साथ वाले कमरे में बैठा करते थे। सोचें, मैं राजस्थान के दूरजराज के कस्बे का खांटी हिंदी भाषी, जेएनयू, मुंबई टाइम्स ग्रुप ट्रेनी, स्वतंत्र लिखने-छपने के बाद एक्सप्रेस बिल्डिंग में बड़े संपादकों के सानिध्य में जब बैठा तब मेरा कच्चा दिल-दिमाग क्या-क्या अनुभूतियां बनाए हुए रहा होगा?‘जनसत्ता’ लांच हुआ तो मैं ही तुरंत बाद के कॉमनवेल्थ अधिवेशन को कवर करने वाला था। विदेशी मामलों पर लेख-संपादकीय व ‘गपशप’ लिखने वाला भी। उस दौर में अमेरिकी दूतावास के यूएसआईएस के टोनी यशुदासन ने कब एक्सप्रेस बिल्डिंग में मेरे से मुलाकात (संभवतया रविशंकर के कारण) की, इसकी याद नहीं है। लेकिन उसी दौर में टोनी के कारण मेरी अंतराष्ट्रीय राजनीति की पकड़ इस नाते लाइव अनुभव वाली बनी क्योंकि मैं टोनी के कारण यूएसआईएस जाने-आने लगा। अंग्रेजीदां वरिष्ठ संपादकों-पत्रकारों के साथ बैठ कर अमेरिकी चुनाव में क्या हो रहा है, इसे जानने और बातचीत का मौका बनता था। तब कैसेट वीडियो आए ही थे। रोनाल्ड रीगन व अमेरिकी चुनाव की कैंपेनिंग, नतीजों के वक्त डाटा विश्लेषण के वीडियो आदि के भी नए अनुभव हुए थे। इस सबके कोऑर्डिनेटर, न्योते देने वाले जनसंपर्क के कर्ताधर्ता थे टोनी। उप राष्ट्रपति जार्ज बुश की भारत यात्रा व एक हिंदीभाषी अमेरिकी राजदूत की दूतावास में प्रेस कांफ्रेंस, बातचीत जैसे मीडिया प्रायोजनों में भी टोनी। धीरे-धीरे टोनी से कभी आईएनएस बिल्डिग, यूएनआई कैंटीन में मुलाकात तो यूएसआईएस बिल्डिंग में भी गपशप।

फिर टोनी ने याकि अमेरिकी दूतावास ने मुझे एक बडा मौका अमेरिका को जानने-घूमने के अपने विजिटर कार्यक्रम का दिया। मैं विदेश घूम चुका था। मगर दूतावास के जरिए अमेरिका के चारों कोनों, व्हाइट हाउस, वहां प्रेस कांफ्रेंस ब्रीफिंग, न्यूयॉर्क स्टॉक एक्सचेंज जैसे लंबे लाइव अनुभव का अवसर मेरे लिए कई तरह से उपयोगी था। यों बाद में प्रधानमंत्री या निजी तौर पर अमेरिका जाना हुआ मगर अमेरिकी सिस्टम को समझने के लिए वे यात्राएं अधिक मतलब वाली नहीं थी। मोटा-मोटी टोनी यशुदासन से निजी आत्मीयता और दोस्ती स्वंयस्फूर्त एक-दूसरे की समझदारी से धीरे-धीरे बनी। उस दौरान टोनी का देश की राजनीति से मतलब नहीं था। सिर्फ और सिर्फ मीडिया तथा अमेरिकी जनसंपर्क। हम लोगों (शुभब्रत भट्टाचार्य, वीरेंद्र कपूर, शिनॉय, जनार्दन ठाकुर आदि) की आईएनएस आदि ठिकानों की गपशप में टोनी का प्रसंग आता-जाता था। ‘जनसत्ता’ और ‘गपशप’ कॉलम का क्योंकि राजीव गांधी और वीपी सिंह के वक्त जलवा था तो टोनी के लिए मेरी राजनीतिक ‘गपशप’ खोजी थी। उस दौरान यदा-कदा टोनी का मीडिया में जाने का इरादा झलक पडता था। इसलिए टोनी के यूएसआईएस छोड टाइम्स ग्रुप को ज्वाइन करने की खबर मिली तो अच्छा लगा मगर मुझे यह खटका भी हुआ कि समीर जैन के सेट अप में टोनी क्या जम सकेगा?

बहरहाल, वे दिन राजीव गांधी, वीपी सिंह, अरूण नेहरू, धीरूभाई, नुस्ली वाडिया, रामनाथ गोयनका, अरूण शौरी आदि से सुनहरी पत्रकारिता के थे। सभी तरफ अवसर ही अवसर। उस अवसर में कांग्रेस के पतन के साथ वीपी सिंह के उदय की आंशका में धीरूभाई अंबानी कंपकंपाए हुए थे। एक्सप्रेस समूह बुरी तरह पीछे पड़ा हुआ था। उन्हें लगा कि बालू से काम नहीं चलेगा। सो, शुभब्रत भट्टाचार्य की सलाह पर धीरूभाई ने टोनी यशुदासन को बुलाया। रिलांयस ज्वाइन करने के लिए मनाया। टोनी के मीडिया प्रबंधन संभालने के साथ ‘इंडियन एक्सप्रेस’, वीपी सिंह को काउंटर करने के लिए योजनाएं बनीं। आरके मिश्रा, बलबीर पुंज, उदयन शर्मा, राजीव शुक्ला आदि की फौज अंबानी के अखबार निकालने लगी। टोनी इन सबके पीछे मगर दूर मेरिडियन होटल के रिलायंस कॉरपोरेट ऑफिस में दिल्ली-देश के मीडियाई जनसंपर्क का ताना-बाना बनाते हुए। टोनी का वह प्रोफाइल बनना शुरू हुआ जो क्रोनी पूंजीवाद का बुनियादी तौर पर खाद-पानी है। लॉबिंग याकि सत्ता दफ्तरों में पैरोकारी और सूचना जानने, बूझने और कॉरपोरेट दावपेंचों का चौकन्नापन।

फिर तो टोनी सत्ता गलियारों की खबरों का फर्स्टहैंड खजाना। उन दिनों मैं कई बार लोधी गार्डन में शाम को टोनी के साथ घूमते हुए गपशप जानता था तो भारत को समझने के सवाल भी पूछता था। जैसे, यह कि टोनी लुटियन दिल्ली की ब्यूरोक्रेसी में क्या कभी कोई ईमानदार सचिव मिला? इस सरकार में कौन कितना खा रहा है? इस दीपावली किस कीमत के गिफ्ट बंट रहे हैं। चुनाव में किसको कितना बंट रहा है? टोनी से जवाब मिलते थे क्योंकि टोनी मेरी नेचर, मेरी पकड़ जानने के साथ दोस्ती और अपनेपन के भरोसे में था। सत्य यह भी है कि मैंने 45 वर्षों में भारत हकीकत को यदि टोनी से जाना है तो अमर सिंह, तलवार, राजीव, रामावतार, बजाज, आईसी आदि उन चेहरों से भी जाना-बूझा है, जिन्होंने दिल्ली की सरकारों व सत्ता गलियारों में दशकों अय्यारी की। ये सभी मेरे सोर्स रहे और सबका मेरे पर विश्वास। सब जानते रहे कि हरिशंकर भले ‘गपशप’ कॉलम में लिखे लेकिन जानकारी का न दुरूपयोग और न कोई फेवर तथा दरबारीपना या धंधेबाजी।

लब्बोलुआब कि लॉबिस्ट और पीआर की दिल्ली में टोनी मेरे अनुभव में अकेली वह शख्सियत जिसने सत्ता की काली कोठरी, कीचड़ में भी अपने आपको साफ-सुथरा रखा। जीवन को अपनी मूल तासीर (संगीत, सिगार, वाईन, निजता, लुटियन दिल्ली के हूज एंड हू चेहरों के बीच की चकल्लसी के मजे) में जीया। सन् 2000 के बाद मेरे अपने आपमें खोने से मेरा टोनी से संपर्क बहुत कम रहा। कभी-कभार फोन पर बात या मुलाकात हो जाती थी और मैं अक्सर सलाह देता था कि छोड़ो अब अंबानी की नौकरी। रिटायर हो कर किताब लिखो। देश का भला होगा। लोगों को समझ आएगा कि कैसा है यह देश। संयोग जो विमान में हार्टअटैक की घटना से तीन दिन पहले (मानो तीन-चार साल बाद आखिरी मुलाकात के लिए थी वह मुलाकात!) अवनीश द्विवेदी के बेटे की शादी के रिसेप्शन में टोनी से मुलाकात हुई। हम अलग कोने में जा कर बात करने लगे… मैंने फिर कहा छोड़ो नौकरी….और उसका वही जवाब अनिल भाई छोडे तब तो..।

कई मायनों में टोनी ने कबीरदास के इस जुमले में जीवन जीया है कि ‘जग दर्शन का मेला’। टोनी को कोई चाहे जितना बड़ा लॉबिस्ट, इन्फ्लुएंसर बताए। पर उसने अपने लिए क्या किया? मेरी राय में वह जग (भारत) दर्शक का योगी था। टोनी से बात-बात में एक दफा यह वाक्य निकला था कि मेरी लाइन पीआर की है तो पीआर काबिलयत में श्रेष्ठता लोगों ने यदि मानी तो वही मेरी पुण्यता। मैं लोगों को ऑब्जर्व करता हूं, जानता और बूझता हूं तो यही क्या कम है व्यासजी? …ठीक बात टोनी। और इस बात को मैंने टोनी की अंत्येष्टि के समय मौजूद उन चेहरों से बूझा जो मेरी तरह चालीस साल से उससे अपनेपन की रागात्मक दोस्ती तथा उसके अच्छेपन से बंधे हुए थे।

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By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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