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मणिपुरः भविष्य की भारत झांकी

उफ! दिल-दिमाग को दहला देने वाली तस्वीरें। मैं भारतवादी हूं, सनातनी हिंदू हूं और राष्ट्रवादी भी। तभी तस्वीरों ने मुझे ऐसा झिंझोड़ा जो मैं गारंटीशुदा लिख दे रहा हूं कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह हिंदुओं से वह धोखा कर रहे हैं, जिससे दस-बीस साल बाद ही भारत बिखरता हुआ होगा। भारत गृहयुद्धों में हांफता हुआ होगा। हां, एक नहीं कई गृहयुद्ध! यदि इसकी झांकी देखनी हो तो उन हिंदुओं को मणिपुर जाना चाहिए जो अज्ञानता में मान रहे हैं कि मोदी-शाह टुकड़े-टुकड़े गैंग को मारने वाले राष्ट्रवादी हैं। भक्त हिंदुओं को अपने आपसे यह सवाल पूछना चाहिए कि क्या उन्हें पता है कि मणिपुर में कैसे हिंदू और आदिवासी एक-दूसरे की जान के दुश्मन बने हैं? मैं नहीं मानता कि आदिवासी ईसाई या बौद्ध होने से अहिंदू हैं, विदेशी या विधर्मी हैं। तभी खौफनाक रियलिटी है जो मणिपुर में हिंदू और आदिवासी के रिश्तों में वे गहरे घाव बने हैं जो शायद ही कभी भरे। दोनों समुदाय सशस्त्र तैयारियों के साथ, अपनी सुरक्षा के लिए एक-दूसरे से लड़ने के वास्ते अपने-अपने बाड़े बना बैठे हैं। किलेबंदी करके जी रहे हैं!

दो महीने हो गए हैं। हमें नहीं मगर दुनिया को गृहयुद्ध के कगार पर मणिपुर के होने की खबर है। इसी गुरूवार को यूरोपीय संघ की संसद ने मणिपुर पर चर्चा की। प्रस्ताव पास किया। यूरोपीय संसद ने मणिपुर से सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून यानी अफस्पा को हटाने और इंटरनेट बहाल करने की मांग की। यह वही संसद है, जिसका फ्रांस सिरमौर है। सोचें, एक तरफ फ्रांस के नेता प्रधानमंत्री मोदी का राष्ट्रीय सम्मान कर रहे थे वही दूसरी तरफ उसी दिन यूरोपीय संघ के उसके सांसद मणिपुर पर चर्चा करते हुए भारत की वैश्विक बदनामी करते हुए थे!

हां, मोदी सरकार ने भारत के लोगों से, हम हिंदुओं से रियलिटी छुपाई हुई है, जबकि दुनिया जाने हुए है कि मणिपुर गृहयुद्ध के कगार पर है। सुधी पाठकों से आग्रह है कि इंटरनेट पर अंतरराष्ट्रीय न्यूज एजेंसी एपी की एक ताजा रिपोर्ट इस लिंक से देखें। (https://apnews.com/article/india-manipur-ethnic-violence-ed5b68efb55190de3539543955f56a92)

संभव है सरकार इस रिपोर्ट को आगे गूगल से ही हटवा दे। मैं इस रिपोर्ट और फोटो को छापना चाहता था। लेकिन ‘नया इंडिया’ की मजबूरी है। हमारे पास इतना पैसा नहीं है जो फोटो-रिपोर्ट खरीद कर छाप सकें। यदि ‘नया इंडिया’ के पास साधन और पैसा होता तो हम खुद मणिपुर जा कर आंखों देखी सच्चाई बताते। और उससे शायद मोदी सरकार का भी भला होता। सोचें, क्या अमित शाह को पता होगा कि मणिपुर में लोगों के दिल कैसे टुकड़े हुए? मेरा मानना है कि अमित शाह को वही समझ है जो उन्हे अफसर, हिमंता सरमा या मुख्यमंत्री बता रहे हैं!

तभी सोचें, मोदी सरकार से कितनी तरह की बरबादियां हैं कि देश के छोटे-छोटे इलाके भी पानीपत के मैदान बन रहे हैं लेकिन न खुद गृह मंत्रालय को सुध है और न आम भारतीय के पास जानने-समझने के वे साधन हैं, जिनसे दूर की रियलिटी जान सकें।

बहरहाल एपी रिपोर्ट की तस्वीरों से जाहिर सच्चाई है कि तीन मई 2023 को मणिपुर में मैती हिंदू बनाम आदिवासी कुकी में जो हिंसा हुई, वह दो महीने बाद अब किलेबंदी में, लड़ाई की सशस्त्र तैयारी में कनवर्ट है। दोनों समुदायों में ऐसी घनी नफरत बनी है कि एक-दूसरे पर विश्वास लौटेगा ही नहीं। फोटो देख लगेगा कि मणिपुर जैसे पानीपत की लड़ाई का स्थायी मैदान हो गया है। पहाड़ी इलाकों में आदिवासी लोग मैदानी लोगों को घुसने नहीं दे रहे। चुराचंदपुर (जहां से हिंसा शुरू हुई) में आदिवासी हथियार सहित अपनी बंकरों से प्रतिद्वंद्वी हिंदू मैती की बंकरों पर नज़र रख रहे हैं। हिंसा से पहले 32 वर्षीय जुआन वैफेई अर्थशास्त्र पढ़ाता था वह बंकर संभाले अब सशस्त्र मिलिशिया है। ऐसे ही राजधानी इंफाल में मैती औरतें कारों को चेक करते हुए आदिवासी को तलाशते हुए हैं।

आदिवासी जुआन वैफेई न केवल हथियारों से लैस है, बल्कि मारने और मरने के लिए भी तैयार है। वह पूरा दिन एक अस्थायी बंकर की सैंडबैग की दीवारों के पीछे रहता हैं। उसकी उंगलियां 12-गेज शॉटगन के ट्रिगर पर टिकी होती हैं। दूसरी तरफ उसकी बंकर के लगभग एक हजार गज आगे, लंबी हरी घास और जंगली फूलों के मैदान के बीच मैती हिंदू हैं, जो आदिवासी कुकी जैसी ही सैंडबैग किलेबंदी के पैरापेट से नजर रख रहे हैं और वे भी सशस्त्र तथा तैयार हैं।

राज्य की तलहटी के कांगवई गांव में ऊपर से नजर रख रहे ड्रोन के शोर में एक आदिवासी का कहना था- केवल एक चीज जो हमारे दिमाग को पार करती है वह यह है कि क्या वे हमसे संपर्क करेंगे; क्या वे आएंगे और हमें मार डालेंगे? यदि वे हथियारों के साथ आते हैं, तो हमें सब कुछ भूलना होगा और अपनी रक्षा करनी होगी।

लड़ाई की फ्रंट लाइनों में इस तरह की दर्जनों किलेबंदी दिखेगी जो नक्शे में नहीं हैं लेकिन दो समुदायों को, इलाके को दो जातीय क्षेत्रों में विभाजित करती हुई हैं– एक तरफ पहाड़ी जनजातीय लोग तो नीचे मैदानी इलाकों के लोगों के बंटे अपने-अपने इलाके।

देश के किसी प्रदेश का ऐसी दशा में होना क्या समझ में आ सकता है? तभी पूरा देश एक तरह से अंधेरे-झूठ व लापरवाही-मुगालतों में समय काटता हुआ है। मुख्यधारा के मीडिया, अखबार-टीवी चैनलों व सोशल मीडिया और केंद्र सरकार सभी सामूहिक तौर पर आत्मघाती रवैए में रियलिटी छुपाते हुए हैं। मेरी राय में ऐसा करना व होना राष्ट्रविरोधी पाप है। इसलिए क्योंकि मणिपुर में यदि पहाड़ी बनाम मैदानी, हिंदू बनाम ईसाई, मैती हिंदू बनाम कुकी आदिवासी में एक-दूसरे के खिलाफ मरने-मारने वाली स्थायी खुन्नस जड़ें जमा गई तो बगल के मिजोरम, नगालैंड और पूरे पूर्वोत्तर में फिर एक के बाद एक पानीपत के मैदान बनने ही हैं। ध्यान रहे पहले से ही बांग्लादेशी घुसपैठियों और मुसलमानों के घाव पके हुए हैं। और ये घाव क्या आगे मोदी-शाह के बाद फफोले बन कर नहीं फूटेंगे? भविष्य की सरकारें क्या उत्तर-पूर्व को संभाल पाएंगी?

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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