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ये चुनाव भी 24 बाद की बिसात!

मैं हैरान हूं। क्या अमित शाह, नरेंद्र मोदी या राहुल गांधी सभी भारत में राजनीति मिटा कर देंगे? भाजपा और कांग्रेस जैसी कथितपार्टियां पूरी तरह सर्वेयर टीमों की कठपुतलिया होगी? कोई न माने इस बात को लेकिन नोट रखे कि 2024 में नरेंद्र मोदी के तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने के साथ भाजपा, संघ परिवार के नेता और कार्यकर्ता हर तरह से निराकार होंगे। इनकी राजनीति हर तरह से सर्वे एजेंसियों से डिक्टेट होगी। नेता केवल पैसा कमाएंगें, प्रधानमंत्री बनने के लिए बीस-तीस हजार करोड रू इकट्ठे करेंगे और फिर सर्वेयर एजेंसियों को ठेके दे कर चुनाव लड़ेगे। सत्ता और पद पाएगें तथा राजनीति की संगठनात्मक, विचारात्मक, जीवंतता खत्म।

ऐसे संभावी सिनेरियों का शुरूआती बिंदु मौजूदा विधानसभा चुनाव है। भाजपा का चुनाव पूरी तरह एक एएमआई एजेंसी से संचालित है। जो अकेले अमित शाह को रिपोर्ट करती है और उसकी ब्रीफिंग से फिर प्रदेश नेताओं, प्रदेश संगठन, वॉर रूमों, चुनावी रणनीति सबका हडका कर काम कराया जाता है।

हो सकता हूं मैं गलत हूं लेकिन चालीस साल कीसियासी आंखों देखी में आगे के ट्रेंड का लबोलुआब है कि मोदी-शाह ने 2023 के इन विधानसभा चुनावों को2024 के लोकसभा चुनाव के बाद की बिसात में ढाला है। इस भविष्यवाणी को नोट रखे कि विधानसभा चुनाव में कोई हारे-जीते अगला लोकसभा चुनाव वापिस नरेंद्र मोदी जीतेंगे। तब केंद्र में तीसरी बार सरकार के साथ बतौर मोदी के उत्तराधिकार में अकेले अमित शाह का सियासी कद होगा। तभी कल्पना करें यदि मौजूदा चुनावों में शिवराज सिंह चौहान, वंसुधरा राजे, रमन सिंह का चेहरा होता न कि नरेंद्र मोदी का तो हार-जीत के बावजूद क्या शिवराज और वंसुधरा का पार्टी में वजूद बना नहीं रहता? वे 24 के चुनाव बाद भी भाजपा के बड़े नेता बने रहते।

मगर इस चुनाव में सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहे शिवराज सिंह और अनुभवी महिला नेता के नाते वसुंधरा राजे की उपस्थिति नरेंद्र मोदी के बड़े चेहरे के आगे लुप्त होते हुए है। पिछले चार महिनों से इन पुराने नेताओं की अनुपयोगिता, अलोकप्रियता आदि का परस्पेशन बनवाते हुए मोदी-शाह ने राज्यों का चुनाव जैसे अपने हाथों में लिया है तो इससे चित और पट दोनों उनकी है। यदि भाजपा हारी तो ठिकरा शिवराज, वंसुधरा और रमनसिंह की करनियों पर। और यदि जीती तो नरेंद्र मोदी की वजह से और कांटे की फाइट हुई तो यह हल्ला कि मोदी-शाह नहीं होते तो इतना भी नहीं होता। कांग्रेस एकतरफा जीतती।

सो नोट रखे, नतीजों के बाद शिवराज, वंसुधरा, रमनसिंह एमएलए होते हुए भी हर्षवर्धन या उमा भारती की तरह हाशिए में, खत्म। भाजपा व संघ परिवार में उत्तर भारत के इन चेहरों का बतौर विकल्प हमेशा के लिए अर्थ खत्म।

लाख टके का सवाल है कि ऐसी बिसात बनी किस बहाने? सर्वे एजेंसी की रिपोर्टों से। मोदी-शाह द्वारा एएमआई एजेंसी का मनमाना उपयोग। जायज सवाल है कि नरेंद्र मोदी का अपना चेहरा दांव पर लगा कर विधानसभा चुनाव हराना भी तो रिस्की है? पर नहीं है। इसलिए क्योंकि यह हकीकत अपनी जगह है कि नरेंद्र मोदी का चेहरा बतौर प्रधानमंत्री उत्तर भारत के हिंदुओं में अवतार माफिक है। विधानसभा में लोग भले कांग्रेस को वोट दें लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी का चेहरा ही वोट पाएगा।

इसलिए 2024 के लोकसभा चुनाव से ठिक पहले और बाद में मोदी के बाद केलिए तैयार होते प्रधानमंत्री चेहरे की राजनीति में सब बदल रहा है। मुझे नहीं लगता कि नरेंद्र मोदी अपने उत्तराधिकार में अमित शाह के लिए जमीन तैयार करते हुए होंगे। मेरी पुरानी थ्योरी है कि मोदी अपनी विरासत की इतिहासजन्यता के खातिर अपने आगे भी एक गुजराती को प्रधानमंत्री पद पर नहीं चाहेंगे। तथ्य यह भी है कि जब गुजरात में अमित शाह की नहीं चलने दी गई और यूपी की गर्वनर आनंदीबेन के करीबियों का वहा महत्व बना रहा  और लखनऊ में उनकी छत्रछाया में योगी आदित्यनाथ लगातार मजबूत होते हुए है तथा खुद नरेंद्र मोदी भी उनके कंधों पर हाथ रखे हुए है तो 2024  के लोकसभा चुनाव बाद अपने आप योगी आदित्यनाथ के वारिस होने की धारणा मान्य होती जाएगी। यों भी योगी की पूरे देश में मोदी के बाद प्रचार के लिए सर्वाधिक मांग है। मौजूदा चुनाव में भी हर कोई योगी की सभा चाहते हुए है। हालांकि उम्मीदवारों की इस डिमांड पर वार रूम से समझाया जाता है कि सुरक्षा कारणों से योगीजी की सभाएं ज्यादा नहीं रखाई जा सकती। उधर लखनऊ में योगी के इर्दगिर्द उन्हे प्रधानमंत्री के रूप में देखने वाले प्रबंधकों की कमी नहीं है।

सो मोदी की विरासत के नाते उत्तर भारत में शिवराज, वसुंधरा, रमनसिंह के चेहरों का हाशिए में जाना बिसात का पहला चरण। दूसरा चरण लोकसभा चुनाव मेंकेंद्रीय मंत्रियों की छंटनी। राजनाथ सिंह संभवतया अपने बेटे को आगे करके रिटायर हो जाए वही नीतिन ग़डकरी स्वास्थ्य के चलते आउट। तीसरा चरण होगा नरेंद्र मोदी के तीसरे केबिनेट में पुरानों की जगह नए, नौजवान चेहरों को मौका। संभव है तब योगी आदित्यनाथ पर भी दिल्ली में अंहम जिम्मेवारी थोपी जाए।

मेरी इस भविष्यवाणी को नोट रखें कि जैसे इन विधानसभा चुनावों में एएमआई एजेंसी के सर्वेक्षणों के जरिए टिकट कटे, बंटे तथा धमाल हुए वैसे ही लोकसभा चुनाव के लिए भी सर्वे ऐसे होंगे जिनसे अधिकाधिक पुराने, सीटिंग सांसदों के टिकट कटे और वे नए चेहरे उम्मीदवार बने जिनका संघ या भाजपा के स्थापित मानदंडों में कोई अर्थ नहीं होता है। उसमें न योगी अपने लोगों के टिकट करा या बचा पाएंगे और न संघ पदाधिकारियों की चलेगी।

तभी ये विधानसभा चुनाव भाजपा-संघ परिवार की राजनीति का एक टर्निग प्वाइंट है। मेरा मानना है कि पार्टी-संगठन-नेता-कार्यकर्ता सब आउट और सबकुछ अब 2024 के बाद नरेंद्र मोदी की विरासत की उधेडबुन में सोचा जाता हुआ है। वैसे इस बुनियादी तथ्य को भी नोट रखें कि भाजपा ही नहीं, कांग्रेस और क्षेत्रिय पार्टियों में भी अब सत्ता की अंध दौड है और वह पूरी तरह सर्वयरों और कथित पेशेवर मैनेजरों, ठेकेदारों के नकली-खोखले चुनावी प्रबंधनों से संचालित है। तभी संभव है सन् 2024 में नरेंद्र मोदी की विरासत में भाजपा में वैसा ही सत्ता संर्घष मुमकिन है जैसा हिंदू राजे-रजवाड़ों में हुआ करता था।

कितनी दूर की बात। मगर नोट करके रखिए।

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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