कोई कितनी ही कोशिश करे, भारत की भीड़ को दुनिया से कनेक्ट करे, क्योटो और काशी में करार कराए, काशी को कितना ही आधुनिक बनाए, सब मिथ्या। काशी और कौम का अक्खड़ निर्गुणी सत्य एक ही था, है और रहेगा कि राम नाम सत्य है, मुर्दा साला मस्त है!… कबीरदास खेला और खिलाड़ी की बात तो तब कर सकते थे जब काशी की गलियों में जिंदादिली मिलती! … तभी मुझे काशी को क्योटो से जोड़ने के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जुगाड़ पर हंसी आई। काशी का भला क्योटो से क्या लेना! काशी के लिए याकि हिंदुओं के लिए संभव ही नहीं जो वे क्योटो (जापान) की जिंदगी पर सोचें। क्योटो को देखना, समझना तो दूर काशी अपने मृतलोक के अहंकार के उसके अस्तित्व को भी नकार देगी। जापानी लोगों के जीवन जीने के अंदाज, उनके आनंद को काशी के महापंडित भी मिथ्या करार देंगे तो घाटों पर धुनी लगाए निर्गुणी संत-फकीर भी।
बात सही है। भला भारत में जीवन और मृत्यु पर विचार की क्या तुक? जब भीड़ 84 लाख योनियों में जन्म-जन्मांतर की यात्रा की गठरी लिए जी रही है तो धरती तो उसका वह प्लेटफार्म, वह मृत्युलोक जो दुखों का रेगिस्तान है। माया और मृग मरीचिका है। दिमाग की इस बुनावट में जन्म-मृत्यु, पुनर्जन्म के निरंतर सफर की एक जिंदगी का क्या अर्थ! क्या तो शरीर पर सोचना और क्यों जिंदगी की बचपन, जवानी और बुढ़ापे की अवस्थाओं को जांचना? हिंदू क्यों दूसरी संस्कृतियों से अपनी तुलना करें? उनसे क्या जानना कि जीवन का सुख क्या है? जिंदगी को कैसे जीना चाहिए? या मृत्यु से पूर्व जीवन आनंद से भी मोक्ष की अनुभूति संभव है?
जाहिर है 140 करोड़ लोगों की भीड़ का अपना अंदाज है। भीड़ अंधेरे-उजियारे, सुख-दुख सबसे निरपेक्ष। तभी जीवन को जिंदादिली, उसकी पूर्णता, श्रेष्ठता, मोक्ष भाव में जीने जैसी बातें बेमानी हैं। भीड़ का जीना मशीनी है। हम हजार साल की गुलामी में अज्ञान और अंधेरे के इतने आदी हो गए हैं कि आंखें खुल ही नहीं सकतीं। जन्म-मृत्यु सब तयशुदा यांत्रिक प्रक्रिया में है। संसार निसार और जन्म-मृत्यु, जैविक अस्तित्व सब भाग्याधीन और संतोषदायी!
हां, यही कलियुगी सत्य है। यदि यह आपको अतिवादी लग रहा हो तो जरा याद करें 2021 में गंगा में बही लाशों, गंगा किनारे दफनाए या जलाए गए मृत शरीरों को… वह कितना दहलाने देने वाला था। मगर कौम, नस्ल और सरकार सभी ने उसकी अनदेखी की, उसे दबाया, भुलाया और नियति की लीला मान इतिश्री की। वह अनुभव किस मिजाज का भान कराने वाला था? ऐसा सदियों से चला आ रहा है। सदियों के अनुभवों ने ही भीड़ को बेसुध जिंदगी में ढाला हुआ है। जन्म-मृत्यु के चाहे जितने अनुष्ठान बने हुए हों मगर ढर्रा कुल मिलाकर यांत्रिक और वक्त काटता हुआ।
समय भले आधुनिक काल की इक्कीसवीं सदी का है लेकिन 140 करोड़ लोगों की भीड़ अपने अंधेरे में दुनिया को जांचने-समझने की न चाहना लिए हुए है और न क्षमता। हम अपनी तुलना जापान, स्वीडन याकि उन देशों, उन सभ्यताओं से कर ही नहीं सकते जो पृथ्वी पर मनुष्यों के लिए स्वर्ग जैसा आनंद, मोक्ष बनाए हुए हैं। भीड़ की नियति और भाग्य में अंधेरे की साधना है। बंधुआ परिस्थितियों में धीरे-धीरे पक कर बनी उस लोक संस्कृति में धड़कते रहना है जो समय को फील नहीं करती। जो दिमाग-बुद्धि-चेतना की तर्कमूलक खदबदाहट को सिरे से खारिज करती है। तभी भीड़ के वे आंख, कान, नाक नहीं हैं जो अपने नजरिये से परे की दुनिया को देखें, बूझें और समझें। कहने को भले हम उम्र-अनुभव-सांसारिकता सभी में वक्त के साथ चलते हुए हैं लेकिन जिंदगी का जीना समाजबंद, कुंआबंद है। इसलिए हजार साल से इस तरह का निर्गुणी टाइमपास स्थायी है कि जग दर्शन का मेला!
हां, मैं भी कुमार गंधर्व की आवाज में कबीरदास के इस फलसफे में रमा रहा हूं कि जिंदगी पर फालतू इतराना नहीं चाहिए। बावजूद इसके मुझे कई बार लगता है कबीरदास काशी की गलियों की भटकी आत्मा थे। क्यों उन्होंने जग को मेला कहा, खेला क्यों नहीं? क्यों मनुष्य को दर्शक करार दिया, खिलाड़ी क्यों नही?
पर कबीर खेला और खिलाड़ी की बात तो तब कर सकते थे जब काशी की गलियों में जिंदादिली मिलती! वे गुलामी के अंधेरे से परे होते। हम हिंदुओं के समाज, धर्म और व्यक्ति की जीवनदृष्टि की काशी की गलियां हमेशा पर्याय रही हैं। तभी मुझे काशी को क्योटो से जोड़ने के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जुगाड़ पर हंसी आई। काशी का भला क्योटो से क्या लेना! काशी के लिए याकि हिंदुओं के लिए संभव ही नहीं जो वे क्योटो (जापान) की जिंदगी पर सोचें। क्योटो को देखना, समझना तो दूर काशी अपने मृतलोक के अंहकार में उसके अस्तित्व को भी नकार देगी। जापानी लोगों के जीवन जीने के अंदाज, उनके आनंद को काशी के महापंडित भी मिथ्या करार देंगे तो घाटों पर धुनी लगाए निर्गुणी संत-फकीर भी। निर्गुणियों के जीवन सत्य में क्या तो मनुष्य शरीर के बचपन पर सोचना और क्या जवानी तथा बुढ़ापे पर यह विचार कि जग है मोक्षदायी जीवन! हमें क्या लेना कि पृथ्वी पर बाकी लोग कैसे जी रहे हैं! उनकी कैसी जीवन पद्धति है? वे जिंदगी को आनंद की स्वर्गीय अनुभूति बनाने के कैसे-कैसे उपाय करते हैं?
कह सकते हैं कि कोई कितनी ही कोशिश करें, भारत की भीड़ को दुनिया से कनेक्ट करें, क्योटो और काशी में करार कराएं, काशी को कितना ही आधुनिक बनाएं, सब साला मिथ्या। काशी और कौम का अक्खड़ निर्गुणी सत्य एक ही था, है और रहेगा कि राम नाम सत्य है, मुर्दा साला मस्त है!
सोचें, जिंदगी यदि नरक है तो मृत्यु से मुक्ति और मुर्दे की मस्ती का काशी आइडिया गलत नहीं है? तभी सोचें, हमारी जैसी जीवन निरपेक्ष, जिंदादिलीविहीन संस्कृति क्या दूसरी कोई है?
गंभीर मसला है कि अतीत का अपना प्रभु वर्ग भी सब मिथ्या और माया के दर्शन में जिंदगी गुजारता हुआ तो लोक जीवन की लोक संस्कृति भी इस बानी में गुंथी हुई कि जग दर्शन का मेला।
धारा सगुणी हो या निर्गुणी, तुलसी हों या कबीर, सभी की जिंदगी क्योंकि गुलामी और निरंकुशता में सांस लेती हुई थी तो सभी के अमृत वचनों का सार एक सा। सबने अपने को, समाज की जिंदगी को रामजी को अर्पित करके ज्ञान दिया कि- सुखिया सब संसार है, खाये औ सोये, दुखिया दास कबीर है, जागै औ रोवे। मतलब हमें संसार, जिंदगी के सुख को जान कर भला क्या करना है जब हमारी नियति बंधन, छल-कपट, अर्पण-समर्पण की है। न जिंदगी काम की और न जिंदगी के लिए जतन की जरूरत।… अपने में मगन रहो, धुनी रमाए रहो..बैठे हैं गंगा किनारे, मणिकर्णिका घाट के महाश्मशान में धू-धूकर जलती चिताएं और उनकी राख, धूल-फूल लिए गंगा में प्रवाह में डुबकी मार जीवन का यह सत्य गांठ बांधे दोहराते रहो कि सब निसार।
मेरा मानना है कि काशी ने सगुण-निर्गुण और भक्ति के जितने जो बीज मंत्र दिए और उन्हें अलग-अलग अंदाज में घर-घर लोकमान्य बनाया तो पूरे भारत और खासकर उत्तर भारत की लोक संस्कृति न केवल जिंदगी निरपेक्ष बनी, बल्कि मनुष्य जीवन की दैनंदिनी को हर तरह से लावारिस और यांत्रिक बनाया। फालतू की बात है कि भक्ति आम जनता का सहारा बनी। आम जन जिंदगी को अर्पित-समर्पित करके पीड़ाओं से पार हुआ। अंधविश्वासों, आडंबरों, कर्मकांड और पाखंडो से आजाद हो कर लोक जीवन ने सद्गुरू की संगति पाई। यदि ऐसा होता तो हजार साल में लोक संस्कृति कभी तो लोक क्रांति की कोई बेचैनी या लौ बनाती?
हम हिंदुओं की त्रासदी है जो गुलामी के भौतिक अंधेरे में हमने दिमाग में अंधकार की परतें बनाईं। विधर्मी बादशाह की ज्यादतियों, आंतक, और दासता को झेलते हुए उसकी मानसिक जलालत, पीड़ा और शोषण से पार पाने के लिए दस तरह के मुगालतों, इलहामी ख्यालों में वे आइडिया पकाए, जो संत वाणियों, वचनों, दोहों, चौपाइयों, पत्रिकाओं, प्रवचनों और सत्संगों, कर्मकांडों से ऐसा मनोविश्व बनाने वाला हुआ जो दुनिया की दूसरी किसी नस्ल का नहीं है।
ऐसा विकास स्वाभाविक था। सोचें, भारत, काशी और कबीरदास के वक्त के अनुभवों पर? सन् 1025 से ले कर सन् 1425 का चार सौ सालों का वक्त हिंदुओं के लिए सचमुच बहुत जलालत भरा था। मोहम्मद गोरी द्वारा सोमनाथ मंदिर के ध्वंस की शुरुआत से चार सौ साल लगातार तैमूर लंग की लूट, सिकंदर लोधी की कट्टर इस्लामी सत्ता का कुल हिंदू अनुभव मुर्दादिली बनवा देने वाला था। इस अवधि में खिलजी, तुगलक, फिरोजशाह, तैमूर लंग, लोधी वंश ने उत्तर भारत में हिंदुओं से जजिया टैक्स वसूला। मंदिरों को तोड़ने, मूर्ति को तोड़ कर उसके टुकड़ों को कसाइयों को मांस तोलने के लिए देने जैसे सनकी, क्रूर, अत्याचारी, अतिचारी शासन में हिंदुओं ने वह नारकीय जीवन जीया, जिसमें सूरदास हों या कबीर, रविदास हों या मीरा या तुलसीदास कोई भी मनुष्य गरिमा में जीवन के मायने का बखान नहीं कर सकता था। जिंदगी को वे सुख-आनंद, वीर-गौरव रस, क्रांति के हुंकारों, विचारों में कैसे अभिव्यक्त कर सकते थे? इसलिए मेरा मानना है कि भारत का भक्ति काल और भक्ति काव्य मनुष्य की मुर्दादिली के पोषण, जीवन से पलायन, जिंदगी को पाखंड और झूठ के घने अंधेरे का अभ्यस्त बनवाने वाला था। जिंदगी को वैराग और भक्ति में बांध समर्पण, पलायन, मुक्ति के उस प्रपंच में धंसाया गया, जिससे जिंदगी बेमतलब और संसार माया। मन-मष्तिष्क के अंधेरों में भक्ति की इतनी परतें बनीं कि मनुष्य अस्तित्व मेरे तो गिरधर गोपाल में विलुप्त।
सब स्वाभाविक। आखिर वक्त जो जलालत की चरम अनुभूतियों का था। इसलिए लोकवाणी ने समय की निसारता को जीवन की निसारता में अभिव्यक्त किया। कबीर ने लोक संस्कृति की नस-नस में भर दिया कि- जगत चबेना काल का, कछु मुथी कछु गोद। (संसार मृत्यु का चबेना है। मृत्यु कुछ को अपनी मुट्ठी और कुछ को गोद में रख कर लगातार चबा रहा है)। बेटा जाय क्या हुआ, कहा बजाबै थाल, आवन जावन हवै रहा, ज्यों किरी का नाल। (जन्म से क्या हुआ थाली पीट कर खुशी क्यों मना रहे हो? संसार में आना-जाना लगा रहता है जैसे की एक नाली के कीड़े पंक्तिबद्ध हो कर आते-जाते हैं)। जीव जनजालय परि रहा, दिया दमामा आये। (मनुष्य माया के जंजाल में पड़ा हुआ है जबकि काल ने कूच करने का नगाड़ा पीट दिया है)। कबीर गाफील क्यों फिरय, क्या सोता घनघोर, तेरे सिराने जाम खड़ा, ज्यों अंधियारे चोर। (मनुष्य क्यों भ्रम में भटक रहे हो? नींद में क्यों सो रहे हो? तुम्हारे सिरहाने में मौत खड़ी है)।
इन फलसफों का क्या अर्थ है? मोटा मोटी यह कि सन् 1400 से शुरू भक्ति मार्ग, याकि कबीर से तुलसी और वर्तमान तक हम हिंदू जीवन को बेसुधी और अंधकार में जीते आए हैं? सदियों से जो अंधेरा घना होता आया है उससे भीड़ का मुक्त हो सकना संभव नहीं है। हम अंधकार को अर्पित-समर्पित है। दासता स्थायी है। लोक संस्कृति के नस-नस में भक्ति की वह सगुण-निर्गुण बाणी है, जिससे दिमाग का चेतन-अचेतन यह धारे हुए है कि समर्पण से सिद्धि है, कल्याण है और परलोक का मोक्ष है। यह धरती, इहलोक बेकार निरर्थक है। इस लोक के निज जीवन से कुछ संभव नहीं है। मगर हां, यदि सद्गुरू, भगवान, राजा याकि दिव्य पॉवर से अकिंचन मनुष्य जरूर कुछ पा सकता है बशर्ते के उसकी भक्ति में रमे रहो। प्राप्ति, मुक्ति तो देवता, अवतार, गुरू के आगे समर्पण से ही संभव। ऐसी कोई गुंजाइश नहीं है, जो व्यक्ति के निज जीवन के निज पुरुषार्थ से जिंदगी सार्थक बने!
सो, कुल मिलाकर 140 करोड़ लोगों की भीड़ का अंधेरी गुफाओं का अपना वह जंजाल है जो हजार साला परिस्थितियों में रचा और बना है। तभी हर बात, हर चिंता, हर चुनौती, हर कोशिश सुंरग में एक से दूसरी गुफा में भटकती है। न उजियारा संभव है और न उड़ना संभव। व्यक्ति विशेष का जिंदगी को जिंदादिली से जीना मुश्किल तो बुढ़ापे को आनंद के मोक्ष फील में जी कर प्राण छोड़ना और भी मुश्किल! अपने किन लोगों के बस में यह है? इस पर फिर कभी।