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उत्सवधर्मिता संकट में तो है!

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धर्म, धार्मिकता का शोर कितना ही हो, लाईटें और दिखावा कितना ही हो परिवार में उत्सवधर्मिता का मजा वैसा नहीं है, जैसा पहले था। यादों के झरोखों में यह अनुभव दर्ज नहीं होगा कि तब क्या मजेदार दिवाली थी? पहले के जमाने में सब कुछ बहुत सामान्य था फिर भी मनभावक था। घर का स्वाद, साफ-सुथरेपन का नयापन, भावना, मेलजोल, उमंग-उत्साह की तब फुलझड़ियां ही फुलझड़ियां थी।

हमारी शाश्वतता, निरंतरता की कई वजहों में एक वजह अपने कैलेंडर का तिथि, पर्व, त्योहारों से भरा होना है। इसके कारण भी संवेदनाओं, परंपराओं, सरोकारों की वह जीवंतता मिटी नहीं, जिसे मिटाने के असंख्य बार प्रयास हुए। हिंदू स्वभावतः उत्सवधर्मी है। इससे समाज में एकसूत्रता है। संभवतया यह कारण है जो परिवार, गोत्र, कुनबे, जाति के तमाम भेद अंततः उत्सवधर्मिता में मिट जाते हैं। महत्व त्योहार की फील, उसके अनुभव, उसकी यादों का है।

इसलिए लाख टके का सवाल है कि सौ-सवा सौ करोड़ हिंदुओं की उत्सवधर्मिता भीड़ में कहीं भीड़ जैसी तो नहीं हो रही? वैयक्तिक तौर पर लोग मन और जीवन के रंगबिरंगे अनुभवों को बनाते हुए है या नहीं?  पीढ़ियों का फर्क याकि आजादी के बाद पैदा हुई पीढ़ी, बूमर, जनरेशन एक्स, वाई, जेड के मार्केटिंग फंदों में वर्गीकृत आबादी की भिन्नताओं से उत्सवधर्मिता कितनी प्रभावित है? त्योहारों से घर-परिवारों में मेलजोल, रिश्तों, सामाजिकता, पारिवारिकता हरीभरी रहे हैं या रूखी सूखी? उत्सवधर्मिता पहले की तरह जैविक है या कृत्रिम? धार्मिकता का बल है या सांस्कृतिकता का? परिवारों में सच्चे-अच्छे अनुभवों की यादें पकती हुई हैं या दिखावे, सूखे-फीके, टाइमपास वाले अनुभव?

कईयों का मानना है हम हिंदू पश्चिम के भौतिकवादी असर में हैं। हिंदूपने और उसकी उत्सवधर्मिता पर पश्चिमी सूखापन हावी है। पश्चिम में जैसे मां-बाप, पारिवारिक रिश्तों, संबंधों के प्रति नई पीढ़ियों की उदासीनता है वैसे ही भारत में लक्षण हैं। नई पीढ़ियां चौबीसों घंटे व्यस्त और अपने में खोई हुई हैं। पर्व-उत्सव वैयक्तिक जीवन में औपचारिकता मात्र हैं। इंस्टा मैसेजिंग हैं, हैशटैग दिवाली का टाइमपास है! मैं और मेरे स्पेस तथा मेरे इंस्टा मैसेज का शगल है! संवेदनाओं और परंपराओं का रूखा-सूखा है। पैसे तथा भौतिकवादी रूख में रिश्तों, भावनाओं और पारिवारिकता को ठेंगा है।

फालतू बात है। इसलिए क्योंकि अमेरिका, ब्रिटेन की पश्चिमी सभ्यता में एकल जीवन के बावजूद मुझे क्रिसमस का त्योहार पारिवारिकता में, भावनात्मक संबंधों की निज कनेक्टिविटी में मनता दिखता है। ईसाई और इस्लाम की ईद या क्रिसमस में धार्मिक-सांस्कृतिक सामुदायिकता के साथ पारिवारिक कनेक्टिविटी होती है।

इसलिए जो है वह समय का फर्क है और समय ने भारत की भीड़ को इतना विशाल बनाया है कि जिंदगी में आपाधापी बढ़ी है। नकलीपना बढ़ा है।

पुराने अनुभवों में दिवाली की याद होती है। इसलिए बात-बात में मैंने जानकार से पूछा- इन दिनों की पार्टियां कैसी हो रही हैं? गिफ्ट क्या लिए-दिए जा रहे हैं? मालूम हुआ डायेसन का एयर प्यूरीफायर, वैक्यूम क्लीनर खरीदे-दिए जा रहे हैं? जाहिर है प्रदूषण भरे जीवन में ये गिफ्ट समय की बदौलत हैं। वही ‘बड़े लोगों’ की पार्टियों में पहली जैसी रौनक नहीं रही। ध्यान रहे ‘बड़े लोगों’ की दिवाली पार्टी का अर्थ दिल्ली, मुंबई आदि के उन अमीरों, कुलीन वर्ग की दावतों से है, जिसमें तीन पत्ती, जुआ खेला जाता है। मैं, अस्सी-नब्बे के दशक में अपने कॉलम में फार्महाउस दावतों की ‘गपशप’ लिखा करता था। आरके धवन के करीबी एक चोपड़ा हुआ करते थे उनकी फार्महाउस की दावत के तमाशे पर जब लिखा तो वह, कुछ कांग्रेसी व दिल्ली-मुंबई के कॉरपोरेट लॉबिस्ट दुखी हुए। समझ आया कि उत्सवधर्मिता के ऐसे रंगों का कैसा गहरा मतलब है। उन दिनों लुटियन दिल्ली में अफसरों-नेताओं को सोने-डायमंड के सेट, शराब के गिफ्ट पैकेट बंटते थे। दारू-जुआ पार्टियां हुआ करती थीं। अब काफी बदल गया है। जानकार ने बताया दिवाली पार्टियों में वैसा जोश, वैसा मजा अब नहीं होता है जो पहले होता था!

भला क्यों? यह कैसे? दरअसल क्रेज खत्म है। उत्सवधर्मिता में बेमेल मन का खालीपन है। तभी अमीरों की दावतों में मेहमानों का टोटा है। यों पार्टियां पहले भी कनेक्शनों, स्वार्थों की सोशल नेटवर्किंग थी। वैसे ही आज भी होती है। इन दिनों युवाओं, सहकर्मियों की नौजवान पार्टियां अलग तरह की हैं और पके-पकाए अमीरों, रसूखदारों के पुराने ढर्रे की दिवाली पार्टियों का अलग अंदाज है। नौजवान दावतों का मजमा जिंदगी जीने के नशे, नए ट्रेंड और मौकों, कनेक्टिविटी की तलाश लिए होता है। वही परंपरागत, पुराने मिजाज (राजधानी होने के कारण दिल्ली में इसका सिलसिला मुगलों, अंग्रेजों के समय से है। तब मनसबदारों, रायजादों, रायसाहिबों के कुलीन वर्ग की दावतों की दास्तां थी) की दिवाली, शराब, जुए के बहाने रसूखों का पैरामीटर है। इनमें अमीरी और पॉवर दोनों खनकते हैं। अब शराब के साथ चरसियों का पहलू नया है। जाहिर है भारत शराब के नशे से बहुत ऊपर आधुनिक हो गया है!

फिर भी पार्टी के लिए लोगों का इकठ्ठा होना कम है। मेजबान को न्योता देने के साथ मिन्नत करनी होती है। यदि कोई कहे कि ड्राइवर छुट्टी पर है या गाड़ी गैरेज गई हुई है तो मेजबान खुद गाड़ी और ड्राइवर भेज कर मेहमान का पहुंचना सुनिश्चित करेगा। फिर भी मेहमानों की कमी। फार्महाउस लकदक होते हुए भी खाली, खाली सा। हालांकि पैसा बोलता होता है। जुए की टेबल पर खिलाड़ी दो-पांच लाख रुपए की गड्डियां सामने रखे पचास-पचास हजार रुपए का दांव खेलते हैं। उन्हें देखते हुए अच्छी शराब, अच्छा खाना सर्व करते पांच सौ, हजार रुपए के मेहनताने पर आए लड़के!

पैसा बढ़ा है। जुए में अमीर और गरीब (करोड़ों नौजवानों द्वारा आनलाइन एप में सट्टा खेलना भी वास्तविकता है) जुआरियों के दांव भारी हैं। पता नहीं इन दिनों दिवाली याकि नए संवत वर्ष की मुहूर्त ट्रेंडिग में शेयर मार्केट में छोटे खरीदारों का क्या अनुपात है? इस दफा सुनाई दिया है कि धनतेरस पर बिक्री कम थी। ऑनलाइन खरीदारी के बाजार भी फीके थे। इसका अर्थ यह नहीं कि 140 करोड़ लोगों के भीड़ का पहाड़ उठाए देश के पांच-दस करोड़ महाअमीर-उच्च पेशेवर लोगों की उंगली कमजोर हुई है। इनका संकट अलग है। इन्हें देश में अमीरी दिखाने में पहले जैसा मजा नहीं आता है। इनमें कोई देशी क्रेज नहीं है।

मतलब फार्महाऊस हैं। सुपर लक्जरी बिल्डिंग के लंबे-चौड़े सुपर फ्लोर के फ्लैट हैं लेकिन क्रेज, जोश और घर-परिवारों के रिश्तों में वह सूखापन है, वह बेरूखी और बेगानापन है, जिससे उत्सवधर्मिता एकांगी हो गई है। दूसरे शब्दों में अपनों के बीच, अपने वर्ग में, अपने परिवार की अंतरंग संवेदनाओं और परंपराओं में यदि दिवाली यादगार पलों के बिना है तो उत्सवधर्मिता पर निश्चित ही सवाल हैं। समूह, परिवार और वैयक्तिक तीनों स्तर पर उत्सवी मूड़ वह उत्साह लिए हुए नहीं है, जिससे दिवाली के खास अनुभव की कभी छाप बना करती थी।

कई तरह के पेंच और मसले हैं। पहली बात दोस्त, सहकर्मी, समवर्ती, प्रोफेशनल, कारोबारी सभी रिश्तों में प्रतिस्पर्धा है। ईर्ष्या और दिखावे के मनोभावों से बेगानापन है। दूसरे, अपनेपन के प्राथमिक पारिवारिक खूंटे के लिए समय नहीं है। तीसरे, हम हिंदुओं की बेसिक प्रवृत्ति हमेशा अपने दायरे में अपनी प्राप्ति, अपने अहंकार के प्रदर्शन की है। जिसके पास फार्महाउस है उसे बाकी फार्महाउस वालों याकि अपनी जैसी हैसियत के लोगों की पार्टी करनी है? उन्हीं से नेटवर्किंग रखनी है। और इससे सब कुछ असहज है।

साथ ही हाल के वर्षों में वर्ष-प्रतिवर्ष की नई भारत उपलब्धि असमानताओं की सीढ़ियों से निर्मित एवरेस्ट है। असमानताओं और इसके दबावों ने रिश्तों में बहुत मनमुटाव, निराशा, मेरी-उसकी हैसियत जैसे बिखराव बनाए हैं। लोगों के दिवाली के गिफ्ट पैकेट भी इस हिसाब से तय होते हैं कि किसे किस हैसियत की मिठाई और कैसा कार्ड देना है! अब जब यह है तो धर्म, धार्मिकता का शोर कितना ही हो, लाईटें और दिखावा कितना ही हो परिवार में उत्सवधर्मिता का मजा वैसा नहीं है, जैसा पहले था। यादों के झरोखों में यह अनुभव दर्ज नहीं होगा कि तब क्या मजेदार दिवाली थी? पहले के जमाने में सब कुछ बहुत सामान्य था फिर भी मनभावक था। घर का स्वाद, साफ-सुथरेपन का नयापन, भावना, मेलजोल, उमंग-उत्साह की तब फुलझड़ियां ही फुलझड़ियां थी! कोई न माने लेकिन वास्तविकता है उन यादों की गुनगुनाहट लिए करोडों की आज आबादी है। अर्थात वे जो वानप्रस्थ, संन्यास अवस्था का जीवन जी रहे हैं। इनकी भी संख्या कोई चालीस-पचास करोड़ लोगों की हैं!

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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