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मेरा भारत, कमला का अमेरिका

us presidential election

us presidential election: संयोग जो शुक्रवार की सुबह सप्ताह की ‘गपशप’ का विषय सोच रहा था तभी टीवी पर कमला हैरिस का भाषण शुरू हुआ। और मैं अमेरिकी लोकतंत्र में प्रवासी भारतीय श्यामला गोपालन की बेटी कमला हैरिस द्वारा राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी की स्वीकृति का भाषण सुनते सोचने लगा मेरे और कमला के दो देशों के अंतर पर। कैसा मेरा भारत है, जहां से लोग भागते हैं और कैसा अमेरिका है, जहां भारतीयों के लिए अपूर्व अवसर हैं! राष्ट्रपति बन सकने तक का मौका (और लिख लें कमला ही अगली अमेरिकी राष्ट्रपति है। इसी अखबार में मैंने 2020 में चुनाव से बहुत पहले डोनाल्ड ट्रंप के हारने का विश्लेषण किया था)।

सोचें, भारतीय मूल की अमेरिकी मां की एक बेटी का अमेरिका का राष्ट्रपति बनना! अमेरिका मतलब दुनिया का सिरमौर देश। आधुनिक, वैश्विक सभ्यता-संस्कृति, ज्ञान-विज्ञान-तकनीक, आर्थिकी का पितामह। दुनिया की धुरी, दुनिया का चौकीदार और विश्व व्यवस्थाओं का निर्णायक देश।

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सोचें, ऐसे देश के सबसे बड़े प्रभावी प्रांत कैलिफोर्निया की अटॉर्नी-जनरल, फिर अमेरिकी सीनेट की सांसद तथा पिछले कोई चार वर्षों से वाशिंगटन के उप राष्ट्रपति भवन में देश की नंबर दो के रूप में कमला की उपस्थिति के सत्य पर। क्या दुनिया का कोई दूसरा देश है जो नवागंतुक नागरिकों के लिए सब कुछ खोले होता है? दिल्ली के लेडी इर्विन कॉलेज से निकल श्यामला ने अमेरिका में उच्च शिक्षा और शोध का जब इरादा बनाया तो उन्हें 19 साल की उम्र में बर्कले में दाखिले से लेकर अकेले अपनी मेहनत से अपने-आपको काबिल बनाने, डिग्रियों के साथ पीएचडी की एक के बाद एक सफलता मिली। वे जीव विज्ञानी बनीं। उन्हें अमेरिका में हर स्वतंत्रता, हर अवसर प्राप्त था। अपनी पसंद से स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के जमैका मूल के प्रोफेसर डोनाल्ड हैरिस से उन्होंने शादी की। दोनों तब नागरिक अधिकार आंदोलन में सहकर्मी थे। सोचें, कुछ साल की नागरिकता के बाद ही श्यामला और उनके पति का सरकार के आगे अधिकारों के लिए आंदोलनकारी होना।

और जब दोनों में तलाक हुआ तो श्यामला ने दोनों बेटियों कमला और माया की खुद परवरिश की। बेटियों में शिक्षा, मेहनत, काबिल बनने के संस्कार बनाए। पड़ोसियों के साथ कमला चर्च में जाती थी तो मां हिंदू मंदिर ले जाती थी। मां कई बार बेटियों को चेन्नई ले कर आई। अपने तमिल ब्राह्मण परिवार के घरौंदे की बेटियों में यादगार यादें बनाईं। मां ने बेटियों को अहसास कराया कि परिवार की अंतःप्रेरणा से ही शिक्षा, शोध, बुद्धि और काबलियत से स्वतंत्र, आत्मविश्वासी जीवन जीना संभव है। बुद्धि और काबलियत है तो अपने आप बनेंगे। तभी मनुष्य जीवन है। जिंदगी को खैरात, झूठ, कृपा, जात-पात, आरक्षण से नहीं, बल्कि सत्य व पुरुषार्थ के सनातन सत्व-तत्व से बनाना चाहिए। इसलिए आश्चर्य नहीं जो कमला हैरिस ने बार-बार पहले भी और डेमोक्रेटिक पार्टी की कन्वेंशन में भी अपनी मां को याद किया। उनके प्रभाव में अपने और अमेरिका दोनों के व्यक्तित्व का हवाला दे कर बताया कि वे अमेरिका को समर्पित हैं। ऐसे ही उनकी मां श्यामला गोपालन भी अमेरिका पर पूरी शिद्दत से विश्वास करती थीं। निश्चित ही दोनों के विश्वास में अमेरिका खरा था और है। तभी कमला हैरिस अब महाशक्ति की राष्ट्रपति बनने की कगार पर हैं। अमेरिका ने उन्हें अवसर दिया और आगे उनसे अमेरिका का अवसर है!

और मेरा भारत! 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्र हुए भारत की यह वास्तविकता सतत है जो भारत के लाल विदेश भागते हुए हैं। मेरा मानना है यदि सरकार एक स्पांसर योजना बना आवेदन मांगे कि कौन भारतीय विदेश जा कर बसना चाहता है तो संभवतया भारत का अमीर, मध्य वर्ग के काबिल, पढ़े-लिखे करोड़ों लोग विदेश जाने की लाइन में लगेंगे।

इसलिए क्योंकि भारत में हर वह अवसर खत्म है, जिससे व्यक्ति का सम्मान, गरिमा, आजादी, समानता तथा काबलियत और बुद्धि से साफ-सुथरा जीवन संभव हो। लोग दुबई और उन खाड़ी देशों में भी जाना चाहते हैं, जहां सत्ता निरंकुश है लेकिन सबके लिए समान कानून और नियम-कायदों में अपनी क्षमता से कमाई के अवसर है तो यह वहां रहने वाले भारतीय कहते हैं कि वहां वह भ्रष्टाचार, वह असुरक्षा, भय तथा लूट-खसोट है ही नहीं जो जो भारत के सरकारी दफ्तरों और जिंदगी जीने की हर आवश्यकता जैसे शिक्षा, चिकित्सा, न्याय और तमाम सेवाओं में है।

सोचें, भारत के लोग याकि स्वंय भारतीय चेहरों का नेतृत्व भारत को जीने लायक नहीं बना सकता जबकि भारत से गए लोग अमेरिका, ब्रिटेन, आयरलैंड आदि को बनाने में समर्थ हैं। कमला अमेरिका में नेतृत्व में समर्थ है, जबकि भारत में नेता भी हांफता और नाकाबिल है और देश नौ दिन चले अढ़ाई कोस की नियति लिए हुए। क्यों?

मेरा मानना है प्रधानमंत्री का पद हो या राष्ट्रपति का, ये पद विकसित लोकतंत्र में कंपनी के मुख्य कार्यकारी अधिकारी याकि सीईओ जैसी जिम्मेवारी का निर्वहन करते हैं। इनसे देश रिइनवेंट होता है। वह नया अध्याय लिखता है। जबकि भारत के प्रधानमंत्री अपने को फरिश्ता, अवतार समझते हैं। और कथा सुनाते, झूठे वायदों से अपनी कथा बना रूखसत होते हैं और जनता के समय को खाते हैं और देश जस का तस घसीटता हुआ।

सोचें, नरेंद्र मोदी पर। वे एक नए कथित हिंदू आइडिया के दस वर्षों से प्रधानमंत्री हैं लेकिन उनसे क्या तो हिंदुओं का बना और क्या भारत का बना? मेरे शब्द कड़वी सच्चाई हैं लेकिन इतिहास में यह दर्ज होना है कि मोदी राज से भारत गोबर हुआ! भारत बुद्धिहीन, गंवार, भदेस हुआ। लोगों के अवसर खत्म हुए। असमानता बढ़ी। जातियों के झगड़े बने। भारत के लोग धर्म, जाति में बुरी तरह बंटे। बुद्धि और कौशल की जगह आरक्षण का कैंसर फैला। फ्री के राशन, पांच सौ-हजार, दो हजार रुपए की सरकारी भीख पर सौ करोड़ लोगों की जिंदगी आश्रित हुई। नागरिक अधिकारों का हनन हुआ। सिविल सोसायटी मुर्दा हुई। नस्ल और कौम का पुस्तक-शब्दज्ञान, भाषा, ज्ञान-विज्ञान, वैज्ञानिक चेतना सब सोशल मीडिया की बाढ़ में बहा। नतीजतन देश और राजनीति में भद्रता, गरिमा, सत्य, बुद्धि तथा तर्क-विचार आउट और गाली गलौज तथा नीचताओं का बोलबाला। और सबसे बड़ी बात जो यह अहसास नहीं कि सबके अवसर खत्म हो रहे हैं।

हां, अमेरिका में भी नीचता के प्रतिमान डोनाल्ड ट्रंप हैं। रूढ़ीवादी श्वेत लोग हैं। नस्लीय भेदभाव है। नस्ल, रंग, भाषा, कद-काठी की भिन्नताएं हैं। लेकिन मनुष्य की तरह मनुष्य जीवन जीने के लोकतंत्रजनित अवसर तो फिर भी सभी के लिए समान हैं। शिक्षा, बुद्धि, काबलियत और बंधुता व ज्ञान-विज्ञान की समाज में वह महत्ता तो है जिससे कंपीटिशन भी सकारात्मकता लिए होता है और समय के साथ नया नेतृत्व, नए अवसर लगातार उभरते होते हैं। तभी प्रवासियों के लिए अमेरिका लगातार सोने की खान है।

इसलिए हर पढ़े-लिखे भारतीय को अमेरिका में कमाल हैरिस की परिघटना पर सोचना चाहिए। सोचें, कि मेरे और आपके भारत में वह क्या हुआ जो ईमानदार अवसर ही नहीं रहे। देश और उसकी व्यवस्था सब खा गई। और फायदा अमेरिका व पश्चिमी देशों को। उन्हें भारत के बुद्धि निर्वासन से कमला हैरिस, ऋषि सुनक और न जाने कितने ही अनगिनत भारतीय सीईओ मिले।

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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