तेलंगाना में अगस्त के महीने में जब भारत राष्ट्र समिति के नेता और राज्य के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव ने 119 में से 115 सीटों पर उम्मीदवारों की घोषणा की तो किसी को अंदाजा नहीं था कि वे मुश्किल लड़ाई में फंसेंगे। इतनी जल्दी उम्मीदवारों की घोषणा को मास्टरस्ट्रोक माना गया। उससे पहले वे अपना राज्य छोड़ कर महाराष्ट्र में प्रचार कर रहे थे और देश भर में राजनीति कर रहे थे। उसी राजनीति के तहत उन्होंने अपनी पार्टी तेलंगाना राष्ट्र समिति का नाम बदल कर भारत राष्ट्र समिति कर लिया था। दूसरी ओर कांग्रेस, भाजपा और एमआईएम हाशिए की पार्टी माने जा रहे थे। लेकिन अचानक ऐसा माहौल बदला कि चारों तरफ कांग्रेस की बात होने लगी और कहा जाने लगा कि कांग्रेस जीत रहीहै। चुनाव प्रचार के समय कांग्रेस के जीतने का जो प्रचार हुआ वह एक्जिट पोल के नतीजों में भी दिखा है।
पांच बड़े मीडिया समूहों- इंडिया टुडे, इंडिया टीवी, न्यूज 24, एबीपी और टाइम्स नाऊ ने कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत मिलने का अनुमान जताया है। तेलंगाना बनने के बाद पहले चुनाव में यानी 2014 में कांग्रेस चार पार्टियों के साथ तालमेल करके लगी थी तो उसे 21 सीटें मिली थीं और 2018 के चुनाव में वह सिर्फ 19 सीटों पर रह गई थी। तभी सवाल है कि अचानक अगस्त के बाद ऐसा क्या हुआ, जिससे कांग्रेस इतनी मजबूत हो गई और अब चुनाव जीतती दिख रही है? इसमें संदेह नहीं है कि कांग्रेस की हवा बनी है और उसके बारे में धारणा बदली लेकिन चुनाव सिर्फ हवा और धारणा की चीज नहीं है। चुनाव में काडर काम करता है और बूथ प्रबंधन का भी उतना ही महत्व है, जितना हवा और धारणा का है। तो क्या कांग्रेस के काडर ने सत्तारूढ़ बीआरएस के मुकाबले बेहतर बूथ प्रबंधन किया है? ध्यान रहे 10 साल सत्ता में रहने के बाद चंद्रशेखर राव और उनका परिवार माइक्रो मैनेजमेंट के सारे गुण सीख गया है।
बहरहाल, एक तरफ बीआरएस का माइक्रो मैनेजमेंट और बूथ प्रबंधन है तो दूसरी ओर कांग्रेस की हवा और राहुल, प्रियंका, खड़गे के प्रचार से बनी धारणा और कर्नाटक के उप मुख्यमंत्री डीके शिवकुमार का प्रबंधन है। असल में तेलंगाना की धारणा बदलने की शुरुआत मई में कर्नाटक में कांग्रेस की जीत के साथ हो गई थी। उससे पहले कांग्रेस तेलंगाना में कहीं नहीं दिखती थी। उससे ज्यादा भाजपा दिखती थी। यहां तक की चंद्रशेखर राव की सरकार में नंबर दो रहे एटाला राजेंद्र भी पार्टी छोड़ कर भाजपा के साथ गए और मुनुगौडे के उपचुनाव में भाजपा की टिकट पर जीत हासिल की। उस समय तक बीआरएस के मुकाबले भाजपा दिख रही थी।
लेकिन कर्नाटक की जीत और भाजपा के ज्यादा दिखने से कांग्रेस को फायदा हुआ। भाजपा ने अपने प्रचार तंत्र के दम पर बीआरएस और के चंद्रशेखर राव के परिवार को पूरी तरह से बदनाम कर दिया था। पार्टी में फूट डाल दी थी। परंतु उसके पास इसका लाभ लेने का तंत्र नहीं था। तभी कर्नाटक की जीत के बाद नए जोश में कांग्रेस उतरी और बीआरएस विरोधी वोट को एक मजबूत खूंटा मिल गया। कर्नाटक के चुनाव से यह धारणा बनी है की मुस्लिम मतदाता कांग्रेस की ओर लौट रहा है। तेलंगाना में कांग्रेस को इसका फायदा मिल सकता है। इसके अलावा पहली बार ऐसा लगा कि कांग्रेस अलग तेलंगाना राज्य बनवाने के अपने फैसले को रिडीम करने उतरी है। राहुल और प्रियंका ने जोर देकर कहा कि सोनिया गांधी ने अलग राज्य बनवाया। यहां तक की बंटवारे पर सवाल उठाने वाले पी चिदंबरम से सार्वजनिक माफी मंगवाई गई। चुनाव से पहले वाईएस शर्मिला की पार्टी वाईएसआर तेलंगाना पार्टी का कांग्रेस को समर्थन देना भी कांग्रेस की हवा बनाने में कारगर रहा।