चुनाव नतीजों से पहले यह उम्मीद की जा रही थी कि अगर भारतीय जनता पार्टी बहुमत तक नहीं पहुंचती है या वह ढाई सौ की संख्या से नीचे रूकती है तो उसे सहयोगी पार्टियों का दबाव झेलना पड़ेगा और पार्टी के अंदर से भी नरेंद्र मोदी और अमित शाह के खिलाफ आवाज उठेगी। नतीजों में भाजपा 240 पर सिमट गई लेकिन पार्टी के अंदर से कोई आवाज नहीं उठी। कह सकते हैं कि मोदी और शाह ने बड़ी होशियारी से पार्टी के अंदर की संभावित बगावत को थाम लिया। सभी बड़े नेताओं को उनके पुराने मंत्रालय फिर से दे दिए। राजनाथ सिंह रक्षा में तो नितिन गडकरी सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय में लौट गए। शिवराज सिंह चौहान को भी कृषि और ग्रामीण विकास जैसे दो भारी भरकम मंत्रालय दिए गए। इस तरह से पार्टी के अंदर कोई विवाद नहीं उठा।
परंतु संघ के अंदर से आवाज उठी है। पहले राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने कई बातें कहीं। उन्होंने कहा कि सेवक के अंदर अहंकार नहीं होता है। उन्होंने यह भी कहा कि झूठ का प्रचार में इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। भागवत ने यह भी कहा कि राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी दुश्मन नहीं होते हैं। ये सब बातें उन्होंने सामान्य अंदाज में कही लेकिन इशारा प्रधानमंत्री मोदी की ओर था। फिर संघ की पत्रिका ‘द ऑर्गेनाइजर’ में रतन शारदा ने लेख लिख कर सवाल उठाया। बाहरी नेताओं को पार्टी में भर्ती करने या अजित पवार जैसे नेताओं से तालमेल करने पर उन्होंने सवाल उठाया। उन्होंने यह भी कहा कि आरएसएस भाजपा की फील्ड फोर्स नहीं है। इसके बाद संघ से जुड़े इंद्रेश कुमार ने और तीखा हमला किया। उन्होंने कहा कि अहंकार ने भाजपा को 240 पर रोक दिया। उन्होंने कहा कि राम सबसे साथ न्याय करते हैं, जिस पार्टी ने घमंड किया उसे पूरी ताकत नहीं दी।
सो, अब सवाल है कि संघ की इस लाइन पर पार्टी के अंदर से कब आवाज उठेगी या सीधे तौर पर प्रधानमंत्री मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को कब निशाना बनाया जाएगा? यह भी होगा लेकिन इसके लिए पार्टी के नेता राज्यों के चुनाव का इंतजार कर रहे हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि अगर सीटें कुछ और कम हुई होतीं या सरकार बनाने में सहयोगी पार्टियों की ओर से दबाव होता तो पार्टी के अंदर से आवाज उठती। लेकिन ऐसा नहीं हुआ है इसलिए पार्टी के नेता अगले मौके का इंतजार कर रहे हैं। अगला मौका साल के अंत में होने वाले तीन राज्यों के चुनाव नतीजों से मिल सकता है।
इस साल के अंत में महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं। यह संयोग है कि लोकसभा चुनाव में इन तीनों राज्यों में भाजपा को झटका लगा है। महाराष्ट्र में तो भाजपा का गठबंधन बुरी तरह से हारा है। पिछले चुनाव में 23 सीट जीतने वाली भाजपा नौ सीट पर आ गई है। शिव सेना गठबंधन में पिछली बार एनडीए को 48 में से 41 सीटें मिली हैं, जो इस बार 17 रह गईं। इसी तरह हरियाणा की 10 सीटें भी भाजपा और कांग्रेस में बराबर बराबर बंट गईं। झारखंड में भाजपा आदिवासियों के लिए आरक्षित सभी पांच सीटें हार गई। चुनाव से पहले भाजपा ने छत्तीसगढ़ में आदिवासी मुख्यमंत्री बनाया था और नतीजों के बाद ओडिशा में आदिवासी सीएम बनाया है।
इस बीच झारखंड में बाबूलाल मरांडी के रूप में बड़े आदिवासी नेता को अध्यक्ष बनाया। फिर भी कोई फायदा नहीं हुआ। सो, अगर इन राज्यों में भाजपा हारती है और महाराष्ट्र व हरियाणा में सत्ता गंवाती है तब म्यान में जंग खा रही तमाम तलवारें बाहर निकलेंगी। संघ की ओर से दबाव बढ़ेगा और पार्टी के अंदर से आवाजें उठने लगेंगी। मंत्री स्वायत्त होंगे। अपने हिसाब से फैसले करने शुरू होंगे और पार्टी के अंदर भी आंतरिक लोकतंत्र की बहाली की मांग उठेगी। कुल मिला कर भाजपा फिर से पंचायती पार्टी के स्वरूप में लौट सकती है।