ऐतिहासिक घड़ी में हम सनातनियों का बंटा होना दुर्भाग्यपूर्ण है। राजनीति के साये में राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा है। तभी ज्ञात इतिहास का संभवतः यह पहला मौका है जब इतिहासजन्य ग्रंथि के प्रतीक मंदिर विशेष की प्राण प्रतिष्ठा में भी हम हिंदू छोटे स्वार्थों, छोटी राजनीति और दुरावों में बंटे हुए हैं! जरा याद करें आजादी के बाद नवनिर्मित सोमनाथ मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के समय को। तब हर आस्थावान हिंदू प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम से अपने प्राण जोड़े हुए था। इस बात का अर्थ नहीं है कि पंडित नेहरू की अलग सोच थी। इसलिए क्योंकि मतभिन्नता के बावजूद पंडित नेहरू की मौन सहमति से ही उन्होंने (जैसे नापसंदी के बावजूद बाबरी मस्जिद में रामलला की मूर्ति को रहने दिया) सोमनाथ मंदिर का निर्माण होने दिया। उन्हें राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद का प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम में जाना पसंद नहीं था पर बावजूद इसके उनका जाना रोका नहीं। और नोट रखें इस सत्य को कि राष्ट्रपति ही भारत का राष्ट्र प्रमुख है। राष्ट्रपति (head of state) के नीचे है प्रधानमंत्री का पद। सो, उनकी यजमानी में 11 मई 1951 को सोमनाथ मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा आजाद भारत की अभी तक की अकेली अनहोनी बात है। उस समारोह में डॉ. राजेंद्र प्रसाद के अलावा सरदार पटेल, काका साहेब गाडगिल, मोरारजी देसाई आदि भी थे। समुद्र पर सजी बोट पर रखी 21 तोपों की सलामी के साथ मंदिर के शिखर पर ध्वजारोहण और गर्भगृह में ज्योतिर्लिंग स्थापना हुई थी।
स्वाभाविक जो उस सबका उस समय हर आस्थावान हिंदू सहभागी था। उस पर राजनीति नहीं हुई। कांग्रेस बनाम विपक्ष, नेहरू बनाम पटेल या सेकुलर बनाम हिंदू जैसा कोई नैरेटिव व प्रोपेंगेंडा नहीं था। न सरदार पटेल, कांग्रेस ने लाभ उठाया और न कांग्रेस बनाम जनसंघ-संघ-हिंदू महासभा में परस्पर खुन्नस-दुराव था।
आजादी से पहले का भी एक और बड़ा अनुभव है। मेरा मानना है होल्कर परिवार की महारानी अहिल्या देवी की पुण्यता संभवतः हर आस्थावान सनानती के घर में है। मैंने मेवाड़ के अपने बचपन में बुजुर्गों से महाराणा प्रताप से भी अधिक अहिल्या देवी का नाम सुना। और सचमुच गजब बात है जो सन् 1767 से 1795 के सिर्फ 28 वर्षों के राज में अहिल्या देवी ने हिंदुओं के ध्वस्त-जर्जर धर्मस्थानों का इस तरह पुनर्निर्माण-उद्धार कराया कि हर तरह का हिंदू (मुसलमान भी) उनकी पुण्यता का लोहा मानता हुआ था। औरंगजेब ने 1669 में काशी विश्वनाथ मंदिर को ढहाया। उसके 111 साल बाद अहिल्या देवी ने 1780 में काशी विश्वनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण कराया। उसी के कंगूरे, शिखर पर बाद में महाराजा रंजीत सिंह ने सोने के पत्तर चढ़वाए। अहिल्या देवी ने जर्जर दशा के सोमनाथ परिसर में मंदिर निर्माण कराया तो पुरी के जगन्नाथ मंदिर से ले कर केदारनाथ, रामेश्वर, द्वारका आदि के कई मंदिरों के रख-रखाव में मदद या मंदिर पुनर्निर्माण करवाए।
और इस सबके साथ ऐसे ऐतिहासिक दस्तावेज हैं, जिससे साबित होता है कि अहिल्या देवी का पूरे देश के हिंदू और मुसलमान राजे-रजवाड़ों, क्षत्रप ठिकानों में समान रूप से सम्मान था। बकौल अंग्रेज लेखक जॉन माल्कम (ए मेम्योर ऑफ सेंट्रल इंडिया, 1823) अहिल्या बाई का ‘सभी एक ही तरह से सम्मान करते थे’। मराठा पेशवा तो उनका सम्मान करते ही थे दक्खन के निजाम और टीपू सुल्तान भी उन्हें पेशवाओं जैसा सम्मान देते थे। उनकी लंबी उम्र और समृद्धि के लिए हिंदुओं के साथ मुसलमानों ने भी प्रार्थना की। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में भारतीय इतिहास और संस्कृति के रिटायर प्रोफेसर, इतिहासकार रोजालिंड ओ’हानलोन का लिखा यह वाक्य है कि ‘इसमें कोई संदेह नहीं कि वे काफी पवित्र महिला थीं’।
और आज? …. इस सवाल पर फिलहाल लिखने का मेरा मूड कतई नहीं है!