असलियत है कि सारे मीडिया समूह, सर्वे एजेंसी या सोशल मीडिया के पत्रकार लोकप्रिय धारणा के आधार पर निष्कर्ष निकालते है कि राज्य के मजबूत सामाजिक समूहों की गोलबंदी में क्या है? वे सबसे बड़े सामाजिक समूह की चुप्पी को नहीं पढ़ पाते। पिछले 10 साल में भारतीय समाज में हो रहे बारीक मनोविज्ञान के बदलावों की अनदेखी कर देते है। तभी लोकसभा चुनाव के समय नहीं दिखा कि संविधान और आरक्षण बचाने का नैरेटिव और विपक्ष की सभी पार्टियों का साथ मिल कर लड़ना जमीन पर क्या असर दिखा रहा है। वे नैरेटिव की ताकत नहीं समझ सके और विपक्ष की एकता से हुए बदलाव को भी नहीं भांप सके। तभी गलत साबित हो गए। लेकिन ऐसा लगा कि हरियाणा में वे गलती सुधार लेंगे परंतु वहां भी वही गलती हुई, जो लोकसभा चुनाव के समय हुई थी। हरियाणा में गैर यादव पिछड़ी जाति का मुख्यमंत्री बनाने के जमीनी असर और सबसे मजबूत जाति जाट के खिलाफ सामाजिक गोलबंदी के असर का आकलन करने की बजाय तमाम बौद्धिक लोग 10 साल की एंटी इन्कम्बैंसी, मनोहर लाल खट्टर की विफलता और उनको बदले जाने और किसान, जवान, पहलवान की नाराजगी को पढ़ते रहे। और फिर फेल हो गए।
तभी अब चुप्पी है या संतुलन बनाने के लिए सिर्फ इतना कह रहे हैं कि मुकाबला कांटे का है। यह बहुत दिलचस्प है कि जो लोग खुल कर किसी पार्टी की जीत या हार की भविष्यवाणी करते थे वे भी गलत साबित होने की आशंका में नजदीकी मुकाबले का राग गा रहे हैं। यह सही है कि महाराष्ट्र और झारखंड दोनों जगह नजदीकी मुकाबला है लेकिन वह तो हरियाणा के विधानसभा चुनाव में भी था। लेकिन तब किसी ने नजदीकी मुकाबला नहीं बताया था। ज्यादातर लोग कांग्रेस के जीतने की भविष्यवाणी कर रहे थे। इस बार एकाध न्यूज चैनलों को छोड़ दें, जिन्होंने चुनाव पूर्व सर्वेक्षण किया तो ज्यादातर लोग यही कह रहे हैं कि कोई भी जीत सकता है। एक ही सांस में कहा जा रहा है कि हेमंत सोरेन और उनकी पत्नी कल्पना सोरेन बहुत मेहनत कर रहे हैं और उसी सांस में यह भी कहा जा रहा है कि लेकिन भाजपा भी बहुत मेहनत कर रही है और मजबूती से लड़ रही है। हालांकि 20 नवंबर को एक्जिट पोल के नतीजे आएंगे तब पता चलेगा कि इस बार गलत साबित होने से बचने के लिए सर्वे एजेंसियां और मीडिया समूह क्या रास्ता अख्तियार करते हैं।
बहरहाल, असली समस्या यह है कि कोई भी यह समझने को तैयार नहीं है कि देश की राजनीति अब पहले जैसी नहीं है। अब कुछ भी सामान्य नहीं रह गया है। व्यापक हिंदू समाज अपनी राजनीतिक पसंद में कट्टर होता जा रहा है। पहले वह चुनाव से पहले चाहे जिस तरह की बातें करे और जातियों में चाहे जितना बंटा हुआ दिखे लेकिन मतदान के समय उसकी हिंदू पहचान हावी हो जा रही है। ऐसे मतदाताओं की संख्या मंथर गति से बढ़ रही है, जो अपने सामान्य व्यवहार में उदार, लोकतांत्रिक और सहिष्णु हैं, लेकिन राजनीतिक व्यवहार में कट्टर हो गए हैं।
महंगाई, गरीबी, बेरोजगारी जैसे मुद्दों पर भाजपा की केंद्र व राज्यों की सरकारों की आलोचना करने वाले नागरिक भी, जब मतदान करने जा रहे हैं तो उनकी अस्मिता बदल जा रही है। वे हिंदू अस्मिता ओढ़ ले रहे हैं। पहले यह बात मुस्लिम मतदाताओं के बारे में कही जाती थी। वे चुनाव से पहले चाहे कितनी भी समझदारी की बात करें, लेकिन वोट हमेशा उसी को देते हैं, जो भाजपा से लड़ता या उसे हराता हुआ दिखता है। इसी तरह ऐसे हिंदू मतदाताओं की संख्या बढ़ रही है, जो मुद्दों के आधार पर भले भाजपा की आलोचना करते हैं लेकिन मतदान के समय दुविधा में पड़ जाते हैं और भाजपा के इस नैरेटिव पर विचार करने लगते हैं कि अगर भाजपा को वोट नहीं किया तो देश के और हिंदुओं के दुश्मन मजबूत होंगे।
यह भाजपा के नैरेटिव की ताकत है कि फ्लोटिंग वोटर्स की संख्या लगातार कम होती जा रही है या मतदान के समय तक अनिर्णय की स्थिति में रहने वाला मतदाता उसको वोट दे रहा है। यही कारण है कि अब कहीं भी भाजपा का वोट कम नहीं होता है। वह चुनाव हार भी जाए तब भी उसका वोट बरकरार रहता है या उसमें मंथर गति से बढ़ोतरी होती है।