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युग पुरूष की आगे खाईयां!

नरेंद्र मोदी का अपने को युग पुरूष मानना गलत नहीं है। उनके तमाम भक्त इस संतोष में हैं कि तीन बार लगातार शपथ से जवाहर लाल नेहरू के बराबर नरेंद्र मोदी हो गए हैं। मतलब, अल्टीमेटली नेहरू जितनी शपथ लेना मानो उनका लक्ष्य था। पर सोचें, अब भी कहां नेहरू और कहां मोदी? इस तथ्य के गहरे अर्थ हैं कि भारत के लोगों ने 1962 के लोकसभा चुनाव में 494 लोकसभा सीटों में से जवाहर लाल नेहरू को 361 सीटों पर जिताया था। तीसरी बार शपथ लेने के लिए नेहरू को गठबंधन की जरूरत नहीं थी।

लोगों की नेहरू के प्रति भरपूर सहानुभूति थी। लंबे 15 साल (हां, 1947 से राज में थे) के शासन और चीन से हार के बावजूद पंडित नेहरू का पूरे देश में मान था! क्यों? इसलिए क्योंकि देश और दुनिया दोनों में, विश्व राजधानियों में भी लोगों और नेताओं ने माना था कि चीन ने धोखा दिया है। एक शांतिप्रिय देश और नेता के साथ चीनी कम्युनिस्टों ने विश्वासघात किया। हिंदी-चीनी भाई-भाई के नारे की आड़ में पीठ पीछे छुरा भोंका। नेहरू की गलतियों, धोखा खाने, कृष्ण मेनन पर संसद में हंगामों के बावजूद पंडित नेहरू की भलमनसाहत को ले कर वह कोई भाव नहीं था जो इस चुनाव में या नरेंद्र मोदी की इमेज को लेकर विरोधी वोटों में, विपक्ष में झलका हुआ है या विदेश में माना जाता है। 

बावजूद इसके नरेंद्र मोदी भक्तों के युग पुरूष तो हैं। क्या अगले पांच साल भी बने रहेंगे। कह नहीं सकते। आजाद भारत का अभी तक इतिहास है कि लोग-बाग जब उखड़ना शुरू होते हैं तो फिर विश्वास लौटता नहीं है। जुलाई में बजट आ जाएगा। अगस्त तक संसद में बहस चलेगी और तब तक महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड के चुनाव आ जाएंगे? क्या तीन महीने में मोदी सरकार पेट्रोल-डीजल, रेल, खाने-पीने के सामानों के दाम घटा देगी? क्या अग्निवीर योजना को खत्म कर सेना में नौकरियों की बहार बनाएगी? संभव नहीं जो महंगाई और बेरोजगारी को ले कर मोदी सरकार बजट से अचानक दाम बांधे दे और नौकरियों का सैलाब आ जाए ताकि नौजवानों में मोदी, मोदी का हल्ला लौट आए। उलटे इस बात को नोट करके रखें कि गठबंधन सरकार से ईंधन, स्टील, सीमेंट, परिवहन, बिजली, खान-पान-रिटेल व्यापार की बड़ी आला कंपनियों का कार्टेल ज्यादा मुनाफा कमाएगा। खूब दाम बढ़ेंगे। नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार के बस में इन पर कंट्रोल संभव ही नहीं है। 

उधर महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में विरोधी वोटों का बेस बहुत मजबूत हो गया है। महाराष्ट्र के आम महाराष्ट्रीयन में अब उद्धव ठाकरे हीरो हैं ही साथ में दो गुजराती के खिलाफ घर-घर वह नैरेटिव है, जिससे वहां भाजपा चुनाव में उठ नहीं सकती। ऐसे ही हरियाणा कांग्रेस के साथ आया वोट खिसकना नहीं है। पंजाबी, अतिपिछड़ों, सैनी-गुर्जर-यादव की भाजपा गणित के आगे जाट, दलित, मेव और बेरोजगारी-महंगाई से बिदकी आम नौजवान आबादी के बीच डबल इंजन की सरकार का फॉर्मूला पहले जैसा हिट शायद ही हो। 

ऐसे ही झारखंड का मामला है। ओडिशा में आदिवासी को मुख्यमंत्री बनाने से झारखंड में जेल में बंद हेमंत सोरेन के प्रति आदिवासी, दलित, मुस्लिम सहानुभूति खत्म हो, यह संभव नहीं है। 

सो, साल भर में होने वाले छह चुनाव जम्मू कश्मीर, महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड, दिल्ली और बिहार के विधानसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी पूरी तरह खपे रहने हैं। ऐसे में एक रास्ता अगले बजट सत्र में ही एक देश और एक चुनाव का कानून पास करा कर उस पर अमल कराते हुए 2027 में उत्तर प्रदेश के साथ तमाम चुनाव कराने का है। ताकि ढाई साल बाद चुनाव हो। पर राजनीति अब इतनी आसान नहीं है जो वे जो चाहें वह लोकसभा में पास हो जाए। 

तभी अपना फिर दोहराना है देखते जाएं, आगे कैसा-कैसा फालूदा बनना है।

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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