राज्य-शहर ई पेपर व्यूज़- विचार

मोदी को क्या भक्तों ने भी सुना?

हां, जब अच्छा होता है तो सब अच्छा लगता है। टोपी का तुर्रा भी लोगों में जादू बना देता है। लेकिन ज्योंहि जादू उतरा तो कोई कितना ही डुगडुगी बजाए, न भीड़ जुटती है और न जादूगर की बातें सुनाई देती हैं। इस 15 अगस्त को नरेंद्र मोदी ने रिकार्ड तोड़ लंबा भाषण दिया। लेकिन उसे क्या उनके भक्तों ने भी पूरा सुना होगा? उनके भाषण को कितने लोग सुन रहे थे? यह तुलना, यह डाटा निकाला जाना चाहिए कि 15 अगस्त 2014 बनाम 15 अगस्त 2024 के मोदी भाषण को सुनने वालों का टीआरपी आकंड़ा क्या है? तब उनका भाषण कितना डाउनलोड हुआ था और इस दफा कितना है?

इससे भी अधिक महत्व की बात है कि आज स्वंय मोदी की, उनकी सरकार के जलवे को उतारने वाली जो परेशानियां, जो मुद्दे हैं उन पर नरेंद्र मोदी क्या बोले? उनके भाषण से भक्तों में, भाजपा और संघ के कार्यकर्ताओं में कोई जोश आया? उनका जादू रिइनवेंट या कुछ नया हुआ? उन पर उनके ही लोगों का भरोसा लौटा? कितनी अजब बात है जो बिना सोचे-समझे उन्होंने अपने भक्तों के आगे समान नागरिक संहिता को ‘सेकुलर’ शब्द का चोगा पहनाया! न ही उन्होंने कोई एक बात भी ऐसी नहीं कही, जिससे अगले ही दिन घोषित हुए चुनाव प्रोग्राम के राज्यों में मतदाताओं में कोई तरंग पैदा हो? भाजपा के पांच वोट भी बढ़े!

यदि ईमानदारी से विचार करें तो नरेंद्र मोदी के लिए आज नंबर एक चुनौती जम्मू कश्मीर, हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड में भाजपा को जितवाना है? लोकसभा चुनावों में पंक्चर हुई अपनी राजनीतिक धमक में फिर हवा लौटानी है। दूसरी चुनौती बांग्लादेश में हिंदुओं की ठुकाई पर एक्शन लेने की है। तीसरी चुनौती देश की अर्थव्यवस्था में मंदी की है। फर्जी आंकड़ों के बावजूद मंदी, महंगाई और बेरोजगारी में भारत के करोड़ों लोगों की कमर टूटते हुए है। चौथी चुनौती जातीय राजनीति में मोदी और भाजपा के वोट बैंक का बाजा बजना है। नरेंद्र मोदी और भाजपा की पूरी राजनीति, उसका वोट आधार अब अपने ही बनाए जातीय भंवर में डूबता हुआ है। मामूली बात नहीं जो लाल किले में नरेंद्र मोदी ने कॉमन सिविल कोड को कम्युनल करार दे कर सेकुलर सिविल कोड का जुमला बोला नहीं कि तुरंत दलित वोटों को छूने वाली यह प्रतिक्रिया सुनाई दी कि अच्छा यह तो डॉ. आंबेडकर के बनाए संविधान का अपमान है! सो, सुप्रीम कोर्ट के कोटे के भीतर कोटे का फैसला हो या जातीय जनगणना या योगी आदित्यनाथ की उत्तर प्रदेश में निरंतरता और अपनी सरकार के ओबीसी स्वरूप को उभारने की हर बात अब प्रधानमंत्री मोदी के लिए उलटे नतीजों वाली है। उनके लिए यही प्रमुख चुनौती है कि कैसे उनकी सरकार को वापिस लोग सर्वजनीय हिंदू हितायी माने।

क्या इन मसलों पर नरेंद्र मोदी ने अपने पिटारे से कोई नया जादू निकाला? लाल किले के पूरे भाषण में एक दो नए जुमलों के अलावा था ही क्या? ले दे कर नए जुमले में भी कहना था कि स्वर्णिम कालखंड है मौका जाने नहीं दें। और 2047 में भारत विकसित होगा। गनीमत जो उन्होंने यह नहीं कहा कि भारत के 140 (तब तक शायद 160 करोड़ लोग) लोग तब सोने-चांदी के चम्मच से खाना खाते हुए होंगे। और 100 करोड़ लोगों को पांच किलो राशन और पांच-सौ हजार रुपए की भीख नहीं मिलेगी, बल्कि अडानी-अंबानी की किचन से घर बैठे सवेरे-शाम खाना और भत्ता आया करेगा।

सचमुच नरेंद्र मोदी और उनके भाषण लिखने वाला पीएमओ के या उनके प्राइवेट शब्दकार अब जनता-जनार्दन के लिए भाषण नहीं लिखते हैं, बल्कि अपने आपके लिए, अपने भक्तों के लिए, और मीडिया में हेडिंग बनाने के लिए बासी कढ़ी को बार-बार, बस गरम करते हैं ताकि यह अहसास, ये हेडिंग बनते रहे कि नरेंद्र मोदी ने रिकार्ड तोड़, सबसे लंबा भाषण दिया। हां, लाल किले पर नरेंद्र मोदी के भाषण की नई लोकसभा के पहले सत्र में, राष्ट्रपति अभिभाषण पर उनके लंबे भाषण से तुलना की जा सकती हैं। लोकसभा में उनका यह संतोष था कि वे कितना बोले और वह जो बोले तो वह उनके सत्य की सिद्धि!

बहरहाल, 15 अगस्त का भाषण 16 अगस्त के अगले दिन घोषित विधानसभा चुनावों में तनिक भी याद रखने वाला नहीं है? देश अगले तीन महिनों, लगभग त्योहार के पूरे सीजन वापिस चुनावी सस्पेंस, खरीद फरोख्त, तोड़ फोड़, धर्म और जात की राजनीति, रेवड़ियों की घोषणाओं और मदारी तथा जमुरों के नैरेटिव में डूबा होगा। अपना मानना है कि संसद के सत्र की तू-तू, मैं-मैं और लाल किले पर नरेंद्र मोदी के भाषण से अब मान लेना चाहिए कि जादू ढलान पर है और नरेंद्र मोदी बांग्लादेश के अनुभव के बाद राजनीति, सरकार से ज्यादा अब सिर्फ और सिर्फ अपनी सुरक्षा की चिंता में हैं। भाजपा को हारना हो तो हारे, संघ को डूबना है तो डूबे। बस, वे अपने प्रधानमंत्री निवास में समय सुरक्षित काटते रहें!

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

और पढ़ें