डोनाल्ड ट्रंप ने 2016 से 2020 के पहले कार्यकाल में चीन का बाजा बजाया था। वैश्विक पैमाने पर चीन के खिलाफ जो माहौल बना तो उससे पश्चिमी निवेशक चीन से भागे। पश्चिमी बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने चीन में नई फैक्टरियां लगाना बंद की। वहां से प्लांट दूसरे देश गए। तब भारत और पूरी दुनिया में माना गया था कि चीन की जगह भारत में निवेश होगा! लेकिन क्या और कितना हुआ? एपल फैक्टरी जैसे चंद कारखानों के अलावा कोई भारत नहीं आया। तब इलॉन मस्क ने भी भारत में निवेश, अपनी कारें बेचने का इरादा बनाया था लेकिन मोदी सरकार ने मस्क के लिए लालकालीन बिछाने की बजाय ऐसा रूख अपनाया कि मस्क ने सार्वजनिक तौर पर मोदी सरकार की आलोचना की। और वक्त का कमाल है जो इस अमेरिका यात्रा में नरेंद्र मोदी और भारतीय प्रतिनिधिमंडल उन्हीं इलॉन मस्क को मस्का लगाते हुए थे!
बहरहाल, हकीकत है कि ट्रंप के पहले कार्यकाल की आर्थिक-कारोबारी नीतियों का सर्वाधिक फायदा वियतनाम, थाईलैंड, इंडोनेशिया याकि आसियान देशों ने उठाया। और नोट रखें इस दफा भी वियतनाम व आसियान देशों को ट्रंप की नीतियों से सर्वाधिक लाभ होगा। इन देशों में अमेरिकी, पश्चिमी देशों की कंपनियां इसलिए कारखाने लगातार लगाते हुए हैं क्योंकि मजदूरी सस्ती है, टैक्स कम है और नौकरशाही, लालफीताशाही, रिश्वतखोरी की बाधाएं लगभग जीरो हैं।
सोचें, वॉशिंगटन में इलॉन मस्क से मुलाकात के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर पोस्ट करके क्या कहा? “न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन’ (Minimum Government, Maximum Governance) के जुमले से तारीफ की। पर 2014 में ऐसी ही बातों से नरेंद्र मोदी ने भारत में भी लोगों में उम्मीदे पैदा की थी। उनकी सरकार बनी। मगर भारत में एक भी वह साहसी काम नहीं हुआ जो ट्रंप ने पहले कार्यकाल के सौ दिनों में या इस कार्यकाल के सौ दिनों में करते लग रहे हैं। उन्होंने कुछ ही सप्ताह में हजारों, लाखों सरकारी कर्मचारियों की छुट्टी की है। अमेरिका की वैश्विक संस्थाओं पर ताला लगवाया है। इलॉन मस्क पूरी नौकरशाही को खंगालते हुए लायक बनाम नालायक अफसरों में छंटनी कर रहे हैं। नौकरियों-नियुक्तियों में आरक्षण के सभी पैमाने खत्म कर डाले हैं।
इसलिए क्योंकि उन्हें अपने सपनों का ‘अमेरिका फर्स्ट’ बनाना है। ट्रंप को यह चिंता नहीं है कि उन्हें जीवन भर सत्ता में बैठे रहने की लोक लुभावन राजनीति करनी है। लोगों को मुफ्तखोर, नाकारा बना कर अनंत काल के लिए सत्ता में बैठे रहना है। डोनाल्ड ट्रंप का पहला और दूसरा कार्यकाल समान फुर्ती वाला है। हर रोज आदेश निकालो, पंगा लो और चैन की नींद निकालो। ट्रंप तब भी एक्जिक्यूटिव ऑर्डर जारी करते थे और इस बार दिन में पचास-पचास आदेश जारी करते हैं। वे अपनी मर्जी थोप रहे हैं। बावजूद इसके देश और दुनिया दोनों उनके रूतबे को मानते हैं क्योंकि सबका सरोकार अमेरिका और उसके राष्ट्रपति से है। डोनाल्ड ट्रंप और बाइडेन, रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक पार्टी में काम का यह अंदाज स्थायी है कि विचार, विचारधारा और व्यक्तित्व के अनुसार निर्णय अवश्य होगा। दो टूक होगा। फिर भले आगे के चुनाव में नतीजा कुछ भी हो। तभी एक अकेला राष्ट्रपति, हर संस्था वहां निर्णय में चूकती नहीं है।
जबकि भारत में क्या है? पिछले दस वर्षों के मोदी राज में क्या है? निर्णय नहीं बातें, बातें और सिर्फ बातें! और संभवतया यही हम भारतीयों की तासीर व नियति है!