अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप चार साल राष्ट्रपति रहे और चुनाव हार गए। चार साल विपक्ष में रहे तो उन्होंने क्या किया? पुराने ही मुद्दों की राजनीति। अपने विचार में डटे रहे। उन्होंने जिन समस्याओं को अपने कार्यकाल के दौरान पहचाना था और दूर नहीं कर पाए थे उनको दूर करने के संकल्प पर ही उनकी विपक्षी राजनीति थी। क्या वह भारत में संभव है? नहीं है क्योंकि जो सरकार में आता है वह आते ही कहना शुरू कर देता है कि उसने एक साल में इतना काम कर दिया, जितना सौ साल में नहीं हुआ था! जब नेता यह मानने लगेंगे कि उन्होंने सारे काम कर दिए तो फिर वे अपनी गलती, कमी या समस्या को मान ही नहीं सकते। जैसे हाल में अमित शाह ने कहा है कि पहले 10 साल के मोदी राज में सारी ‘वैचारिक समस्याओं’ का समाधान हो गया!
क्या कांग्रेसी मानेंगे कि 1971 में इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ’ के जिस मुद्दे पर चुनाव लड़ा था उसमें कामयाबी नहीं मिली? क्या कांग्रेस मानेगी कि इंदिरा गांधी ने बांग्लादेशी घुसपैठ के मुद्दे पर बांग्लादेश युद्ध में हिस्सा लिया था लेकिन नया देश बन जाने के बाद भी घुसपैठ नहीं थमा? क्या देश की कोई समाजवादी पार्टी या कम्युनिस्ट पार्टी स्वीकार करेगी कि उनका समाजवाद या साम्यवाद लाने का प्रयास बेहूदा और फेल था? जब विपक्ष अपनी ही छोड़ी समस्याओं को मानेगा नहीं, उन्हें करने का रोडमैप जनता के सामने रखेगा नहीं तो कैसे प्रभावी रूप से चुनाव लड़ सकेगा?
ट्रंप ने चार साल सत्ता में रहने के बाद भी अपनी नाकामी मानी कि वे अमेरिका को फिर से महान नहीं बना सके। उन्होंने माना कि वे घुसपैठ नहीं रोक सके। उन्होंने माना कि अवैध प्रवासियों को नहीं निकाल सके। लेकिन फिर से मौका मिलेगा तो ये सारे काम करेंगे। तभी अमेरिका के लोगों ने उनको फिर से चुना और सत्ता में आते ही उन्होंने अपने तमाम चुनावी वादों को पूरा करने का काम शुरू किए। चंद दिनों में अनगिनत फैसले ले लिए। इनमें से कुछ को अदालत में चुनौती दी गई है तो कुछ के लिए विधायी प्रावधानों की जरुरत पड़ेगी और हो सकता है कि उनको संसद में समस्या आए। लेकिन अपनी तह तो निर्णय ले लिए।
वे अपने वादे के पक्के निकले, चाहे इसके लिए उनको कितनी ही आलोचना झेलनी पड़े। नरेंद्र मोदी 10 साल की सत्ता विरोधी लहर के बावजूद 2024 में हार कर सत्ता से बाहर नहीं हुए तो कहीं न कहीं लोगों का यह यकीन काम करता हुआ है कि उन्होंने अनुच्छेद 370 हटाया है, अयोध्या में राममंदिर बना है तो वे उसे एजेंडे के ही भरोसेमंद हैं, जो हिंदुओं की चिंताओं का है।
क्या भारत का मौजूदा विपक्ष ऐसा कुछ कर सकता है? क्या विपक्ष के पास लालकृष्ण आडवाणी या डोनाल्ड ट्रंप की तरह कोई ऐसी रणनीति है, जिससे लोगों को अपने पीछे एकजुट बनाने की राजनीति हो सके? कांग्रेस अपने मूल आइडिया में ही रहे, उसमें अपनी कमियां, गलतियां, भूल माने तब भी बतौर विकल्प लोगों में विचार तो होगा। लेकिन इसके लिए साहस, बेबाकी, दो टूक वही रवैया चाहिए जो ट्रंप व अमेरिका की दोनों पार्टियों की होती है। भारत की मुश्किल है कि पार्टी सत्ता में रहते हुए गरीबी दूर हुई मान लेती है, अमृत काल आ गया मानती है। तभी विपक्ष में रहते हुए अपनी कमी, बकाया कामों का नए संकल्प, नई दृष्टि नहीं होती।
सोचें, आज भारत में विपक्ष, राहुल गांधी क्या करते हुए हैं? विपक्ष की मानें तो सबसे बड़ा संकट ‘संविधान खतरे में’ का है! सबसे बड़ी जरुरत है ‘जाति गणना’ की! सबसे बड़ा नीतिगत फैसला ‘आरक्षण बढ़ाने’ का है। जबकि जनता की समग्र चिंताए अलग हैं। उसे कानून व्यवस्था का डर है। हिंदुओं को मुसलमानों की चिंता है और मुसलमानों को हिंदू राजनीति की। बांग्लादेशियों और रोहिंग्या घुसपैठियों की चिंता है। गरीबी और बेरोजगारी का बड़ा सवाल है। घनघोर अशिक्षा, बुनियादी स्वास्थ्य सेवा की चिंता है। सीमा सुरक्षा का सवाल है। लेकिन राहुल गांधी, कन्हैया एंड पार्टी की क्या चिंता है? केंद्र सरकार के सचिवों में ओबीसी, दलित कम हैं। उनमें भी आरक्षण हो। प्राइवेट क्षेत्र में भी आरक्षण हो! जाहिर है अखिल भारतीय पैमाने के अखिल एजेंडे की जगह टुकड़ों टुकड़ों की राजनीति। जबकि राहुल गांधी, कांग्रेस के आगे भी ब्रिटेन के टोनी ब्लेयर और डोनाल्ड ट्रंप दोनों के मॉडल है? समग्र समाज को कैसे बनाया जाए, इसके मॉडल की कमी नहीं है। लेकिन दृष्टि और साहस कहां से आए?