दक्षिण एसिया का सबसे बड़ा, इलाके का दादा, कथित महाशक्ति देश भारत ठिक 15 अगस्त 1924 से पहले अपनी गली (दक्षिण एसिया) का अछूत नंबर एक देश है। इस क्षेत्र में भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, अफगानिस्तान, नेपाल, मालदीव, भूटान आठ देश है। और अंतरराष्ट्रीय सुर्खियों, पड़ौसी देशों के अखबारों, संपादकीयों को बारिकि से पढ़े तो सब यह सोच प्रसन्न है कि मोदी (भारत) की पिठ्ठू शेख हसीना सरकार का पतन हुआ। न किसी सरकार में शेख हसीना के लिए सहानुभूति और न इस सत्य को बताने में किसी को यह संकोच कि भारत को धक्का लगा। इसलिए 15 अगस्त 2024 का लालकिले पर प्रधानमंत्री का भाषण कुछ वैसी ही हकीकत लिए हुए होगा जैसे 15 अगस्त 1963 में भारत और उसके प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की चीन से हारने के बाद की मनोदशा में था। 1962 में भारत फिजकली हारा था। 2024 में भारत बतौर महाशक्ति सामरिक- कूटनैतिक-मनोवैज्ञानिक सदमे में है।
कैसे? इसलिए क्योंकि शेख हसीना और बांग्लादेश क्षेत्र में अकेले थे जहां भारत के कारण चीन की दाल नहीं गली। निवेश, व्यापार, सामरिक सहयोग से भारत-बांग्लादेश के साझे का एक सम्मान बना था। विश्व राजनीति में अमेरिका हो या चीन सब मानते थे कि भारत के कहने में शेख हसीना है। और ऐसा बांग्लादेश के निर्माण में भारत के योगदान, शेख मुजीबुर्रहमान और उनकी बेटी शेख हसीना के निजी संबंधों से लेकर बांग्लादेश में लोकतंत्र की कोशिशों में 1996 तथा 2009-2014 तक, शेख हसीना के दूसरे कार्यकाल के वक्त मनमोहनसिंह की सरकार के समर्थन की लंबी बेकग्राउंड से था। तथ्य है 2012 में बांग्लादेश की सेना के कुछ अधिकारियों ने शेख हसीना का तख्ता पलटने की साजिश रची तो समय रहते उसे कुचला गया। भारत की खुफिया एजेंसियों के आगाह करने की तब चर्चा थी। जाहिर है वह मनमोहन सरकार के समय में एजेंसियों की चुस्ती से था।
लेकिन फिर भारत में नरेंद्र मोदी और अजित डोवाल का शासन आया। अपना मानना है कि संभवतया शेख हसीना की बढ़ती अंहकारी, निरंकुश, क्रोनी पूंजीवादी प्रवृति तथा नरेंद्र मोदी (छप्पन इंची छाती) और भारत के पूंजीपतियों (खासकर अदानी) की दमदारी, विकास और कमाई के फार्मूलों से दोस्ती में दोतरफा उछाल बना। हसीना सरकार और मोदी सरकार एक-दूसरे के हो गए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिना आगा-पीछा सोचे शेख हसीना के साथ फोटोशूट कराए। जाहिर है पीएमओ, अजित डोवाल और रॉ जैसी एजेंसियों ने नहीं सोचा कि मोदी यदि भारत में मुसलमानों को सुलगाने की राजनीति कर रहे है तो उन्हे इस्लामी बांग्लादेश के कट्टरपंथी, हसीना विरोधी, लोकतंत्रवादी उदारवादी किस नजर से देंखेगे? जनता में भारत की गुडविल बनेगी या मोदी के कारण हसीना का ग्राफ गिरेगा। और यदि उसके नतीजे भुगतने का समय आया तो बांग्लादेश में रहने वाले हिंदुओं का जीना कैसा दूभर होगा?
पर अदूरदर्शिता की हद जो अदानी ने बांग्लादेश को कमाई का मौका माना। 2015 में मोदी की पहली ढ़ाका यात्रा में अदानी का बिजली बेचने का सौदा पटा। सोचे, झारखंड में अडानी का 1496 मैगावाट का पॉवर कारखाना बनाना और उसकी शत-प्रतिशत बिजली को सीधे बांग्लादेश में उस रेट पर बेचना जिससे वहा जनता में, विपक्ष में हल्ला बना। अडानी के इस गोड्डा पावर प्रोजेक्ट को ले कर वैश्विक आलोचना है कि यह बांग्लादेश के लिए बहुत महंगा, बहुत जोखिम भरा है। यह अडानी को लाभ पहुंचाने के लिए डिज़ाइन, और ऑस्ट्रेलिया में अडानी एंटरप्राइजेज की कारमाइकल कोयला परियोजना को आगे बढ़ाने के मकसद से है। मतलब कई तरह के विवाद। लबोलुआब शेख और मोदी दोनों की क्रोनी पूंजीवाद की समानता में अदानी बांग्लादेश में तेल से ले कर बिजली बेचने का धंधा बनाए बैठे है। ऐसी छोटी-बड़ी बातों से बांग्लादेशी नौजवानों में वह बवाल बना कि हसीना पर बिजली कडकी और वे दिल्ली भागी।
इन्ही बातों से बांग्लादेश में अब भारत विरोध है। वह भारत विरोधी चीन, पाकिस्तान व उन पश्चिमी देशों के साथ अब रहेगा जो भारत विरोधी है या मोदी सरकार के कारण भारत को नापसंद करते है। भारत आउट और चीन इन। पाकिस्तान उसका पैरोकार होगा। नेपाल के भारत विरोधी प्रधानमंत्री ढाका और बीजिंग का त्रिगुट बनाएंगे। तो श्रीलंका और मालदीव के पहले से ही चीन से सामरिक रिश्ते है। बचा भूटान जो हाल के सालों में सीमा मामलों में चीन से सीधे बात कर रहा है। तब मोदी, डोवाल और जयशंकर क्या अफगानिस्ता के तालिबानियों को पटाएंगे! असंभव। सोचे, भारत की विदेश नीति का ऐसा बाजा पहले कब बजा?