भारत के प्रादेशिक क्षत्रपों की कई श्रेणियां हैं। एक श्रेणी उन क्षत्रपों की है, जो कांग्रेस के साथ गठबंधन में होते हैं और भाजपा से लड़ते हैं। दूसरी श्रेणी उन क्षत्रपों की है, जो भाजपा के साथ रहते हैं और कांग्रेस गठबंधन से लड़ते हैं। एक तीसरी श्रेणी उन क्षत्रपों की है, जो प्रत्यक्ष रूप से किसी के साथ नहीं होते हैं। ऐसे क्षत्रपों में वाईएसआर कांग्रेस के नेता जगन मोहन रेड्डी, बीजू जनता दल के नवीन पटनायक और बीआरएस के चंद्रशेखर राव आदि का नाम लिया जा सकता है। हालांकि जगन मोहन रेड्डी और नवीन पटनायक पिछले 10 साल भाजपा की केंद्र सरकार को मुद्दा आधारित समर्थन देते रहे थे। लेकिन समय आया तो भाजपा ने आंध्र प्रदेश में टीडीपी से तालमेल करके जगन की पार्टी को लगभग मटियामेट कर दिया। वही ओडिशा में अनेक किस्म के निजी हमले करके नवीन पटनायक की 24 साल की सत्ता भी छीन ली।
इस बार लोकसभा चुनाव में नवीन पटनायक की पार्टी का एक भी सांसद नहीं जीत सका और विधानसभा में भी 147 के सदन में उनकी पार्टी 51 सीट ही जीत पाई। सो, वे सत्ता से बाहर हो गए हैं और ऐसा लग रहा था कि 78 साल के नवीन पटनायक अब राजनीति से भी बाहर हो जाएंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ है। वे दूसरे किसी भी हारे हुए क्षत्रप के मुकाबले ज्यादा सक्रिय हैं और विपक्ष के तौर पर ज्यादा बेहतर काम कर रहे हैं। यह स्थिति तब है, जबकि उनको विपक्ष में रहने का कोई खास अनुभव नहीं है। राजनीति में सक्रिय होने के बाद से वे लगातार सत्ता में ही रहे हैं। पहले वे अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में मंत्री रहे और फिर 24 साल ओडिशा के मुख्यमंत्री रहे। इस बार वे दो जगह से चुनाव लड़े थे, जिसमें से एक जगह हार गए। हारने के बाद जब वे पहली बार विधानसभा पहुंचे तो उनको हराने वाले विधायक से मिले और उसे बधाई दी। वे नेता प्रतिपक्ष बने और सदन के अंदर व बाहर प्रभावी विपक्ष की भूमिका निभा रहे हैं।
नवीन पटनायक की पार्टी ने नतीजे आने के तुरंत बाद हार का बहाना खोजने या ईवीएम पर ठीकरा फोड़ने का काम नहीं किया। पहले छह महीने तक पार्टी ने हर सीट पर बूथवार डाटा इकट्ठा किया और उसकी गड़बड़ियों के आधार पर चुनाव आयोग से शिकायत की। इसके बाद नवीन पटनायक ने एक बड़ी रैली करके विपक्ष की ताकत दिखाई। उन्होंने महंगाई और जनता की दूसरी समस्याओं को लेकर सरकार के खिलाफ प्रदर्शन किया, जिसका नेतृत्व उन्होंने खुद किया। गौरतलब है कि चुनाव प्रचार में भाजपा ने इसका बड़ा मुद्दा बनाया था कि उनकी सेहत ठीक नहीं है। बरसों तक उनके प्रधान सचिव रहे आईएएस अधिकारी वीके पांडियन को उनका उत्तराधिकारी बताया जा रहा था। पांडियन तमिलनाडु के हैं। इस आधार पर भाजपा ने ओडिशा की अस्मिता का मुद्दा बनाया था। लेकिन अब पांडियन परदे के पीछे हैं और स्वास्थ्य की तमाम अटकलों को गलत साबित करते हुए नवीन पटनायक सक्रिय राजनीति कर रहे हैं। चुनाव नतीजों के तुरंत बाद उनको लेकर ऐसा सद्भाव दिखा कि हर जगह यह चर्चा होती है कि आज चुनाव हो जाए तो ओडिशा के लोग फिर उनको चुनाव जिता देंगे। बहरहाल, विपक्ष के क्षत्रपों में अभी सबसे अच्छा काम नवीन पटनायक ही कर रहे हैं। उनके साथ ही चुनाव हारे उद्धव ठाकरे हों या शरद पवार सब पस्त पड़े हैं।