भाजपा को ले कर मीडिया और सोशल मीडिया में जो सन्नाटा था वह टूटता दिख रहा है। इसलिए क्योंकि सरकार के गठन और मंत्रालयों के बंटवारे में ऐसा दिख रहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दबाव में नहीं आए हैं। उन्होंने सरकार का समर्थन करने वाली बड़ी पार्टियों को भी उनकी संख्या के हिसाब से मंत्री पद नहीं दिए। कई सहयोगी पार्टियों को तो सरकार में भी शामिल नहीं किया। साथ ही मंत्रालयों का बंटवारा भी अपने हिसाब से किया। सारे अहम मंत्रालय भाजपा के नेताओं के पास रहे, जबकि सहयोगी पार्टियों के नेताओं को कम महत्व और कम बजट वाले मंत्रालय दिए गए। सो सरकार नरेंद्र मोदी के हिसाब से ही चलेगी, ऐसी धारणा बन गई है। सबको दिख रहा है कि मोदी के कामकाज की निरंतरता बनी रहेगी क्योंकि उन्होंने वित्त, गृह, रक्षा, विदेश सहित रेलवे, वाणिज्य, उद्योग, शिक्षा, पेट्रोलियम जैसे तमाम अहम मंत्रालयों में फिर से पुराने मंत्रियों को ही रखा है।
लेकिन क्या सचमुच यह वास्तविक तस्वीर है और चंद्रबाबू नायडू या नीतीश कुमार ने पूरी तरह से समझौता कर लिया है? उन्होंने मान लिया है कि मोदीजी जो देंगे वह लेकर ही उनको गठबंधन में रहना है या उन्होंने जान बूझकर मंत्री पद या मंत्रालय पर ज्यादा जोर नहीं दिया है और उनकी प्राथमिकता कुछ और है? अगर नीतीश और नायडू ने पहले दिन विघ्न नहीं डाला है और सरकार के गठन में मोदी के फैसले को स्वीकार किया है तो इसका यह मतलब नहीं है कि यह स्थिति हमेशा बनी रहेगी। दूसरे, सरकार का समर्थन दे रहे एक या दो सांसद वाली कुछ पार्टियों के मंत्री नहीं बने हैं तो इसका यह मतलब नहीं है कि उनको दबा दिया गया है या किसी डर से वे चुप हो गए हैं। मंत्री पद नहीं लेने के पीछे उनकी अपनी राजनीति है। इसमें पार्टी की अंदरूनी राजनीति भी है और राज्य की राजनीतिक जरुरत भी है।
बहरहाल, नीतीश कुमार ने एनडीए की बैठक में नरेंद्र मोदी की खूब तारीफ की, उनको बिना शर्त समर्थन दिया और भाषण के बाद जाकर प्रधानमंत्री मोदी के सामने पैर छुने के लिए झुक गए। इसके बाद 12 सांसद होने के बावजूद उनको सिर्फ एक कैबिनेट और एक राज्यमंत्री का पद मिला और उसमें भी उनके कैबिनेट मंत्री को मछली पालन, पशुपालन और डेयरी जैसा विभाग मिला फिर भी वे चुप रहे और राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह सहर्ष मंत्रालय में कामकाज संभाला। अब इसके बाद जनता दल यू की ओर से दबाव की राजनीति शुरू होगी। नीतीश कुमार का पहला दबाव बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की है। अगर मोदी विशेष राज्य का दर्जा नहीं दे सकते हैं तो बहुत बड़े आर्थिक पैकेज की मांग होगी।
नीतीश का दूसरा दबाव जाति गणना कराने की है। ध्यान रहे जल्दी ही केंद्र सरकार जनगणना शुरू कराएगी। उसमें नीतीश सामाजिक व आर्थिक आंकड़े जुटाने की बात करेंगे। तीसरा दबाव, बिहार में जल्दी चुनाव कराने और नीतीश के नेतृत्व में ही चुनाव कराने का होगा। ध्यान रहे नीतीश इस बात से बहुत आहत हैं कि पिछली बार भाजपा के परोक्ष समर्थन से चिराग पासवान ने उनके उम्मीदवारों के खिलाफ अपने प्रत्याशी उतारे, जिसकी वजह से वे सिर्फ 43 सीट जीत सके और तीसरे नंबर की पार्टी बन गए। वे जल्दी से जल्दी इस स्थिति में बदलाव चाहते हैं। राज्य में अगले साल के नवंबर में चुनाव हैं लेकिन नीतीश की पार्टी जल्दी चुनाव चाहती है। नीतीश की पार्टी का चौथा दबाव, बिहार विधानसभा में ज्यादा सीटें हासिल करने का होगा।
इसके अलावा नीतिगत मसलों पर नीतीश कुमार की पार्टी चुप नहीं बैठेगी। तभी जैसे ही केंद्रीय कानून मंत्री अर्जुनराम मेघवाल ने अपने मंत्रालय में कामकाज संभाला और कहा कि समान नागरिक संहिता का मुद्दा सरकार के एजेंडे में है और वह इसे लागू करने की पहल करेगी वैसे ही जनता दल यू के महासचिव केसी त्यागी ने कहा कि समान नागरिक संहिता पर सभी दलों की सहमति से ही आगे बढ़ना होगा। इससे पहले वे सेना में बहाली की अग्विनीर योजना का मुद्दा उठा चुके हैं। सो, इस तरह के जितने भी विवादित नीतिगत मुद्दे हैं उन पर सरकार को जवाबदेह बनाने के लिए नीतीश का दबाव होगा।
ऐसे ही चंद्रबाबू नायडू ने भी 16 लोकसभा सदस्य होने के बावजूद एक कैबिनेट और एक राज्यमंत्री का पद स्वीकार कर लिया तो उसके पीछे भी उनकी अपनी राजनीति है। उनको इससे मतलब नहीं है कि उनके कितने लोग दिल्ली में मंत्री हैं या उनके पास क्या विभाग हैं। उनका फोकस राज्य के लिए विशेष वित्तीय पैकेज हासिल करने पर है। नीतीश की तरह वे भी अपने राज्य को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग करेंगे और नहीं मिलने पर विशेष वित्तीय पैकेज लेकर समझौता करेंगे। उनको अमरावती में नई राजधानी बनाने के लिए विशेष फंड की जरुरत है और पोलावरम बांध की परियोजना भी उनको पूरी करानी है। इसके अलावा उनको जगन मोहन की नकेल भी कसनी हैं। गौरतलब है कि केंद्रीय एजेंसियों की कई जांच जगन के खिलाफ लंबित है, जिसमें वे जेल भी काट चुके हैं। चुनाव से कुछ समय पहले ही जगन मोहन की सरकार ने चंद्रबाबू नायडू को जेल में डाला था। उनको इसका भी बदला लेना है। सो, केंद्र के ऊपर उनका दबाव दूसरे किस्म का होगा और उनकी वह बात प्रधानमंत्री को माननी होगी। कह सकते हैं कि दबाव की राजनीति तो अब शुरू होगी।