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नीतिगत मामलों पर अड़ेंगे नीतीश

केंद्र में नरेंद्र मोदी गठबंधन की सरकार बना लेंगे लेकिन बड़ा सवाल है कि उसे संभालेंगे कैसे? उनके रास्ते में सबसे बड़ी बाधा नीतीश कुमार बन सकते हैं। नीतीश के साथ उनके संबंध बड़े उतार चढ़ाव वाले रहे हैं। 2013 में मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनाए जाने के बाद नीतीश एकमात्र नेता थे, जिन्होंने एनडीए छोड़ी थी। वे 2014 के चुनाव में अकेले लड़े थे और सिर्फ दो सीट पर सिमट गए थे।

हालांकि बाद में वे एनडीए में लौटे, फिर दोबारा एनडीए छोड़ कर गए और फिर लौट कर भी आए। इस बार के लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार की वजह से बिहार में एनडीए बचा है। अगर नीतीश एनडीए में नहीं होते तो बिहार में भाजपा का सफाया हो सकता था। चुनाव में तो नीतीश ने फायदा पहुंचाया ही लेकिन अब केंद्र की सरकार भी उनके समर्थन पर टिकी है। उनको संभालना मोदी और उनके तमाम प्रबंधकों के लिए आसान नहीं होने वाला है।

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नीतीश को संभालना इसलिए मुश्किल होगा क्योंकि वे दो चार मंत्री पद या अच्छा मंत्रालय लेकर शांत हो जाने वाले नहीं हैं। उनके साथ कुछ शर्तें जुड़ी हुई हैं। एक शर्त बिहार की राजनीति की है तो दूसरी शर्त नीतिगत है। वे समाजवादी राजनीति से बड़ी गहराई तक जुड़े हैं और बाकी प्रादेशिक पार्टियों के नेताओं से अलग उन्होंने न तो भाई भतीजावाद किया है और न किसी भ्रष्टाचार में उनका नाम आया है। तभी वे बाकी प्रादेशिक पार्टियों के नेताओं से अलग हैं। उन्होंने केंद्र में गठबंधन की सरकार बनाने के लिए समर्थन तो दे दिया है लेकिन उनकी पार्टी की ओर से नीतिगत मुद्दों पर अपना स्टैंड भी साफ कर दिया गया है।

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नीतीश कुमार की सबसे बड़ी मांग पूरे देश में जाति गणना कराने और आरक्षण की सीमा बढ़ाने की होगी। यह भाजपा के गले की हड्डी बनेगी। बिहार में भाजपा ने जाति गणना के मुद्दे पर जनता दल यू का साथ दिया था। वहां जाति गणना हो चुकी है और इस बार के चुनाव पर उसका बड़ा असर दिखा है। जातियों ने अपनी ताकत दिखाई है और वे किसी एक पार्टी के खूंटे से नहीं बंधे। बिहार में नीतीश की तत्कालीन सरकार ने जाति गणना के बाद आरक्षण की सीमा बढ़ा दी। राज्यपाल ने भी इसको मंजूरी दे दी लेकिन मामला कानूनी दांवपेंच में अटका है।

अब नीतीश कुमार इस बात के लिए दबाव डालेंगे कि पूरे देश में जाति गणना कराई जाए और आरक्षण की सीमा बढ़ाई जाए। बिहार की राजनीति के लिए यह बहुत जरूरी है क्योंकि वहां राजद, कांग्रेस और लेफ्ट ने पिछड़ी, अत्यंत पिछड़ी और दलित जातियों में अच्छी पैठ बना ली है। संविधान और आरक्षण के मामले से उनको फायदा मिला है। उनका जवाब देने के लिए नीतीश की मजबूरी है कि वे जाति गणना और आरक्षण के मुद्दे को बनाए रखें।

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जदयू के महासचिव केसी त्यागी ने कहा कि सेना में भर्ती की अग्निवीर योजना का बड़ा विरोध हुआ था इसलिए इस योजना पर फिर से विचार किया जाना चाहिए। यह बड़ा नीतिगत मामला है। हालांकि बाद में त्यागी ने कहा कि उनकी बातों को संदर्भ से हटा कर पेश किया गया। उन्होंने वही बात कही, जो रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और दूसरे लोग पहले कहते रहे हैं कि इस योजना पर समय समय पर विचार किया जाएगा। इसी तरह से जनता दल यू ने समान नागरिक संहिता पर भी अपनी राय स्पष्ट कर दिया है। पार्टी ने कहा है कि सबकी राय लेकर ही इस योजना पर अमल होना चाहिए। यानी भाजपा ने जैसे उत्तराखंड में इस कानून को लागू कर दिया उसी तरह एकतरफा तरीके से इसे पूरे देश में नहीं लागू किया जा सकता है।

नीतीश कुमार बिहार के लिए विशेष राज्य के दर्जे की मांग मनवाने की कोशिश करेंगे। ध्यान रहे केंद्र सरकार इस आधार पर विशेष राज्य के दावे को खारिज करती रही है कि बिहार कई मानक पूरे नहीं करता है। लेकिन असली समस्या यह है कि बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिया गया तो आंध्र प्रदेश की मांग भी है और तेलंगाना की भी है। आंध्र प्रदेश का विभाजन 2014 में हुआ था और तभी से इसकी मांग की जा रही है। सो, बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने से पंडोरा बॉक्स खुलेगा और कई राज्य ऐसी मांग करने लगेंगे। सो, विशेष पैकेज का रास्ता निकाला जा सकता है लेकिन नीतीश के लिए मुश्किल यह होगी कि त्रिशंकु लोकसभा में भी सरकार को समर्थन देकर अगर बिहार को विशेष राज्य का दर्जा नहीं दिला पाते हैं तो तेजस्वी और कांग्रेस को उन पर हमला करने का मौका मिलेगा।

इन नीतिगत मसलों के अलावा नीतीश के साथ बिहार की राजनीति का पेंच भी है। बिहार में उनकी सरकार भाजपा के समर्थन पर टिकी है। बिहार विधानसभा की गणित के हिसाब से उनको यह एडवांटेज है कि वे राजद और कांग्रेस के साथ भी जाकर सरकार बना सकते हैं। तभी बिहार की राजनीति में नीतीश अब अपना पूरा नियंत्रण चाहेंगे। अभी तक भाजपा के नेता कहते रहते थे कि नीतीश तीसरे नंबर की पार्टी हैं फिर भी भाजपा ने उनको मुख्यमंत्री बनाया है। अब वे ऐसा कुछ नहीं कहेंगे।

दूसरी बात यह है कि नीतीश चाहते हैं कि बिहार में जल्दी चुनाव हो। भाजपा इसके लिए तैयार नहीं है क्योंकि मौजूदा विधानसभा में वह सबसे बड़ी पार्टी है। पहली बार ऐसा हुआ है कि बिहार विधानसभा में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनी है। अगर लोकसभा चुनाव में भाजपा की हार नहीं हुई होती है और नीतीश के समर्थन पर निर्भर नहीं होती तो उसकी योजना इसी विधानसभा में अपनी सरकार बनाने की थी। तभी नीतीश को हटाने का संकल्प करके पगड़ी बांधने वाले प्रदेश अध्यक्ष सम्राट चौधरी ने अभी तक पगड़ी नहीं खोली है। लेकिन अब भाजपा का खेल बिगड़ गया। बिहार की सत्ता तो नीतीश के हाथ में है ही केंद्र की सत्ता की चाबी भी उनके हाथ में आ गई है। सो, बिहार में भाजपा को सारे राजनीतिक फैसले नीतीश के हिसाब से करने होंगे।

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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