प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तीसरी शपथ को बीस दिन हो गए है। केबिनेट, संसद की बैठक, स्पीकर चुनाव और राष्ट्रपति का अभिभाषण सब हो गया है। तो सोचे, क्या आपको कोई एक भी क्षण, एक भी घटना, एक भी चेहरा, एक भी जुमला और एक भी ऐसा परिवर्तन दिखलाई दिया जिससे लगा मानों ताजा हवा का झौका हो। क्या केबिनेट में कुछ नया, ताजा दिखा? क्या प्रधानमंत्री दफ्तर, सरकार की आला नौकरशाही में कोई परिवर्तन झलका? ऐसी कोई नई प्राथमिकता, नया मुद्दा, नया विषय प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति के मुंह से निकला जिससे लगे कि जिन बातों (रोजगार, महंगाई, बेहाल जिंदगी, नौजवान आबादी, किसान, मजदूर, मध्यवर्ग आदि) पर मतदाताओं ने मोदी के चार सौ पार के नारे को नकारा, तो उससे सबक सीख कर जिंदगी के रियल मसलों पर मोदी 3:0में नया कुछ बनने की संभावना है?
इस बात को इस तरह भी रख सकते है कि मतदाताओं ने नरेंद्र मोदी को बदलने का मैसेज दिया, विपक्ष में दम भरा तो शासन और राजनीति में आम रायसे, सबसे सलाह करके, सबसे पूछ कर निर्णय का नया सिलसिला बनना चाहिए था या नहीं? उस नाते क्या नरेंद्र मोदी को अपने को रिइंवेंट नहीं करना था? भाषण कम करके, विपक्ष से पंगा कम ले और सर्वानुमति बना कर राज करने का नया अंदाज। मैं, मैं भगवान, मैं महान की बजाय हम, एनडीए, भाजपा और पक्ष-विपक्ष सब एक ही देश के अंशधारी है, यह सोचते हुए सबका साझा,सबका साथ, और सबके विकास की जुमलेबाजी को नई तरह से गढ़ा जाना चाहिए था। मतलब प्रधानमंत्री खुद ही विपक्ष से बात करके, विपक्षी नेताओं को बुलाकर आम राय से ऐसा स्पीकर बनाते जिससे संसद की आभा बढ़ती। बुद्धी, मेघा, अंग्रेजी-हिंदी की भाषागत प्रवीणताओं और व्यवहार से वैश्विक जमात, मंच और संगठनों में भारत की उपस्थिति मौजूदगी हो तो दुनिया को लगे कि सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश का स्पीकर कैसा भव्य व्यक्तित्व लिए हुए है।
क्या आपको लगता है ऐसी कोई भी चिंता या दिल-दिमाग में सोच का परिवर्तन नरेंद्र मोदी3:0 में आया है? असलियत में बीस दिनों में नरेंद्र मोदी ने हर वास्तनिकता से मुंह चुराया है। चुनाव नतीजों के बाद नरेंद्र मोदी ने न तो भाजपा के पदाधिकारियों से सीधे-सीधे बात की और न भाजपा संसदीय दल की बैठक बुला कर उसमें नतीजों और नए नेता के चुनाव पर विचार किया। न ही संघ परिवार के पदाधिकारियों को बुला कर उनके साथ विचार, सलाह और परस्पर विश्वास बनाने जैसी कोई पहल की। विपक्ष और विपक्ष की सबसे पार्टी कांग्रेस के अध्यक्ष से सीधी बात करने की हिम्मत नहीं दिखाई। राजनाथसिंह को आगे करके सहयोगी दलों और विपक्षी नेंताओं से दिखावे का सलाह-मशविरा था। किया वही जो मन में था।सभी निर्णय उसी ढर्रे में जो पिछले कार्यकाल से चला आ रहा है।
इसलिए भाजपा के भीतर या सरकार में या संसद में वही होगा जो पहले होता आया है। नई सरकार का पालने में बीस दिनों के लक्षण वही है जो दस सालों का ढर्रा है। यह स्वभाविक है इसलिए क्योंकि नरेंद्र मोदी के लिए तीसरी दफा शपथ लेना ही परम संतोष याकि यह लक्ष्य प्राप्त है देखों, देखों मैंने जवाहरलाल नेहरू की तरह लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने का कीर्तिमान बना लिया। मुझे इतिहास वैसे ही याद रखेगा जैसे नेहरू को रखता है!मतलब जैसे गांव, पंचायत में होता है कि यदि कोई सरंपच, लगातार दस-पंद्रह साल लगातार पद पर बना रहे तो वह और उसका परिवार अपने को इलाके का राजा हुआ मानता है और एसडीओ, बीडीओं तथा लोग सब उसके अंहम के कसीदे काढ़ते है। वैसे ही मनोभाव में नरेंद्र मोदी अपने प्रधानमंत्रित्व का तीसरा टर्म इस सोच में पूरा करेंगे कि जब तीसरी बार बन गए है तो ऐसा होना उनके 2014 से अपनाएं तौर-तरीकों और शासन की बदौलत ही तो है। इसलिए ढर्रा याकि यथास्थिति याकि बासी कढ़ी ही भारत का अमृत है। हिंदुओं और भक्तों की परम सिद्धी है तो कुछ बदलने की, या नया कुछ करने की भला क्या जरूरत है? शपथ हो गई है न। इसका अहसास कराने के लिए ही नरेंद्र मोदी ने शपथ समारोह को ज्यादा भीड़भरा और भारत के भीड़ चरित्र को उद्घाटित करने वाला बनाया। फिर बिना किसी एजेंडे के जबरदस्ती जी-7 की बैठक में भी चले गए। अब अगले महिने पुतिन से मिलेंगे तो बाद में चीन शी जिन पिंग के साथ भी फोटोशूट करवाएंगे।
लाख टके का सवाल है कि जनादेश से नरेंद्र मोदी पर जमीन पर उतरे है या वे अपने को भगवान माने रहेंगे? पहली बात, जो व्यक्ति अपने को भगवान मान लेता है वह दिमाग में कभी यह पुर्नविचार नहीं लाता कि वह भगवान है या नहीं? दूसरी बात, भक्त वोटों के लिए बतौर भगवान उनका ब्रांड जब स्थापित है तो उनके दिल-दिमाग में क्यों हलचल पैदा की जाए? तीसरी बात, भगवान रहने का फायदा है कि बाकि सभी काम व्यवस्थापक और पुजारियों से संपन्न होता रहेगा। अमित शाह, राजनाथसिंह या प्रदेशों में अपने द्वारा स्थापित खड़ाऊ मुख्यमंत्रियों से जब मजे से काम चल रहा है तो भगवान क्यों इहलोक की बातों मतलब नीट परीक्षा, भीषण गर्मी या बाढ़, महंगाई, बेरोजगारी आदि की चिंता करें। भगवान को जरूरत ही नहींहै भव्य व्यक्तित्वों की केबिनेट, स्पीकर, राष्ट्रपति या काबिल-समर्थ अफसरों की। भगवान की लीला से सब ऑटो मोड में दस वर्षों में चलता हुआ है तो ये पांच साल भी चलेंगे।
जाहिर है हम भारतीयों की, विशेषकर हिंदुओं की नियति तय है। कुछ भी नया, कुछ भी अच्छा नहीं है मगर आस्था तो है कि सब प्रभु कृपा।