mahakumbh stampede: महाकुंभ में मौनी अमावस्या की रात जो हादसा हुआ उसने आयोजकों की हिप्पोक्रेसी और हिंदू धर्म के एक बड़े मठ के महंत व राज्य के मुख्यमंत्री व उनके प्रशासन की असंवेदनशीलता ही जाहिर नहीं की, बल्कि भारतीय समाज की एक दूसरी वास्तविकता को भी बतलाया है।
अंदाजा तो सबको था कि महाकुंभ में किस आर्थिक या सामाजिक पृष्ठभूमि के लोग पहुंच रहे हैं लेकिन भगदड़ की जगह पर जिस मात्रा में चप्पलें प्राप्त हुईं या जिस किस्म के कपड़े, लत्ते या झोले का कूड़ा इकठ्ठा हुआ उनसे इस सत्य की पुष्टि है कि अंततः गरीब, वंचित लोग ही धर्म की ध्वजा उठाए हुए है।
उसी के कमजोर कंधों पर धर्म को ढोने का भार है और वही इसकी त्रासदी का सर्वाधिक शिकार भी है।(mahakumbh stampede)
कह सकते हैं कि लोग जूते पहन कर घाट पर कैसे जाते इसलिए ज्यादातर लोगों ने चप्पलें पहनी थीं। लेकिन उन चप्पलों से उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति का अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं था।
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ऐसा नहीं था कि सबने अपनी सुविधा के लिए चप्पलें पहनी हुई थीं। वह उनकी वास्तविकता भी थी। मौनी अमावस्या की रात कम से कम दो जगहों पर भगदड़ हुई।
एक भगदड़ की खबर आई कि एक साथ 10 लाख लोग संगम नोज की तरफ जाने के लिए इकट्ठा हो गए और इस वजह से भगदड़ मची।
घटना के 18 घंटे के बाद मुख्यमंत्री और उनके प्रशासन ने स्वीकार किया कि 30 लोग मरे हैं और 60 से ज्यादा लोग घायल हुए हैं। लेकिन दूसरी भगदड़ की खबर ही नहीं आई।(mahakumbh stampede)
एक दिन के बाद पता चला कि दूसरी ओर झूसी की तरफ भी भगदड़ हुई और हजारों की भीड़ सोए हुए लोगों को रौंदती चली गई।
भगदड़ और चप्पलों का समाजशास्त्र
झूसी की तरफ हुई भगदड़ के दो दिन के बाद दिल्ली में अंग्रेजी के अखबार ‘द हिंदुस्तान टाइम्स’ ने खबर छापी की उस भगदड़ में सात लोग मरे।
लेकिन सोशल मीडिया में जो तस्वीरें आईं और जिस मात्रा में चप्पलें और दूसरी चीजें मिलीं उससे कहीं ज्यादा लोगों के मरने या घायल होने की संभावना दिखती है।
जब भगदड़ की दोनों जगहों की तस्वीरें देखेंगे तो यह साफ दिखाई देगा कि मरने वाले, घायल होने वाले या वहां जान बचा कर भागे लोग किस पृष्ठभूमि के हैं।(mahakumbh stampede)
चप्पलों के समाजशास्त्र का मतलब सिर्फ चप्पल नहीं है, बल्कि वहां छूटे कपड़े, झोले, घर से बना कर लाए गए खाने के थैले और दूसरी चीजों से भी अंदाजा लग रहा है कि बड़ी संख्या गरीब या निम्न आर्थिक वर्ग के लोगों की थी।
अगर इसका दायरा बढ़ाएं तो कुछ समय पहले हाथरस में एक बाबा के प्रवचन के बाद मचे भगदड़ को भी देख सकते हैं।
उस समय की तस्वीरें गूगल पर सर्च करने पर मिल जाएंगी। वहां भी चप्पलें ही बिखरी हुई थीं। वहां तो रेत पर मीलों चलने या संगम में डुबकी लगाने का मामला नहीं था फिर भी चप्पल पहनी हुई जनता ही भगदड़ का शिकार हुई।
भगदड़ के बाद घटनास्थल पर चप्पल(mahakumbh stampede)
इसी तरह गूगल पर हैदराबाद में एक फिल्म स्टार के सिनेमा हॉल में अचानक पहुंच जाने पर मची भगदड़ की तस्वीरें भी सर्च कर सकते हैं।
वहां भी भगदड़ के बाद घटनास्थल पर चप्पलें ही दिखाई दीं। जिस एक महिला की मौत हुई वह भी बेहद निम्न आय वर्ग की महिला था।
यानी महाकुंभ का आयोजन हो या किसी बाबा के प्रवचन का मामला हो या किसी सिनेमा हॉल में मची भगदड़ का मामला हो भीड़ में कुचल कर मरने वाले कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि वाले अधिक होते हैं।
वैसे महाकुंभ की भगदड़ के बाद हैदराबाद में ‘पुष्पा 2’ फिल्म के एक शो के दैरान हीरो अल्लू अर्जुन के पहुंचने के बाद मची भगदड़ का भी जिक्र हो रहा है।(mahakumbh stampede)
लोग पूछ रहे हैं कि जब उस भगदड़ को लेकर फिल्म स्टार अल्लू अर्जुन के ऊपर मुकदमा दर्ज हुआ और उनको गिरफ्तार करके जेल भी भेजा गया तो महाकुंभ की भगदड़ के बाद ऐसा क्यों नहीं किया गया?
क्या उसके लिए कोई जिम्मेदार नहीं है? अल्लू अर्जुन ने तो मृत महिला के परिजनों को 50 लाख रुपए से ज्यादा मुआवजे के तौर पर दिया है।
बहरहाल, महाकुंभ की भगदड़ ने ऐसे तमाम दावों की पोल खोल दी कि हिंदू धर्म में सब समान हैं और आस्था के महाकुंभ ने जाति का भेद मिटा दिया है।
संगम के किनारे फाइव स्टार क्वालिटी तंबू
लोग भीड़ की तस्वीरें दिखा कर पूछ रहे थे कि बताओ इसमें कौन अमीर है और कौन गरीब या कौन पिछड़ा, दलित है और कौन सवर्ण है?
लेकिन उन तस्वीरों में जाति या आर्थिक स्थिति खोजने की जरुरत नहीं थी। उस भीड़ में सब आम जनता थी, भेड़-बकरियां थीं और जो खास थे उनके लिए अलग से वीआईपी व्यवस्था की गई थी।
भेड़, बकरियां 12 किलोमीटर पैदल, एक ही पुल पर चलते हुए, अपने रैले के ड्रोन फोटो शूट के साथ धीरे-धीरे संगम तट तक पहुंच रही थीं वही अति विशिष्ट लोगों की गाड़ियां कई रास्तों से सीधे घाट तक जा रही थी।
उनके लिए पुलिस और प्रोटोकॉल के अधिकारी लगाए गए हैं। उनके लिए बिल्कुल संगम के किनारे फाइव स्टार या फोर स्टार क्वालिटी को तंबू लगे हुए हैं।(mahakumbh stampede)
उनको संगम पर खुद महामंडलेश्वर लोग स्नान करा रहे हैं। ऐसा नहीं है कि अति विशिष्ट लोगों में सिर्फ देश के बड़े नेता या मंत्री शामिल हैं।
उसमें गायक, कलाकार भी हैं, फिल्म वाले भी हैं, टेलीविजन सीरीज वाले हैं तो बैंकों का अरबों, खरबों का कर्ज खाकर पचा जाने वाले दिवालिया कारोबारी भी हैं।
नेताओं, अधिकारियों के बीवी, बच्चे, रिश्तेदार और जान पहचान वाले भी हैं। यहां तक की रीलबाज इन्फलूएसंर्स के साथ भी पुलिस की सुरक्षा चल रही है।
कुंभ नहीं आया वह देशद्रोही(mahakumbh stampede)
तभी भीड़ और भगदड़ में मरा वही है, जिसकी कोई पहचान दारोगा या उससे ऊपर के स्तर के किसी पुलिस वाले या किसी अधिकारी या किसी नेता से नहीं थी।
सो, एक हादसे ने यह हिप्पोक्रेसी भी जाहिर कर दी है कि महाकुंभ में सब समान हैं। जॉर्ज ऑरवेल ने अपने एनिमल फॉर्म में लिखा है कि, ‘सभी जानवर समान हैं लेकिन कुछ जानवर ज्यादा समान हैं’।
सो, जानवरों की भीड़ में जो ज्यादा समान हैं उनके लिए वीआईपी व्यवस्था है। उनमें से कोई भगदड़ में नहीं कुचलता है।(mahakumbh stampede)
सब 50 हजार रुपए तक की हवाई यात्रा की टिकट कटा कर पहुंचते हैं, किसी महामंडलेश्वर के आश्रम में रूकते हैं और शाही स्नान करके लौट जाते हैं।
इसमें अगर कुछ हजार या लाख खर्च हुए तब भी कोई फर्क नहीं पड़ता है।
एक नए उभरे बाबा, जो अपने को हनुमान जी का अवतार साबित करने में लगे हैं वे कह रहे हैं कि जो कुंभ नहीं आया वह देशद्रोही है और जो भगदड़ में मर गया उसको मोक्ष मिला है।
फिर ऐसा मोक्ष किसी बाबा या किसी वीआईपी को क्यों नही मिला? क्या उनकी आस्था में कुछ कमी है?