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योगीः बलि का बकरा?

ऐसा हुआ तो गजब होगा। पर लग रहा है योगी आदित्यनाथ की कुर्सी जाएगी। नरेंद्र मोदी और अमित शाह देरसबेर योगी आदित्यनाथ पर यूपी में हार का ठिकरा फोड़ने वाले है। क्यों? कई तरह की बाते है। एक एंगल जातिय राजनीति का है। पहले मध्यप्रदेश में शिवराजसिंह चौहान की छुट्टी, फिर क्षत्रिय समाज की भावनाओं को आहत करने वाली गुजरात में टिका-टिप्पणी और उत्तर भारत में क्षत्रियों को टिकट देने में कंजूसी तथा उनकी जगह ओबीसी-आदिवासी वोटों को अंहमियत मोदी-शाह की नई बिसात के दो टूक संकेत है। दूसरा कारण 2029 के चुनाव और अपने भविष्य के लिए बनी अमित शाह की बिसात है। तीसरा कारण, योगी आदित्यनाथ की हिंदुओं में लोकप्रियता के प्रति चिढ़ का है। चौथा कारण, योगी का अक्खड़पना व ऐकला चलो है। पांचवा कारण योगी का ठाकुरवाद है। एक तात्कालिक  कारण यह भी है कि अमित शाह के लिए यदि अभी नहीं तो आगे योगी आदित्यनाथ को हटाना और मुश्किल होगा। फिर इस समय नरेंद्र मोदी क्योंकि आरएसएस की परवाह नहीं करते हुए है इसलिए योगी को बचाने वाला कोई नहीं है। 

इस सबको योगी समझते हुए है। तभी चुनाव नतीजों के तुरंत बाद दोनों तरफ पोजिशनिंग है। चार जून को मतगणना के दिन जब वाराणसी में पोस्टल वोट और शुरूआती राउंड़ में नरेंद्र मोदी ने अपने को लुढ़कते पाया तो जानकारों के अनुसार सुबह नौ-दस बजे का वह वक्त नरेंद्र मोदी का पारा बढ़वा देने वाला था। अमित शाह को बुलाया गया और समय की उस वेला में वह हुआ जिससे दिन भर अमित शाह का चेहरा साहेब के गुस्से की छाप लिए हुए था। फिर  मोदी और शाह यह सोचे बैठे है कि अब बहुत हुआ। लखनऊ में ओबीसी नेता ही मुख्यमंत्री होगा। योगी आदित्यनाथ को दिल्ली में मंत्री बना कर चिराग पासवान के साथ बैठा दिया जाए। चिराग पासवान से अपना तात्पर्य है कि आला चार मंत्री, फिर गडकरी, नड्डा, अश्विनी वैष्णव, शिवराजसिंह, पीयूष गोयल, गिरिराजसिंह, खट्टर, धर्मेद्र प्रधान जैसी अंहमियत तो योगी के लिए संभव नहीं है। मगर हां, मांझी, ललनसिंह, चिराग जैसा उन्हे कोई मंत्रालय दे कर कोने में बैठा दो। सोचे, दिल्ली में अमित शाह से योगी कितने नीचे और डाउन होंगे! 

और लगता है योगी आदित्यनाथ को अपनी ऐसी भावी हैसियत का भान है। इसलिए कहते है कि चुनाव से पहले और नतीजों के बाद उनसे जब  दिल्ली में मंत्री बनने का प्रस्ताव किय गया तो उनका स्टेंड था कि इससे बेहतर तो वे गोरखपुर में, मठ में जा कर धुनी रमाएंगे। 

संघ-भाजपा के जानकारों की यह चर्चा अपने को ठिक लगती है कि मोदी-शाह ने चुनाव से पहले भी योगी आदित्यनाथ को लोकसभा चुनाव लड़ दिल्ली में मंत्री बनाने का प्रस्ताव दिया था। पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा लखनऊ गए थे। योगी से बात की थी लेकिन योगी ऐसे उख़ड़े की उन्होने साफ कहा तब मैं अपने मठ चला जाऊंगा। मतलब नरेंद्र मोदी जैसे कहते है मैं झौला उठा कर चल दूंगा तो योगी का भी प्रतिजवाब कि तब में चिमटा उठा मठ लौटूगा। कहते है योगी ने न केवल तेंवर दिखाएं बल्कि वे अगले दिन गोरखपुर चले भी गए। घबराएं जेपी नड्‍डा भागे-भागे उनके पीछे गोरखपुर गए और योगी को शांत किया। 

हकीकत है कि चुनाव शुरू हुए तो नरेंद्र मोदी, अमित शाह दोनों को मजबूरन उम्मीदवारों की मांग पर योगी आदित्यनाथ की जनसभाएं (हालांकि पहले दो राउंड तक योगी को यूपी में ज्यादा समेटे रखा) करानी पड़ी। मगर परस्पर शक पैदा था। नतीजतन जब चार जून को यूपी में नतीजे उलटे आए तो चार जून को ही योगी और अमित शाह दोनों को नतीजों पर नरेंद्र मोदी का गुस्सा झेलना पड़ा। जबकि रियलिटी है कि किसी को जमीनी हकीकत का भान नहीं था। खुद मोदी को वाराणसी की ग्राउंड रियलिटी मालूम नहीं थी। उन्हे मतदान के दिन ही मालूम हुआ कि वाराणसी के मतदान केंद्रों में कार्यकर्ताओं का टोटा है तो मतदाताओं को घरों से निकालने का प्रबंधन भी नहीं। इसलिए राहुल गांधी का यह कहा गलत नहीं है कि प्रियंका गांधी यदि मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ी होती तो नरेंद्र मोदी बुरी तरह हारते। 

बहरहाल तब से भाजपा के भीतर और बाहर यह नैरेटिव है कि दोषी कौन? योगी या मोदी-शाह? दोनों तरफ से एक-दूसरे को जिम्मेवार ठहराने का चिठ्ठा है। योगी भक्तों का प्रचार है कि दिल्ली के कारण यूपी में भाजपा हारी। योगी के कहने या उनकी लिस्ट से एक भी व्यक्ति को टिकट नहीं दिया गया? दिल्ली से गलत टिकट बंटे। वाराणसी की जिम्मेवारी पीएमओ और भाजपा मुख्यालय ने ख़ुद संभाली हुई थी। सीटिंग सांसदों ने काम नहीं किया तो एंटी इनकंबेसी होनी ही थी। ठिक विपरित योगी पर आरोप है वे ऐकला चलों वाले है। उनका अकेले का बुलडोजर है। उनके राज में प्रदेश सगंठन, पदाधिकारियों, मंत्रियों को न अधिकार और न जनता के काम करने की छूठ है। योगी जातिवादी है। वे ब्राह्यण, ओबीसी को तरजीह नहीं देते है।  

हिसाब से योगी के खिलाफ की ये सभी बाते फालतू है। आखिर नरेंद्र मोदी और अमित शाह तो स्वंय ऐकला चलो के रोल मॉडल है। ये कौन सा जनसंपर्क, मीडिया रिश्तों, सांसदों-विधायकों के काम करते या करवाते है तो योगी वैसे ही अंहकार के यूपी मॉडल है जैसे नरेंद्र मोदी गुजरात और विश्व के अंहकार मॉडल है। स्मृति ईरानी के हारने या नरेंद्र मोदी के जैसे-तैसे जीतने में भला योगी कैसे जवाबदेह जबकि ये स्वंय अपने आपमें सर्वसमर्थ और सर्वज्ञ है। 

इसलिए जब तर्क हुआ कि विधायकों में योगी पूछ ले कि वे आपको कितना चाहते है तो प्रतितर्क हुआ तब नरेंद्र मोदी भी सांसदों की बैठक में यह रायशुमारी कराएं कि उन्हे कितने सासंद चाहते है? क्यों नहीं चुनाव के बाद संसदीय दल की बैठक बुलाकर मोदी ने अपना फैसला कराया? 

जो हो, योगी को या तो दिल्ली आना है या चिमटा उठा कर गोरखपुर लौटना है। आरएसएस याकि संघ अब योगी को नहीं बचा सकता है। नरेंद्र मोदी यदि सुरेश सोनी के जरिए या अमित शाह सीधे संघ के दत्तात्रेय होसबोले से योगी को मनाने और उन्हे दिल्ली में मंत्री बनने के लिए राजी करने के लिए कहे तो वे वापिस योगी से बात करने शायद ही तैयार हो। नतीजों के बाद दिल्ली में सांसदों की बैठक में ही जब मोदी ने अपना ठप्पा नहीं लगाया तो विधायकों-सांसदों के चाहने में योगी को हटाने की दलील संघ में वाजिब नहीं मानी जाएंगी। इसलिए मोदी-शाह के पास विकल्प यही है कि ईडी-सीबीआई जैसे पुराने औजारों से वे योगी को धमकाएं कि मान जाओं नहीं तो गोरखपुर मठ पर छापे पड़ेंगे! 

सो जय हो संघ के पैदा किए भगवानों की और उनके हिंदू राष्ट्र की!

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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