विपक्षी पार्टियां क्या कर रही है? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के झूठ की पोल खोलने में लगी हैं। उनको लगता है कि लोगों को बताएंगे कि मोदी ने कितने झूठ बोले हैं तो लोग यकीन करेंगे और उनका साथ छोड़ देंगे। लेकिन ऐसा नहीं होने वाला है। झूठ की पोल खोलने का क्या मतलब है? उससे लोगों पर कुछ भी असर नहीं होगा, बल्कि उससे बड़ा झूठ बोलने पर फायदा होगा। सोचें, क्या देश के करोड़ों करोड़ लोगों को पता नहीं है कि उनसे झूठ बोला गया है? हो सकता है कि भारत के विश्व गुरू होने वाले झूठ के बारे में ज्यादा लोग नहीं जानते हों लेकिन जो बातें उनकी जिंदगी से जुड़ी हैं उनके बारे में तो उनको पता ही होगा। क्या वे नहीं जानते हैं कि उनके बच्चे नौकरी के लिए भटक रहे हैं? क्या उनको पता नहीं है कि उनकी बचत घट रही है और रोजमर्रा की जरूरत के लिए कर्ज लेना पड़ रहा है? महंगाई क्या उनको नहीं चुभ रही है? क्या किसान नहीं जान रहे हैं कि खेती उनके लिए घाटे का सौदा बन गया है? क्या नौजवान बेरोजगारी की मार नहीं महसूस कर रहा है? पांच किलो अनाज के लिए लाइन में खड़े लोगों को अपमान का अहसास नहीं हो रहा होगा? जिनके प्रियजन ऑक्सीजन की कमी से अस्पतालों में मर गए या जमीनें बेच कर जिन लोगों ने काले बाजार से कोरोना के इलाज के इंजेक्शन खरीद थे क्या उनको हकीकत का अहसास नहीं है?
मतलब जिसको फर्स्ट हैंड एक्सपीरियंस कहते हैं वह तो देश के करोड़ों लोगों को हो ही रहा है। फिर भी अगर वे उस पर यकीन कर रहे हैं तो इसका मतलब है कि उनकी कंडीशनिंग ऐसी है। वे सपनों में जीना पसंद करते हैं। तभी बॉलीवुड की फिल्में उनको आकर्षित करती हैं।
जिस तरह से सिनेमा यकीन दिलाने की कला है। थियेटर में जाने वाले लोग थोड़े समय के लिए अपने तर्क, अपनी समझ और अपनी मान्यताओं को बाहर छोड़ कर जाते हैं, जिसे ‘विलफुल सस्पेंसन ऑफ बिलीफ’ यानी स्वेच्छा से अपनी समझदारी का परित्याग करना कहते हैं उसी तरह राजनीति में भी होता है। राजनीति भी जनता को यकीन दिलाने की कला है। कोई नेता कैसे अपने झूठ को लोगों के दिमाग में इस तरह बैठा सकता है कि वह उसी पर यकीन करे, उसी को सच माने उससे ही नेता की काबिलियत और उसकी सफलता तय होती है। झूठ की पोल खोल कर अगर लोगों को हकीकत की दुनिया में लाने का प्रयास किया गया तो बड़ी असफलता मिलेगी। भारत की फिल्मों से यह जगजाहिर है। भारत की सचाई दिखाने वाली फिल्में व्यावसायिक रूप से कभी सफल नहीं होती हैं। उसे आलोचकों की तारीफ मिलती है, दर्शकों का प्यार नहीं मिलता है। राजनीति में भी बुद्धिमान लोग विपक्ष के एजेंडे की तारीफ कर सकते हैं लेकिन चुनाव तो जनता के प्यार से जीता जाएगा। वह कहां है विपक्ष के पास?