भारत सरकार ने लोकसभा चुनाव से पहले अपने 10 साल के राज की कामयाबियों के बारे में बताने के साथ साथ उससे 10 साल पहले के कांग्रेस राज की कमियां बताई हैं। सोचें, 10 साल पहले जिन मुद्दों पर भाजपा ने चुनाव लड़ा था, जिन मुद्दों को नरेंद्र मोदी ने अपने प्रचार की थीम में रखा था, जिन मुद्दों को लेकर नारे गढ़े थे और पूरे देश में होर्डिंग्स-पोस्टर लगे थे उन्हीं मुद्दों पर फिर से चुनाव लड़ने की तैयारी है। सरकार को पता था कि जब वह मनमोहन सिंह की सरकार के 10 साल यानी 2004 से 2014 के राजकाज पर श्वेत पत्र लाएगी तो यह सवाल उठेगा कि अभी इसकी क्या जरुरत है इसलिए श्वेत पत्र में बताया गया है कि 2014 में चुनाव जीतने के बाद श्वेत पत्र इसलिए नहीं लाया गया क्योंकि उससे लोगों का मनोबल टूटता और विदेशी निवेशकों में नकारात्मक मैसेज जाता।
सोचें, कितना लचर तर्क है। क्या विदेशी निवेशक सरकारी आंकड़ों पर निर्भर रहते हैं? उनके पास वर्ल्ड बैंक से लेकर आईएमएफ जैसी संस्थाओं के अलावा एसएंडपी, फिच, पीडब्लुसी, मेरिल लिंच जैसी दुनिया की प्रतिष्ठित संस्थाएं हैं, जो रियल टाइम वास्तविक डाटा उपलब्ध कराती हैं और विदेशी निवेशक उसके आधार पर फैसला करते हैं।
जहां तक लोगों के मनोबल का सवाल है तो इंडिया अगेंस्ट करप्शन यानी अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल ने मिल कर भ्रष्टाचार का ऐसा हल्ला बनवाया था कि उसके बारे मे जानने के लिए किसी को श्वेत पत्र की जरुरत ही नहीं थी। बाद में भाजपा ने अपने प्रचार से इसे और बड़ा मुद्दा बना दिया। सरकार को पता है कि भाजपा इस मुद्दे को 10 साल पहले भुना चुकी है। इसलिए उस समय श्वेत पत्र लाने का कोई मतलब नहीं था। लोगों को सब कुछ पता था। उलटे थोड़े दिन के बाद इन सबकी हकीकत भी खुल गई, जब संचार घोटाले के आरोपी बरी हो गए, कोयला घोटाले में किसी नेता को सजा नहीं हुई, मनमोहन सिंह पर कोई आंच नहीं आई और महंगाई वैसी ही रही, जैसे पहले थी या उससे बढ़ गई।
अब 10 साल बाद श्वेत पत्र लाकर उस समय की यादों को ताजा बनाया जा रहा है। लेकिन यह काठ की हांडी को दोबारा चुल्हे पर चढ़ाने की तरह है, जिसका कोई तर्क अभी समझ में नहीं आता है। जब रामजी आ गए हैं, उनकी प्राण प्रतिष्ठा हो गई है, काशी कॉरिडोर बन गया है, महाकाल लोक का उद्घाटन हो गया है, मां कामख्या और मां विंध्यवासिनी कॉरिडोर बन रहा है, समान नागरिक संहिता लागू होनी शुरू हो गई है, अनुच्छेद 370 हटा दिया गया है, तीन तलाक के खिलाफ कानून बन गया है और केंद्रीय मंत्री खम ठोंक कर कह रहे हैं कि नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए चुनाव से पहले लागू होने जा रहा है तो फिर ऐसे श्वेत पत्र का क्या मतलब है, जिसकी बारीकी में जाने पर खुद सरकार की पोल खुलती है?
सरकार दावा कर रही है कि मनमोहन सिंह की सरकार के समय महंगाई की दर बहुत ऊंची थी। इसमें कोई संदेह नहीं है कि महंगाई दर ऊंची थी लेकिन उसी अनुपात में जीडीपी की दर भी ऊंची थी। और दूसरा कारण यह था कि 2004 से 2014 के बीच आमतौर पर कच्चे तेल की कीमत बहुत ऊंची थी। एक समय तो अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत 110 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गई थी। जो कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के थोड़े समय के बाद ही गिर कर 40 डॉलर प्रति बैरल तक आ गई थी। तभी मोदी ने खुद को नसीब वाला प्रधानमंत्री बताया था। आज भी कच्चे तेल की कीमत 75 डॉलर प्रति बैरल है लेकिन भारत में पेट्रोल एक सौ रुपए लीटर या उससे ऊंची कीमत पर बिक रहा है, जो मनमोहन सिंह के समय 70 रुपए लीटर के आसपास रहता था। इसी अनुपात में डीजल और रसोई गैस के सिलिंडर के दाम भी बढ़े हैं। जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चा तेल सस्ता हो रहा था तो जनता को उसका लाभ देने की बजाय मोदी सरकार ने उत्पाद शुल्क बढ़ा कर उसके दाम बढाए। ईंधन की महंगाई का नतीजा यह हुआ है कि हर चीज की महंगाई बढ़ी है। सिर्फ इंफ्लेशन नहीं, बल्कि स्रिंकफ्लेशन से लोग जूझ रहे हैं। वस्तुओं की कीमत बढ़ रही है और पैकिंग का आकार छोटा होता जा रहा है। सोचें, जिस चीज को लोग भुगत रहे हैं, जिससे लोगों का रोज सामना हो रहा है उस पर सरकार की ओर से जारी आंकड़ों का वे क्या करेंगे?
श्वेत पत्र में मैक्रो इकोनॉमिक्स पर जोर दिया गया है और कहा गया है कि यूपीए सरकार के समय अर्थव्यवस्था की बड़ी तस्वीर बहुत खराब थी। हालांकि इस बात की पुष्टि के लिए आंकड़े नहीं दिए गए हैं। यहां तक कि जीडीपी की वृद्धि दर के आंकड़े भी नहीं दिए गए हैं। लेकिन मैक्रो इकोनॉमिक्स की तस्वीर बताने वाले तीन चार आंकड़ों पर नजर डालें तो तस्वीर अलग ही दिखेगी। सबसे पहले जीडीपी देखें तो मनमोहन सिंह की सरकार के समय 10 साल का रियल जीडीपी का औसत 6.80 फीसदी का था, जबकि नरेंद्र मोदी के 10 साल का रियल जीडीपी का औसत 5.9 फीसदी है। यानी मनमोहन सिंह के समय रियल जीडीपी करीब एक फीसदी ज्यादा रफ्तार से बढ़ी थी। दूसरा आंकड़ा वित्तीय घाटे का है। मनमोहन सिंह के समय 10 साल का वित्तीय घाटा औसतन 4.7 फीसदी था, जो मोदी सरकार के 10 साल में 5.1 फीसदी रहा। यानी लगभग आधा फीसदी ज्यादा। सोचें, पहले के मुकाबले नॉमिनल और रियल दोनों जीडीपी की रफ्तार कम रही और वित्तीय घाटा ज्यादा रहा तो वित्तीय अनुशासन और तेज विकास का दावा क्या बेतुका नहीं?