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कोई ग्रैंड नैरेटिव नहीं

Lok sabha lections

चुनाव 2024 रूटीन की तरह लड़ा जाता दिख रहा है। वजह कई हैं। एक कारण तो यह है कि चुनाव आयोग की बंदिशों और सोशल मीडिया की हर व्यक्ति तक पहुंच ने चुनाव को नीरस बनाया है। अब पहले ही तरह चुनाव एक उत्सव नहीं है। यह सामूहिक काम नहीं बल्कि व्यक्तिगत काम हो गया है। पार्टियां सोशल मीडिया में प्रचार करती हैं और चूंकि हर व्यक्ति के पास मोबाइल फोन है और प्रतिक्रिया देने के लिए एक मंच है तो वह सारी लड़ाई वहीं लड़ता है। Lok sabha lections

पार्टियों को शारीरिक रूप से जनता के बीच जाने की जरुरत नहीं है और जनता को भी नेताओं के पीछे भागने की जरुरत नहीं है। नेता अपना प्रचार सोशल मीडिया में करते हैं और जनता अपनी शिकायतें भी वही कर देती है। दूसरा कारण कारण यह है कि चुनाव आयोग ने ढेरों बंदिशें लगा दी हैं। घरों की दिवार पर नारे नहीं लिखे जाएंगे, झंडे मकान मालिक की अनुमति से लगाए जाएंगे, लाउडस्पीकर बजाने का समय और स्थान दोनों तय किए गए हैं और खर्चे पर जबरदस्त निगरानी है। सो, चुनाव में जो उत्सव का तत्व था वह धीरे धीरे खत्म होता हुआ है।

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चुनाव के नीरस होने का कारण यह भी है कि कोई ग्रैंड नैरेटिव नहीं है। याद करें पिछली बार का लोकसभा चुनाव कैसे बालाकोट एयरस्ट्राइक और पुलवामा में सीआरपीएफ के काफिले पर हुए हमले की पृष्ठभूमि में लड़ा गया था। पुलवामा में शहीद हुए 40 जवानों की फोटो लगा कर वोट मांगे जा रहे थे। पाकिस्तान को सबक सीखा देने का नैरेटिव बना था। जबकि इस बार भाजपा बासी कढ़ी में उबाल लाना चाह रही है। उसके नेता बार बार कह रहे हैं कि अब भारत ऐसा देश है, जो घर में घुस कर मारता है। लेकिन काठ की हांडी बार बार नहीं चढ़ती है। बहरहाल, 2019 में पुलवामा की शहादत, बालाकोट एयर स्ट्राइक, सर्जिकल स्ट्राइक के साथ राष्ट्रवाद का ग्रैंड नैरेटिव था तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा घोषित दर्जनों योजनाओं से देश में विकास की गंगा बहने की उम्मीद थी। Lok sabha lections

अगर उससे पहले के यानी 2014 के चुनाव की बात करें तो उस समय नरेंद्र मोदी अपने आप में ग्रैंड नैरेटिव थे। हिंदू हृदय सम्राट गुजरात से चल कर देश का चुनाव लड़ने आए थे। अपने साथ वे गुजरात मॉडल ले आए थे। उसी समय अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल के इंडिया अगेंस्ट करप्शन आंदोलन से पूरा देश आंदोलित था। देश में बदलाव की बेचैनी दिख रही थी और उसी समय नरेंद्र मोदी ने महंगाई दूर करने, भ्रष्टाचार मिटाने, गरीबी और बेरोजगारी समाप्त करने के लोक लुभावन नारे पर लड़ने उतरे और चुनाव जीत गए।

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इस तरह 2014 और 2019 दोनों में ग्रैंड नैरेटिव था। उसके साथ साथ आम जनता के जीवन से जुड़ी रोजमर्रा की बहुत सी बातें थीं। इस बार के चुनाव में कोई ऐसा नैरेटिव नहीं है, जिसको ग्रैंड कहें। अगर भाजपा के नेता मान रहे हैं कि अयोध्या में राममंदिर बन गया या 80 करोड़ लोगों को पांच किलो अनाज दे रहे हैं या जी-20 सम्मेलन हो गया या भारत तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनेगा या 2047 तक भारत विकसित देश बन जाएगा, यह ग्रैंड नैरेटिव है तो यह उनकी गलतफहमी है। लोग इस पर ज्यादा ध्यान नहीं दे रहे हैं।

ग्रैंड नैरेटिव नहीं होने का नतीजा यह है कि जनता चुप्प है। सो, कह सकते हैं कि सबसे बड़ा सस्पेंस जनता की चुप्पी का है। हो सकता है कि उसको विपक्ष के सवाल समझ में आ रहे हों लेकिन किसी मजबूरी में वह जोर जोर से वह सवाल पूछ नहीं रही हो। आखिर विपक्ष ने बेरोजगारी और महंगाई को मुद्दा बनाया है तो यह फीडबैक उसे जनता के बीच से ही मिली है। सीएसडीएस लोकनीति के सर्वेक्षण में भी इस देश के दो-तिहाई से ज्यादा लोगों ने माना है कि महंगाई और बेरोजगारी सबसे बड़ा मुद्दा है।

इस पर सरकार खामोश है और विपक्ष लगातार इसका प्रचार करते हुए है। लगातार 10 साल के नरेंद्र मोदी के शासन के बाद लोग भी उम्मीद कर रहे होंगे कि सरकार हिसाब देगी कि आखिर किसानों की आमदनी दोगुनी हुई या नहीं या सबके सिर पर छत मिली या नहीं या स्मार्ट सिटी बने या नहीं लेकिन सरकार ऐसा कोई हिसाब नहीं दे रही है। उलटे वह 10 साल के बाद भी विपक्ष से ही हिसाब मांगती दिख रही है। नरेंद्र मोदी 2014 में जिन मुद्दों पर चुनाव लड़े थे उनमें से किसी का जिक्र नहीं किया जा रहा है। नए मुद्दे ला दिए गए हैं। भ्रष्टाचार पर और ज्यादा कार्रवाई की बात प्रधानमंत्री कह रहे हैं तो लोग मन ही मन सोचते होंगे कि ज्यादा कार्रवाई का मतलब है कि विपक्ष के और आरोपी नेताओं को भाजपा में शामिल कराया जाएगा।

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सो, जनता कई मायने में कंफ्यूज भी है। सोचें, मोदी इतने होशियार हैं कि पहले की सरकारों की सारी उपलब्धियां अपने नाम कर ली हैं लेकिन उन्होंने इस चुनाव में अपनी उपलब्धियों को खुद ही कमतर कर दिया है। एक तरफ दावा किया जा रहा है कि जो 70 साल में नहीं हुआ वह कर दिया गया और दूसरी तरफ खुद प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि जो किया है वह स्टार्टर है, एपेटाइजर है अभी मेन कोर्स आना बाकी है। सोचें, कहां तो नरेंद्र मोदी ने 2014 में कहा था कि कांग्रेस को 60 साल दिए थे हमको 60 महीने दीजिए हम सब बदल देंगे और अब 120 महीने के बाद कह रहे हैं कि यह स्टार्टर था। तो जनता मेन कोर्स के लिए कब तक इंतजार करेगी?

यह बारीक बात है लेकिन लोगों को समझ में आ रहा है कि सरकार ने 10 साल में कुछ खास किया नहीं है इसलिए कोई ढिंढोरा नहीं पीटा जा रहा है। ऐसी स्थिति में विपक्ष ग्रैंड नैरेटिव गढ़ सकता था लेकिन उसकी सीमाएं हैं। उसके पास ले-देकर एक राहुल गांधी हैं, जो बेबाक होकर सरकार के खिलाफ बोलते हैं। बाकी नेता अपनी जान बचाने में लगे हैं। ऊपर से मीडिया का जीरो समर्थन है। फिर भी सोशल मीडिया के जरिए लोगों तक राहुल गांधी की बात पहुंची है।

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लोग महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी आदि व्यावहारिक समस्याओं को समझ रहे हैं। कुल मिला कर कह सकते हैं कि कोई ग्रैंड नैरेटिव या थीम नहीं होने और जनता के चुप हो जाने से बड़ा सस्पेंस बना है। जनता सड़कों पर नारे नहीं लगा रही है न सरकार के पक्ष में न उसके विरोध में। इसलिए जनता के मूड का अंदाजा लगाना किसी के लिए आसान नहीं है। यह जनता के मोहभंग का संकेत भी हो सकता है। ऐसे में वह चुपचाप जाकर सरकार के खिलाफ वोट कर सकती है या उदासीन होकर घर बैठ सकती है। अंतिम तौर पर वोट प्रतिशत से कुछ तस्वीर साफ होगी।

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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